हमारी इस हालात का ज़िम्मेदार कौन?
आज हम दुनिया में 2 बिलियन के क़रीब हैं लेकिन फिर भी हर किसी के ज़ुल्म का हदफ (target) बनते जा रहे हैं। हम पर ज़ुल्म और सितम ढाना हर किसी के लिए बहुत आसान होता जा रहा है। हालांकि जब हम तादाद में दुसरी कौमों से कम थें तो ऐसा लगता था कि हमारे साथ कोई ढाल है। अब ऐसा लगता है कि हमसे किसी ने वो ढाल छीन लिया या हम ने ही अपनी गफलतों और कोताहियों की वजह से खो दिया।
वो ढाल क्या थी? जो ना तादाद देखती थी और ना ही ताक़त दोनों से मुसलमानों की हिफाज़त करती थी।
नुज़ूल ए क़ुरआन से ले कर, जब जब मुसलमानों ने क़ुरआन को अपनी फलाह वा बहबूद का ज़रिया समझा उनका उरूज रहा यानि तब तक मुसलमानों ने अल्लाह रब्बुल के फ़रमान के मुताबिक़ अमल किया और कामयाब रहे।
"सब मिलकर अल्लाह की रस्सी को मज़बूत पकड़ लो और तफ़रक़े [फूट] में न पड़ो। अल्लाह के उस एहसान को याद रखो जो उसने तुमपर किया है। तुम एक-दूसरे के दुश्मन थे, उसने तुम्हारे दिल जोड़ दिये और उसकी मेहरबानी और फ़ज़ल से तुम भाई-भाई बन गए। तुम आग से भरे हुए एक गढ़े के किनारे खड़े थे, अल्लाह ने तुमको उससे बचा लिया। इस तरह अल्लाह अपनी निशानियाँ तुम्हारे सामने रौशन करता है, शायद कि इन निशानियों से तुम्हें अपनी कामयाबी का सीधा रास्ता नज़र आ जाए।" [कुरान 3.103]
मुसलमानों ने इस बात पर अमल किया और दुनिया को अपने ईमान की ताक़त और अपनी कामयाबियों से हैरान करते रहे। साथ ही उन में आपस में ना कोई फिरका परस्ती ना कोई ज़ात बिरादरी का तफरक़ा था बल्कि वो एक दुसरे को अपनी ताक़त समझते थे। जबकि हम फिरकाें और ज़ात बिरादरी में बटे हुए हैं। बहरहाल वापस अपनी बात की तरफ़ लौटते हैं, जैसा कि हमनें जाना वो ढाल कुरआन मजीद थी जिसे हम ने अपने घरों की सबसे ऊंची जगह पर रखना ही इसका हक़ समझा और जब कोई हमारे वहां फौत हो जाता है तो उसे पढ़ कर बक्शने के लिए, भले ही मरने वाले ने अपनी ज़िंदगी में इसके नुज़ूल के मक़सद को समझा हो या नहीं या फिर दुकानो और घरों में ख़ैरो बरकत के लिए एक ही वक्त में पुरी कुरआन पढ़वा लेते हैं। कुरआन का एक एक लफ़्ज़ हमें ज़िंदगी देता है बशर्ते ये कि हम उसे समझे। ना कि एक ही वक्त में बिना समझे पढ़ लें।
जैसे:
जब हमें भूख प्यास लगती है तो क्या हम खाने पानी का वज़िफ़ा करना शुरु हो जाते हैं? और ऐसा करने से हमारी भूख प्यास ख़त्म हो जाएगी? नहीं ना, तो क्या घरों, दुकानों और मरहूमीन के लिए क़ुरआन ख़्वानी करवाने से वो मक़सद हासिल हो जाएगा? जवाब वाज़ेह है कि दोनों जहानो की कामयाबी और बक़ा अमल से हासिल होना है। इंशा अल्लाह हम अपनी इस तहरीर में मुसलमानों के मौजूदा हालात का ज़िम्मेदार कौन है?
क़ुरआन के पैग़ाम से जानने की कोशिश करेंगे!
"अब जो कोई ताग़ूत का इनकार करके अल्लाह पर ईमान ले आया, उसने एक ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटनेवाला नहीं और अल्लाह [जिसका सहारा उसने लिया है] सब कुछ सुननेवाला और जाननेवाला है।" [कुरान 2.256]ताग़ूत का इंकार करना यानि उन सब का इंकार करना जिससे अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने कहा है। और हमनें क्या किया? ताग़ूती निज़ाम को अपनी फलाह वा बहबूद का ज़रिए समझ बैठे। और आज ये ताग़ूती निज़ाम ने हमारी तबाही का वो वो असासा तैयार कर लिया है कि अगर कुछ सालों पहले हमें कोई इस बारे तसव्वुर करने को बोलता तो शायद हम ही कहते कि तुम कुछ ज़्यादा ही सोच रहे हो। लेकिन हकीकतन आज हम ही इसके मुताहम्मिल बनते जा रहे हैं। सोचें ज़रा, क्या अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने हमें यूं ही पैदा करके छोड़ दिया था कोई निज़ामें ज़िंदगी या मुआशर्ती निज़ाम नहीं सिखाया था? फिर हम क्यों दोनों ही निज़ाम को अपनी ज़िंदगीयों में शामिल करने से कतराते रहे? क्या हमारा ये ख़्याल बन गया था कि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के बताए हुए निज़ामो के मुताबिक़ ज़िंदगी जी कर हम कहीं दुनिया की लज़्ज़तों से महरूम ना रह जाएं?
"ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, तुम्हारे माल और तुम्हारी औलादें तुमको अल्लाह की याद से ग़ाफ़िल न कर दें। जो लोग ऐसा करें वही ख़सारे में रहने वाले हैं।" [कुरान 63.9]
हमनें दुनिया कमाने में ख़ुद को अपने रब की याद से ग़ाफ़िल कर दिया जबकि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने इस दुनिया को हमारे लिए क़ैदखाना, इम्तिहानगाह बनाया है। फिर भी इन तमाम बातों को पुश्त पर डाल कर हम दुनिया कमाने में ख़ुद को ख़्वार करने लगे और अब हालात ये है कि जैसे हमारी ज़िंदगीयों की बाग डोर ज़ालिमो के हाथों में चली गई हो।
“ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अपने गरोह के लोगों के सिवा दूसरों को अपना राज़दार न बनाओ। वो तुम्हारी ख़राबी के किसी मौक़े से फ़ायदा उठाने से नहीं चूकते। तुम्हें जिस चीज़ से नुक़सान पहुँचे, वही उनको पसंद है। उनके दिल का द्वोष उनके मुँह से निकला पड़ता है, और जो कुछ वो अपने सीनों में छिपाए हुए हैं वो इससे बढ़कर है। हमने तुम्हें साफ़-साफ़ हिदायतें दे दी हैं। अगर तुम अक़लवाले हो [तो इनसे ताल्लुक़ रखने में सावधानी बरतोगे]।" [कुरान 3.118]सेक्युलर और लिबरल बनने की होड़ में, हमनें इन बातों को क्या कुछ समझ कर अपना राज़दार बनाना तो दूर दांत काटी रोटी खाना पसन्द किया। और अब हाल ये है कि वो हमारा लुक्मा क्या होगा ये तय करने लगें। आगे अभी और भी बहुत कुछ वो हमारे लिए तय करेंगे और मनवाएंगे भी, फिर भी हम अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की बताई हुई हिदायतों से सबक नहीं हासिल करने वाले हैं।
"ईमानवाले! ईमानवालों को छोड़कर [हक़ का] इनकार करनेवालों को अपना दोस्त और मददगार हरगिज़ न बनाएँ। जो ऐसा करेगा उसका अल्लाह से कोई ताल्लुक़ नहीं। हाँ, ये माफ़ है कि तुम उनके ज़ुल्म से बचने के लिये ऊपरी तौर पर ये रवैया अपना लो। और अल्लाह तुम्हें अपने आपसे डराता है, और तुम्हें उसी की तरफ़ पलटकर जाना है।" [कुरान 3.28]अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने ऐसी बहुत सी हिदायतें दी हैं जिससे हम सबक हासिल करते तो आज हमारा ये हाल हरगिज़ नहीं होता। हिक्मत के तहत गैर मुस्लिम से ताल्लुक बनाना चाहिए। और दोस्ती सोच समझ करनी चाहिए क्योंकि,
नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:
"आदमी अपने दोस्त के दीन पर होता है लिहाज़ा तुम में से हर शख्स को ये देखना चाहिए कि वो किससे दोस्ती कर रहा है।" [अबु दाऊद: 4833]
इस हदीस में पोशीदा पैग़ाम ये है कि इंसान दोस्तों की सोहबत में रह कर उसकी अच्छी या बुरी आदतों से ज़्यादा दिन तक बच नहीं सकता। इसी लिए ईमान वालों को अहले ईमान से ही दोस्ती करनी चाहिए।
आज भी अगाह करने पर कुछ लोग कहते हैं कि ये हमारा क्या बिगाड़ पाएंगे हम तब नहीं मिटे जब 313 थें और आज तो हम तादाद में कहीं ज़्यादा हैं।
ऐ नबी! ईमानवालों को जंग पर उभारो, "अगर तुममें से बीस आदमी सब्र करनेवालें हों तो वो दो सौ पर ग़ालिब होंगे" और अगर सौ आदमी ऐसे हों तो हक़ के इनकारियों में से हज़ार आदमियों पर भारी होंगे, क्योंकि वो ऐसे लोग हैं जो समझ नहीं रखते।" [कुरान 8.65]क्या हमारा ईमान ऐसा है कि हम बीस लोग दो सौ लोगों से मुक़ाबला कर सकें, सौ हज़ारों पर भारी हों?
अगर हमारा ईमान 313 (जंग ए बादर में मुसलमानों की तादाद) वाला होता तो क्या उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी से मुसलमानों को पलायन करना पड़ता? आइए जान लेते हैं उत्तर काशी के पलायन बारे में;
26/6 को उत्तरकाशी के पारोला कस्बे की एक हिंदू नाबालिग लड़की के अपहरण का मामला है। जो कक्षा नौ में पढ़ती है। लोगों के मुताबिक़ एक उबैद ख़ान जिसकी उम्र 24 साल और दूसरा जितेंद्र कुमार सैनी जिसकी उम्र 23 साल और तीसरा लड़का भी हिंदू ही है। उस लड़की बहला फुसला कर ले जा रहे थे शादी के लिए लेकिन आस पास के लोगों ने पूछ ताछ कर मामला पुलिस के हवाला कर दिया और पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज कर लड़कों को जेल भी भेज दिया। वाज़ेह रहे लड़की ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया जिससे उन लड़कों के ख़िलाफ़ कोई कारवाई की जाए। लेकिन पुलिस करवाई के बाद भी कुछ शरपसंद तबके ने इस बेबुनियाद बात को मुसलमानों के ख़िलाफ़ हथियार बना कर ज़ुल्म सितम ढाना शुरु कर दिया।
ज़ालिमो ने तो पोस्टर लगा कर मुसलमानों को दुकान और मकान ख़ाली करने पर मजबूर कर दिया।
पारोला के मुख्य बाज़ार में 550-600 तक दुकानें हैं जिन में से 40-45 दुकानें मुसलमानों की हैं और इन में से ज़्यादा तर को फोन कॉल पर भी दुकान ख़ाली करने और मकान छोड़ने के लिए धमकियां दी जा रही हैं।
हद तो ये हो गई कि जब बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चा के ज़िला अध्यक्ष को भी अपना घर और दूकान ख़ाली करना पड़ा जिसकी दुकान 25 सालों पुरानी थी।
ये सब हो रहा है लेकिन डबल इंजन की सरकार के गैर ज़िम्मेदार लोग इन सब से इंकार कर रहे हैं। शर पसन्द लोग लाठी डंडों से लोगों के घरों और दुकानों पर हमला कर रहें हैं जो की विडियोज में साफ़ साफ़ देखा जा सकता है फिर भी अज्ञात के नाम से मुकदमा दर्ज हुआ है। और इंतेहा तो ये है कि इन सब शरपसन्दो को मुबारक बाद भी दी जा रही है।
उत्तराखंड के मीडिया स्त्रोत (sources) की माने तो, उस नाबालिग लड़की की दोस्ती जितेंद्र कुमार सैनी से है और वो सब सिर्फ़ एक साथ थें कहीं भाग नहीं रहे थे।
- इसी उत्तराखंड के हल्द्वानी में कुछ अर्से पहले मुस्लिमों के घरों को बुल्डोजर से गिराने की बात की जा रही थी।
- इसी उत्तराखंड में कुछ अर्से पहले ज़मीन जिहाद के नाम पर लोगों को 14% मुसलमानों के ख़िलाफ़ भड़काया गया।
- इसी उत्तराखंड में धर्म संसद के दौरान दो करोड़ मुसलमानों के क़त्ले आम की बात की गई और इस पर संज्ञान लेना तो दूर ये बात ख़बर भी नहीं बनी।
ये सब हमारी गफलतों तक होता रहेगा और अगर हम इसी तरह अपना घर बार उनके कहे के मुताबिक़ छोड़ कर भागने लगे तो वो दिन दूर नहीं जब हम इन ज़ालिमों के गुलाम बन जाएंगे और गुलामी उस शय का नाम है अगर कोई उसका असीर बन गया तो उसकी कई नस्ले आज़ाद नहीं हो पाती हैं।
बहरहाल, कोई मुस्लिम लड़की अगर गैर मज़हबी से शादी करे तो वो उस लड़की की आज़ादी और लव लाइफ बता दिया जाता है। लेकिन कोई गैर मुस्लिम लड़की अगर किसी गैर मज़हबी से शादी करे तो वो अपहरण या फिर लव जिहाद हो जाता है। ये शर पसन्द लोग लोगों को आज़ादी भी अपनी मर्ज़ी की देते हैं। और लोग उसे आज़ादी भी समझते हैं। ख़ैर हमें इससे क्या हमें उसके मुताबिक़ जीना चाहिए जिसकी तरफ़ पलटना है। लेकिन हमारा अमल क्या है?
"तुम मुशरिक औरतों से हरगिज़ निकाह न करना, जब तक कि वो ईमान न ले आएँ। एक मोमिन लौंडी शरीफ़ मुशरिक औरत से बेहतर है, चाहे वो तुम्हें बहुत पसन्द हो।" [कुरान 2.221]क्या हमनें अपने रब बताए हुए रास्तों का इंतेखाब किया? क्या नबी करीम ﷺ ने नहीं सिखाया है कि किस तरह की औरत से निकाह करना?
नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:
औरत से चार चीज़ों की वजह से निकाह किया जा है!
2 खानदान की वजह से
3 खूबसूरती की वजह से
4 दीनदारी की वजह से
तुम दीनदरी को चुन लो कामयाब हो जाओगे।
[सहीह बुखारी: 5090]
अपनी कौम की औरत से निकाह करते वक्त हम लोगों को ज़ात बिरादरी और माल ओ दौलत देखना होता है लेकिन दुसरी कौम की लड़की से शादी के वक्त उसका अलग धर्म ही नहीं नज़र आता। क्या अजीब बात है? जबकि दीनदार औरत से निकाह करने को कहा और उसकी हिक्मत को भी समझाया गया है फिर भी लोगों का इंतेखाब उसके बरक्स है। क्या ये हमारी तबाही के लिए छोटी बात है? इसी बिना पर लव जिहाद नाम की चिंगारी सुलगाई गई और अब इसके नाम पर क्या कुछ हो रहा है उससे कोई बे ख़बर नहीं। बात यहां तक आ पहुंची कि अब हमारे कौम की कम उम्र बेटियां इस का शिकार होती जा रही हैं। और जब लोगों ने पोस्टर्स वगैरह के ज़रिए इस फितने को रोकने की कोशिश की तो मुख्य धारा की मीडिया (main stream media) ने उसे भी हमारे ख़िलाफ़ ख़बर बना कर बहस शुरु कर दिया।
हक़ और इंसाफ़ मिलना तो दूर हम पर हो रहे ज़ुल्म सितम तो अब ख़बर भी नहीं बन रहे। क्या हम अब भी नहीं सोचेंगे कि हम ने ऐसी क्या खता की है? जिसके नतीजे में ये सब कुछ हो रहा है।
ज़ुल्म भी हम पर और ज़ालिम भी हम ही।
आज कल मीडिया का दौर है और ये दौर ख़ूब से ख़ूब हमारे ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जा रहा है और हम ही मीडिया के लिए असानियां भी फराहम कर रहे हैं। जब वक्त और हालात हमारे हक़ में ना हो तो हिक्मत का तक़ाज़ा यही है कि हम कोई काम ऐसा ना करें जिससे ज़ालिमो को कोई मौक़ा मिल सके हमें तबाह करने का क्यों कि वो इंफेरादी तौर पर ही नहीं बल्कि पूरी कौम की तबाही चाहते हैं। और ये सब बहुत वाज़ेह है। अलग अलग राज्य और शहरों में नई नई ज़ालिमाना चालें चल रहे हैं।
जैसे:
1 ओडिशा के बालासोर रेल हादसे में एक ख़्याली स्टेशन मास्टर तलाश कर हमें ज़िम्मेदार बनाने की कोशिश की गई।
2 केरला में चुनाव से पहले, the Kerala story रिलीज़ करके हमारे ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने की भरपूर कोशिश गई।
3 72 Hoorain 7/7/23 को रिलीज़ होगी और ये हमारे ख़िलाफ़ नफ़रत का एक हथियार है।
4 अब महाराष्ट्र में चुनाव होने वाला है तो वहां अचानक से औरंज़ेब आलमगीर का नया जन्म हो गया।
(इस पर भी इंशा अल्लाह लब कुशाई करेंगे)
5 उत्तर प्रदेश के बुलंद शहर में मंदिर तोड़ने का इल्ज़ाम भी मीडिया के ज़रिए हम पर डालने की कोशिश गई।
आपने सोचा हमारे ख़िलाफ़ ज़ालिम की ये राविश क्यों है? हमनें तो सिर्फ़ आज कल के हालात बयान किए हैं। 75 सालों के या 10 सालों के नहीं बल्कि 1 साल का भी नहीं है ये सब ज़ालिमाना राविश सिर्फ़ दो तीन महीनों के ही हैं। और हमारा ये सब बयान करने का हरगिज़ मतलब ये नहीं है कि हम, हमारे ऊपर हो रहे ज़ुल्म को बता कर ख़ुद को मज़लूम साबित करें बल्कि मेरी ज़िंदगी का मक़सद है अपनी कौम को बेदार करना और ज़ालिम को आश्कार करना क्यों कि ज़ालिम तभी तक ताक़तवर जब वो आश्कार नहीं।
खुलासा ए कलाम:
खुलासा ये है कि हम आर्ज़ी (दुनियावी ज़िंदगी) के ख़ातिर अस्ल (आख़िरत की ज़िंदगी) से ख़ुद को दूर कर यहां तक ले आएं हैं कि ज़ालिम हम पर इस तरह हमलाआवर हुआ कि हम ख़ुद का दिफ़ा करना तो दूर उस ज़ुल्म ज़ुल्म कहने से भी क़ासिर हैं इंतेकाम लेने का तो सोच ही नहीं सकते हैं। दुआ है!
"ऐ हमारे रब! हमें काफ़िरों के लिये फ़ितना न बना दे। और ऐ हमारे रब! हमारे क़ुसूरों से दरगुज़र फ़रमा, बेशक तू ही ज़बरदस्त और दाना है।" [कुरान 60.5]
बिन्ते हव्वा
1 टिप्पणियाँ
अल्लाह हमें इमान पर जिंदगी गुजार ने वाला बनादे आमिन
जवाब देंहटाएंकृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।