Sadaqatul fitr (fitrana)

Sadaqatul fitr (fitrana)


सदक़तुल फ़ित्र (फ़ित्राना)


يٰٓـاَيُّهَا الَّذِيۡنَ اٰمَنُوۡا كُتِبَ عَلَيۡکُمُ الصِّيَامُ کَمَا كُتِبَ عَلَى الَّذِيۡنَ مِنۡ قَبۡلِکُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُوۡنَۙ‏ ١٨٣

"ऐ ईमान वालों! तुम पर रोज़े फ़र्ज़ किए गए, जैसे तुमसे पहले लोगों पर फ़र्ज़ किए गए थे, ताकि तुम तक़वा (परहेज़गारी) इख़्तियार करो।" [सूरह अल-बक़रा: 183]

अल्लाह ने इस आयत में रोज़े का मक़सद तक़वा बताया है। अगर किसी ने रोज़ा रखा और अपनी ज़बान पर कंट्रोल नहीं किया, फ़हश बातों और हराम कामों से नहीं बचा, तो उसके रोज़े का कोई मक़सद नहीं रहा।

अल्लाह तआला ने 30 दिन के रोज़े फ़र्ज़ किए हैं ये एक तरह से हमारी ट्रेनिंग है ताकि हम हराम कामों से रुक जाएँ और तक़वा वाले बनें। जब हम एक महीने हराम चीज़ों से खुद को रोक सकते हैं, तो फिर बाक़ी 11 महीने क्यों नहीं? यह सोचने की बात है। हम सबको इस पर ग़ौर करना चाहिए पर मुआमला उल्टा होता है लोग एक महीने खूब इबादत करते हैं पर रमज़ान ख़त्म होते ही वापस अपनी ज़िन्दगी में लौट जाते हैं।  

अल्लाह का अपने बंदों को भूखा-प्यासा रखना मक़सद नहीं, बल्कि असल मक़सद यह है कि इंसान तक़वा और परहेज़गारी इख़्तियार करे। अगर हम रोज़े में हलाल काम करते हैं और हराम से बचते हैं, तो हमारे रोज़े का मक़सद पूरा हो गया। लेकिन अगर हमने ग़लतियाँ कीं, तो फिर रोज़े का असली मक़सद अधूरा रह गया।

तो इस आयत से हमें मालूम हो गया हमारे रोज़ों का मक़सद क्या है?

अब सवाल यह है कि सदक़ा-ए-फ़ित्र का मक़सद क्या है?

इस सवाल का जवाब जानने से पहले हमें ये जान लेना चाहिए की सदक़ा-ए-फ़ित्र क्या है?


1. सदक़ा-ए-फ़ित्र (फ़ित्राना)

रमज़ान के मुकम्मल रोज़े पूरे होने पर जो सदक़ा ग़रीबों और मिस्कीनों को दिया जाता है, उसे सदक़ा-ए-फ़ित्र कहा जाता है। "फ़ित्र" का मतलब रोज़ा खोलना या रोज़ा छोड़ना होता है। चूँकि यह सदक़ा रमज़ान के रोज़े पूरे करने के बाद दिया जाता है, इसलिए इसे सदक़तुल-फ़ित्र कहा जाता है।

अब बात करते हैं सदक़ा-ए-फ़ित्र का मक़सद क्या है?


2. सदक़ा-ए-फ़ित्र का मक़सद:

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि.) फ़रमाते हैं:

"रसूलुल्लाह (ﷺ) ने सदक़तुल-फ़ित्र को फ़र्ज़ किया, ताकि रोज़ा बेहूदा बातों और ग़लतियों से पाक हो जाए, और ग़रीबों के लिए खाने का इंतज़ाम हो।" [अबू दाऊद, हदीस: 1609]

नबी-ए-करीम (ﷺ) ने सदक़ा-ए-फ़ित्र के तीन मक़सद बताए:

i. रोज़ा बेहूदा बातों से पाक हो जाए।
ii. रोज़ा ग़लतियों से पाक हो जाए।
iii. ग़रीबों के लिए खाने का इंतज़ाम हो।


i & ii. रोज़ा बेहूदा बातों और ग़लतियों से पाक हो जाए: 

रोज़ा सिर्फ़ भूख और प्यास सहने का नाम नहीं, बल्कि इसमें अख़लाक़ी और रूहानी पाकीज़गी भी ज़रूरी है। इंसान से रोज़े के दौरान छोटी-मोटी ग़लतियाँ हो सकती हैं, जैसे कि बेहूदा बातें करना, ग़लत तरीक़े से किसी से पेश आना, या ग़लती से कोई गुनाह कर बैठना। सदक़तुल-फ़ित्र इन ग़लतियों का कफ़्फ़ारा है, जो रोज़े को मुकम्मल और पाक बना देता है।


iii. ग़रीबों के लिए खाने का इंतज़ाम: 

इस्लाम सिर्फ़ ज़ाती इबादत तक महदूद नहीं, बल्कि पूरे समाज की भलाई का भी पैग़ाम देता है। सदक़ा-ए-फ़ित्र का एक अहम मक़सद यह है कि ईद के दिन ग़रीब लोग भी ख़ुशियाँ मना सकें और उनके पास भी खाने का इंतज़ाम हो।

जो लोग रसूलुल्लाह (ﷺ) की इस तालीम पर अमल करते हैं, वो न सिर्फ़ अपने रोज़े को बेहतर बनाते हैं, बल्कि ग़रीबों की मदद करने का भी ज़रिया बनते हैं। रोज़ा सिर्फ़ ज़ाती इबादत नहीं, बल्कि सामाजिक ज़िम्मेदारी भी है।

सदक़तुल-फ़ित्र न सिर्फ हमारी गलतियों का कफ़्फ़ारा है, बल्कि ग़रीबों की मदद का भी एक तरीक़ा है, जिससे  एक अच्छा और इंसाफ़ पर मब्नी मुआशरा बन सकता है।


3. सदक़ा-ए-फ़ित्र का हुक्म:

सदक़ा-ए-फ़ित्र देना वाजिब (लाज़िमी/फ़र्ज़) है।

अक्सर लोग यह समझते हैं कि सिर्फ़ उन पर सदक़ा-ए-फ़ित्र फ़र्ज़ है, जिन पर ज़कात फ़र्ज़ है। लेकिन यह ग़लत है। जुमहूर उलेमा के मुताबिक़, सदक़ा-ए-फ़ित्र हर उस मुसलमान पर फ़र्ज़ है, जिसके पास सुबह से शाम तक का खाना मौजूद हो।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि.) फ़रमाते हैं:

"रसूलुल्लाह (ﷺ) ने सदक़तुल-फ़ित्र को फ़र्ज़ किया।" [अबू दाऊद, हदीस: 1609]

चूँकि सदक़तुल-फ़ित्र फ़र्ज़ है, तो अगर कोई इसे छोड़ देगा, तो वह गुनहगार होगा।


4. सदक़ा-ए-फ़ित्र किन पर वाजिब है?

  1. हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है।

  2. ग़ुलाम हो या आज़ाद – हर किसी को देना होगा।

  3. मर्द हो या औरत – दोनों पर फ़र्ज़ है।

  4. छोटा हो या बड़ा – सबको अदा करना होगा।

लेकिन सिर्फ़ वही शख़्स सदक़ा-ए-फ़ित्र देगा, जो इसे देने की इस्तिताअत रखता हो।

फ़ित्राना सिर्फ़ उन पर फ़र्ज़ है जो साहिब-ए-इस्तिताअत (देने की ताक़त रखने वाले) हैं।
तंग-दस्त (ग़रीब) पर फ़ित्राना वाजिब नहीं।

अगर किसी शख़्स के पास अपनी और अपने घरवालों की ज़रूरी ख़ुराक से ज़्यादा माल है, तो उस पर फ़ित्राना फ़र्ज़ होगा।

"रसूलुल्लाह ﷺ ने हर मुसलमान - ग़ुलाम हो या आज़ाद, मर्द हो या औरत, छोटा हो या बड़ा पर एक सा’ खजूर या एक सा’ जौ सदक़ातुल फ़ित्र अदा करना फ़र्ज़ किया है। आपने ﷺ हुक्म दिया कि यह लोगों के ईद की नमाज़ के लिए निकलने से पहले अदा कर दिया जाए।" [बुखारी, हदीस: 1503]


5. पूरे घर का सदक़तुल-फ़ित्र कौन अदा करे?

घर का जो ज़िम्मेदार शख़्स है, जो सबकी परवरिश कर रहा है, वही सभी का सदक़तुल-फ़ित्र अदा करेगा। वह अपनी बीवी, बच्चों और जिन लोगों की ज़िम्मेदारी उस पर है, चाहे वे भाई-बहन हों या माँ-बाप, सभी का सदक़तुल-फ़ित्र अदा करेगा।

अगर घर में कोई नौकर या मुलाज़िम है, तो उसका सदक़तुल-फ़ित्र उसके ज़िम्मे पर नहीं है, बल्कि घर का सरपरस्त ही देगा, क्योंकि वे नौकर उसकी किफ़ालत में हैं।

अगर कोई शख़्स अपने परिवार से दूर रहता है, तो क्या वह अपने परिवार वालों का फ़ित्राना अदा करे, जबकि उसके घरवाले खुद अपना फ़ित्राना अदा कर रहे हों?

फ़ित्राना हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है, इसलिए, अगर घरवाले अपना फ़ित्राना खुद अदा कर रहे हैं, तो घर से दूर रहने वाले शख़्स के लिए उनकी तरफ से अदा करना फ़र्ज़ नहीं। हाँ, उसे अपना फ़ित्राना वहीं अदा करना चाहिए जहाँ वह रह रहा है। अगर वहाँ फ़क़ीर मौजूद नहीं हैं, तो वह अपने घरवालों को वकील बना सकता है।


6. सदक़तुल-फ़ित्र कब दिया जाए?

जैसे ही रमज़ान का सूरज ग़ुरूब होता है और ईद का चाँद नज़र आता है, उस वक़्त से लेकर ईद की नमाज़ से पहले तक सदक़तुल-फ़ित्र अदा करना ज़रूरी है। अगर किसी ने ईद की नमाज़ के बाद दिया, तो वह सदक़तुल-फ़ित्र नहीं रहेगा, बल्कि एक आम सदक़ा माना जाएगा। इसलिए सदक़तुल-फ़ित्र ईद की नमाज़ से पहले देना ज़रूरी है।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि.) फ़रमाते हैं:

"आप ﷺ ने हुक्म दिया कि यह सदक़ा लोगों के ईद की नमाज़ के लिए निकलने से पहले अदा कर दिया जाए।"[बुख़ारी, हदीस: 1503]

लेकिन अक्सर लोग इसमें कोताही करते हैं। हम इसे नमाज़ से पहले अदा नहीं करते और आख़िरी वक़्त तक टालते रहते हैं। यानी हम इस फ़ित्राने में इतनी सुस्ती और काहिली करते हैं कि किन-किन को देना है, किस-किस का देना है, इसकी लिस्ट हम पहले से नहीं बनाते, बल्कि जब वक़्त हो जाता है, तब हड़बड़ी में लिस्ट बनाते हैं और नमाज़ के लिए निकलते वक़्त हाथ में आटा, दाल या चावल की थैली लेकर किसी न किसी को देने की कोशिश करते हैं। यह भी नहीं देखते कि वह हकीकत में उसका हक़दार है या नहीं।

जबकि इसका हुक्म यह है कि हम इसे ग़रीब और मसाकीन को दें, लेकिन बिना तहक़ीक़ के हम किसी को भी देते चले जाते हैं, फिर वह मुसलमान हो या ग़ैर-मुसलमान।

अगर नमाज़ से पहले कोई नहीं मिलता, तो हम इसे नमाज़ के बाद देते हैं, जो कि सदक़तुल-फ़ित्र नहीं माना जाएगा, बल्कि एक आम सदक़ा बन जाएगा।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि.) फ़रमाते हैं:

"जो सदक़तुल-फ़ित्र नमाज़ से पहले दे, उसका सदक़तुल-फ़ित्र अदा हो गया, और जो नमाज़ के बाद दे, वह सिर्फ़ एक आम सदक़ा होगा।"[अबू दाऊद, हदीस: 1609]


7. क्या फ़ित्राना जमा करना जाएज़ है?

इमाम, भरोसेमंद शख्स या किसी आर्गेनाइजेशन के ज़रिया फ़ित्राना इकट्ठा करके बाँटना जायज़ है, लेकिन शर्त यह है कि वह ईद की नमाज़ से पहले तक फ़क़ीरों तक पहुँचा दे।

फुक़्हा (अहल ए इल्म) यह भी कहते हैं कि अगर कोई अपना सदक़तुल-फ़ित्र एक या दो दिन पहले अदा कर दे, तो इसमें कोई हरज नहीं।

सहीह बुख़ारी (1511) में है कि नाफ़े (रहमतुल्लाह अलैह) कहते हैं:

"इब्ने उमर (रज़ि.) हर छोटे और बड़े का फ़ित्राना अदा करते थे, यहाँ तक कि वे अपने छोटे बच्चों का भी फ़ित्राना देते और जो मेहमान उनके पास आते, उनका भी फ़ित्राना अदा करते। और वे ईद से एक या दो दिन पहले ही फ़ित्राना अदा कर दिया करते थे।"

यानी वे फ़ित्राना जमा करने वाले शख़्स के पास नमाज़-ए-ईद से दो या तीन रोज़ क़बल फ़ित्राना भेज दिया करते थे।

लेकिन अफ़ज़ल यह है कि नबी ﷺ के हुक्म के मुताबिक़, ईद की नमाज़ से पहले ही सदक़तुल-फ़ित्र अदा किया जाए।


8. सदक़तुल-फ़ित्र किन-किन को दिया जाए?

अहले इल्म ने कहा कि सदक़तुल-फ़ित्र मसाकीन, मुहताजों और फ़ुक़रा को देना है, यह उनका हक़ है।

रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:

"मिस्कीन वह नहीं जो एक या दो लुक़मे के लिए, या एक-दो खजूर के लिए लोगों के पास चक्कर लगाता है, बल्कि असली मिस्कीन वह है जो (हक़ीक़ी तौर पर ज़रूरतमंद हो, लेकिन) अपनी इज़्ज़त-ए-नफ़्स की वजह से किसी से सवाल नहीं करता।"
[सहीह बुख़ारी: 1476]

इसलिए सदक़तुल-फ़ित्र देने के लिए ज़रूरी है कि असली हक़दारों को ढूँढकर उन्हें मदद पहुँचाई जाए, ताकि वे ईद के दिन तकलीफ़ में न रहें।

फक़ीर तो माँग लेते हैं और मोहताज भी सवाल कर लेते हैं, लेकिन मिस्कीन शर्म की वजह से किसी से कुछ नहीं माँगते।

अक्सर यह होता है कि हम सदक़तुल-फ़ित्र सही हक़दारों को नहीं देते, बल्कि ईद के दो-तीन दिन पहले कुछ लोग गाड़ियाँ लेकर आते हैं और अनाज इकट्ठा करके ले जाते हैं। हम यह सोचकर उन्हें दे देते हैं कि अब ग़रीबों को ढूँढने कौन जाए। लेकिन वे लोग इस अनाज को बेचकर उसका पैसा आपस में बाँट लेते हैं।

अब जब आपका सदक़तुल-फ़ित्र उन लोगों तक पहुँचा ही नहीं, जिनको इसकी ज़रूरत थी, तो आपको इसका सवाब भी नहीं मिलेगा।

इसलिए अगर आप चाहते हैं कि आपके रोज़ों की पाकीज़गी हो और इसका सही मक़सद पूरा हो, तो हक़दार लोगों को ढूँढकर समय पर अदा करें।


9. सदक़तुल-फ़ित्र किस चीज़ से दिया जाए?

वह अन्न जो आमतौर पर लोग खाते हैं, जैसे:

  • खजूर
  • गेहूं
  • चावल
  • जौ
  • चना
  • मक्का
  • बाजरा
  • ज्वार
  • दाल वग़ैरह

नबी करीम ﷺ के ज़माने में खजूर, मुनक्का और पनीर आमतौर पर खाए जाते थे, इसलिए आप ﷺ ने इन्हीं चीजों से सदक़ा-ए-फ़ित्र अदा करने का हुक्म दिया।


अबू सईद ख़ुदरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) फरमाते हैं:
"हम रसूलुल्लाह ﷺ के ज़माने में ईद-उल-फ़ित्र के दिन हर शख़्स के लिए एक सा’ खाना दिया करते थे, और उस वक़्त हमारा खाना जौ, खजूर, मुनक्का और पनीर हुआ करता था।" [बुखारी, हदीस: 1510]

आजकल कुछ लोग खाने की चीज़ें नहीं बल्कि ज़रूरत का सामान (किट) बनाकर देते हैं, जैसे कोलगेट, साबुन, हैंडवाश, आईना, फेसवाश, कंघी वगैरह के छोटे पैकेट्स। जबकि वह चीज़ें देनी हैं जिनसे पेट भरे, और पेट अनाज से ही भरता है।
बेहतर यह है कि जो चीज़ आप ज़्यादा खाते हैं वही दें, जैसे अगर आप रोटी ज़्यादा खाते हैं तो गेहूं दें, चावल ज़्यादा खाते हैं तो चावल दें। लेकिन ऐसा न करें कि घर में रखा पुराना, खराब या कीड़ा लगा हुआ अनाज दे दें। बल्कि वही अनाज दें जो आप खुद खाते हैं और जिस क़ीमत का खाते हैं।

सदक़ा-ए-फ़ित्र का मतलब यह नहीं कि घर का बेकार, सड़ा-गला, रद्दी सामान निकालकर फेंक दिया जाए, बल्कि इसका मक़सद रोज़ों की पाकी हासिल करना है।


10. सदक़तुल-फ़ित्र की मुक़र्रर मिक़दार (कितना देना चाहिए?)

सदक़तुल-फ़ित्र एक सा’ दिया जाएगा, चाहे कोई भी अनाज हो।
इस्लाम में अनाज को नापने का एक ख़ास माप है जिसे "सा’-उन-नबी" कहा जाता है।
एक सा’ का वज़न तकरीबन 2.5 से 3 किलो तक होता है (अलग-अलग अनाज के लिए वज़न अलग हो सकता है)।

अबू सईद ख़ुदरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) का क़ौल है:
"हम रसूलुल्लाह ﷺ के ज़माने में छोटे-बड़े सभी पर एक सा’ खजूर, एक सा’ जौ, या एक सा’ पनीर सदक़तुल-फ़ित्रअदा किया करते थे, और यही अमल हमारी ज़िंदगीभर रहा।" (सहीह मुस्लिम, हदीस: 985)

आजकल की क़ीमतों के मुताबिक़:

  • गेहूं का एक सा’: तकरीबन 2.5 किलो
  • चावल का एक सा’: तकरीबन 3 किलो
  • खजूर या मुनक्का का एक सा’: तकरीबन 3 किलो

अगर आपके घर में 6 लोग हैं, तो हर एक के लिए 2.5 किलो के हिसाब से कुल 15 किलो देना होगा।
अगर कोई 2.5 किलो की बजाय थोड़ा ज़्यादा (जैसे 3 या 4 किलो) देना चाहे तो दे सकता है, लेकिन उसकी नीयत सदक़ा-ए-फ़ित्र की होनी चाहिए, न कि दिखावे की
हाँ, अगर इससे कम दे तो यह जायज़ नहीं होगा।

कुछ सहाबा ने गेहूं को महंगा समझकर आधा सा’ देने का फतवा दिया था, लेकिन नबी ﷺ से इसकी तस्दीक़ नहीं मिली।

अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फरमाया:

"नबी ﷺ ने सदक़तुल-फ़ित्र एक सा’ खजूर या एक सा’ जौ से अदा करने का हुक्म दिया, मगर बाद में लोगों ने एक सा’ की बजाय गेहूं के दो मुद्ध (आधा सा’) देना शुरू कर दिया।" [बुखारी, हदीस: 1511]


11. क्या अनाज के बदले कीमत दी जा सकती है?

फित्राना देना सिर्फ़ खाने की चीज़ों (ग़िज़ा) की सूरत में ही जायज़ है, नकद रुपये या दूसरी चीज़ों की सूरत में नहीं।

इसकी कुछ अहम वुजूहात:

i. शरीअत ने फित्राना खाने की सूरत में फ़र्ज़ किया है, न कि माल (पैसे) की सूरत में।

  • हदीस में साफ तौर पर खाने का ज़िक्र है और इसकी एक मुक़र्रर मिक़दार बताई गई है, यानी एक "सा’" (तकरीबन 2.5 किलो) अनाज।
  • इसलिए हमें भी शरीअत के मुताबिक ही अमल करना चाहिए, न कि अपनी तरफ़ से कोई नया तरीक़ा अपनाना चाहिए।


ii. सहाबा-ए-किराम भी फित्राना सिर्फ खाने की चीज़ों में ही देते थे। हमें भी उन्हीं की पैरवी करनी चाहिए क्योंकि वही नबी करीम ﷺ की सुन्नत को सबसे बेहतर समझते थे।

iii. गल्ला या ग़िज़ा की सूरत में फित्राना देने से इसकी मिक़दार पूरी होती है। लेकिन अगर हम पैसे की शक्ल में दें, तो यह सवाल उठता है कि 
  • किस चीज़ की कीमत निकाली जाए? और 
  • इसकी मिक़दार का तय करना कैसे होगा?

iv. खाने की चीज़ों में फित्राना देने के कई फायदे हैं:
  • महंगाई या बाज़ार में किसी चीज़ की कमी की हालत में यह मददगार साबित होता है।
  • जो फित्राना हासिल करेगा, उसे फ़ौरन खाना मिल जाएगा और उसे इसे बेचने की ज़रूरत नहीं होगी।

कुछ लोग कहते हैं कि पैसों की शक्ल में फित्राना देना फक़ीर के लिए ज़्यादा फायदेमंद है, क्योंकि वह अपनी ज़रूरत की कोई और चीज़ ख़रीद सकता है। 

इसका जवाब यह है:
  1. इस्लाम ने गरीबों की दूसरी ज़रूरतें पूरी करने के लिए ज़कात, सदक़ात और हिबा का निज़ाम दिया है।

  2. फित्राना सिर्फ़ एक ख़ास मक़सद के लिए है, यानी ईद के दिन गरीबों को खाना देना, ताकि वे भी ईद की ख़ुशियों में शामिल हो सकें।

  3. फित्राना ग़िज़ा की शक्ल में देना सबसे बेहतर तरीका है, क्योंकि यह उसी चीज़ में से होता है जिसे आमतौर पर लोग इस्तेमाल करते हैं।

  4. फित्राना किसी और ज़रूरत के लिए नहीं दिया जा सकता, जैसे क़र्ज़ चुकाना, इलाज के लिए पैसे देना या किसी तालिब ए इल्म की फीस भरना, क्योंकि इन ज़रूरतों के लिए इस्लाम में और भी मासादिर (साधन) मौजूद हैं।


12. अगर कोई औरत हामिला (गर्भवती) है तो क्या उसके होने वाले बच्चे की तरफ़ से फित्राना दिया जाएगा?

नहीं, अहल-ए-इल्म के मुताबिक जो इस दुनिया में आया ही नहीं, उसका कोई सदक़ा नहीं।

  • अगर रमज़ान का सूरज डूबने से पहले या ईद का चाँद दिखने से पहले कोई बच्चा पैदा हो जाता है, तो उसका फित्राना देना होगा।
  • लेकिन अगर वह चाँद दिखने के बाद पैदा हुआ, तो उसके लिए फित्राना देना वाजिब (ज़रूरी) नहीं होगा।


13. यतीम (अनाथ) और दीवाने (मानसिक रूप से अस्थिर व्यक्ति) का सदक़तुल-फ़ित्र कौन देगा?

  • अगर यतीम या दीवाना मालिक-ए-माल (संपत्ति का मालिक) है, तो उसके माल से सदक़तुल-फ़ित्र दिया जाएगा।
  • अगर वह गरीब है, तो उसका सदक़तुल-फ़ित्र वह शख़्स देगा जो उसका ख़र्च उठाता है।

14. फ़ित्राना दूसरे इलाक़े में भेजने का क्या हुक्म है?

अगर किसी दूर-दराज़ इलाक़े में ज़रूरतमंद फ़क़ीर मौजूद हैं, तो क्या वहाँ फ़ित्राना भेजना जायज़ है?

अगर ज़रूरत हो, तो फ़ित्राना किसी दूसरे इलाक़े में भेजने में कोई हर्ज नहीं, जैसे कि जहाँ वो शख्स रह रहा है, वहाँ फ़क़ीर न हों। लेकिन अगर वहाँ फ़क़ीर मौजूद हैं और वे फ़ित्राना लेने को तैयार हैं, तो फिर किसी दूसरे इलाक़े में भेजना जायज़ नहीं


15. क्या फ़ित्राना जमा करना जाएज़ है?

इमाम, भरोसेमंद शख्स या किसी आर्गेनाइजेशन के ज़रिया फ़ित्राना इकट्ठा करके बाँटना जायज़ है, लेकिन शर्त यह है कि वह ईद की नमाज़ से पहले तक फ़क़ीरों तक पहुँचा दे।


16. क्या फ़ित्राना मस्जिद बनाने या दूसरे कामों में खर्च कर सकते हैं?

फ़ित्राना मस्जिद बनाने या दूसरे कामों में खर्च करना जायज़ नहीं।


नतीजा:

  • फ़ित्राना अनाज (खाने की चीज़) में देना ज़रूरी है, नकद देना जायज़ नहीं।
  • ईद की नमाज़ से पहले तक फ़क़ीरों को पहुँचा देना ज़रूरी है।
  • ज़रूरत के मुताबिक़ फ़ित्राना किसी और इलाक़े में भेजना जायज़ है।
  • मस्जिद या दूसरे कामों के लिए फ़ित्राना देना ग़लत है।

सदक़ा-ए-फ़ित्र सिर्फ़ एक इबादत नहीं, बल्कि एक सामाजिक ज़िम्मेदारी है, जिससे न सिर्फ़ रोज़े की पाकीज़गी पूरी होती है, बल्कि ग़रीबों के लिए ईद की ख़ुशियों का इंतज़ाम भी होता है। जो इंसान रमज़ान में अपने रोज़े को मुकम्मल और पाक बनाना चाहता है, उसे चाहिए कि सदक़ा-ए-फ़ित्र वक़्त पर अदा करे और दूसरों की भलाई में हिस्सा ले।

अब जबकि ईद में 2-3 दिन बाक़ी हैं, हमारा काम यह है कि हम अपने घर के लोगों की लिस्ट बनाएँ और यह भी देखें कि किस-किस को यह दिया जा सकता है। यह लिस्ट घर के ज़िम्मेदार शख़्स को दें, ताकि सदक़तुल-फ़ित्र वक़्त पर और सही हक़दार तक पहुँच सके और इसका असली मक़सद पूरा हो सके।


By Islamic Theology 

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