Kya hame dusri duniya ki zaroorat hai?

Kya hame dusri duniya ki zaroorat hai?


क्या इंसाफ के लिए मौजूदा दुनिया की ज़िंदगी काफी है? 
या दूसरी दुनिया की जरूरत है?


ये एक ऐसा सवाल जिसपर अगर हम अपनी अकल का इस्तेमाल करें तो हम एक ही नतीजे पर पहुंचेंगे की मौजूदा दुनिया की ज़िंदगी में इंसान को मुकम्मल इंसाफ नहीं मिल सकता है। क्योंकि इंसान जो भी अमल इस दुनिया में करता है चाहे वो अमल अच्छा हो या बुरा, उस इंसान के इस दुनिया से जाने के बाद भी उसके आमाल के असरात इस दुनिया में बाकी रहते है। नेक इंसान के अच्छे आमाल के असरात से लोगों को फायदा पहुंचता है और बुरे इंसान के बुरे आमाल के असरात से लोगों को नुकसान पहुंचता है। इसलिए ही मौजूदा दुनिया की ज़िंदगी में इंसान के आमाल का पूरा बदला नहीं दिया जा सकता है। इंसान की अकल इस बात का तकाज़ा करती है कि कोई ऐसी दुनिया हो जिसमे इंसान को उसके आमाल का पूरा पूरा बदला दिया जा सके और किसी इंसान पर जर्रा बराबर भी जुल्म न हो सके।

इंसानों का एक गिरोह जो बुराइयां और गुमराहियां छोड़कर इस दुनिया से जाता है तो उनके बाद आने वाले गिरोह पर भी उनकी फैलाई बुराइयां और गुमराहियों का असर होता है और जब अल्लाह सब इंसानों के इंसाफ के लिए दूसरी दुनिया में अदालत कायम करेगा तो इंसानों का एक गिरोह दूसरे गिरोह पर इल्ज़ाम तराशियां करेगा ताकि अल्लाह उन्हे उनकी फैलाई बुराइयां और गुमराहियों पर उनकी पकड़ न करें। लेकिन अल्लाह इंसाफ के दिन सब गिरोह से कह देगा कि:


قَالَ ادۡخُلُوۡا فِیۡۤ اُمَمٍ قَدۡ خَلَتۡ مِنۡ قَبۡلِکُمۡ مِّنَ الۡجِنِّ وَ الۡاِنۡسِ فِی النَّارِ ؕ کُلَّمَا دَخَلَتۡ اُمَّۃٌ لَّعَنَتۡ اُخۡتَہَا ؕ حَتّٰۤی اِذَا ادَّارَکُوۡا فِیۡہَا جَمِیۡعًا ۙ قَالَتۡ اُخۡرٰىہُمۡ لِاُوۡلٰىہُمۡ رَبَّنَا ہٰۤؤُلَآءِ اَضَلُّوۡنَا فَاٰتِہِمۡ عَذَابًا ضِعۡفًا مِّنَ النَّارِ ۬ ؕ قَالَ لِکُلٍّ ضِعۡفٌ وَّ لٰکِنۡ لَّا تَعۡلَمُوۡنَ 
"अल्लाह फ़रमाएगा, जाओ, तुम भी उसी जहन्नम में चले जाओ जिसमें तुमसे पहले गुज़रे हुए जिन्न और इंसानों के गरोह जा चुके हैं। हर गरोह जब जहन्नम में दाख़िल होगा तो अपने अगले गरोह पर लानत करता हुआ दाख़िल होगा, यहाँ तक कि जब सब वहाँ जमा जो जाएँगे तो हर बादवाला गरोह पहले गरोह के बारे में कहेगा कि ऐ रब! ये लोग थे जिन्होंने हमें गुमराह किया, इसलिये इन्हें आग का दोहरा अज़ाब दे। जवाब में कहा जाएगा, हर एक के लिये दोहरा ही अज़ाब है मगर तुम जानते नहीं हो।"
[कुरआन 7:38]


यानी बहरहाल तुममें से हर गरोह किसी का ख़लफ़ (पीछे आनेवाला) था, तो किसी का सलफ़ (पहले गुज़रा हुआ) भी था। अगर किसी गरोह से पहले के लोगों ने उसके लिये फ़िक्र व अमल की गुमराहियों की विरासत छोड़ी थी तो ख़ुद वो भी अपने बाद में आनेवालों के लिये वैसी ही विरासत छोड़कर दुनिया से रुख़सत हुआ। अगर एक गरोह के गुमराह होने की कुछ ज़िम्मेदारी उसके बुज़ुर्गों पर आनी है तो उसके बाद में आनेवाली नस्लों की गुमराही का अच्छा-ख़ासा बोझ ख़ुद उसपर भी आ पड़ता है। इसी बिना पर फ़रमाया कि हर एक के लिये दोहरा अज़ाब है। एक अज़ाब ख़ुद गुमराही इख़्तियार करने का और दूसरा अज़ाब दूसरों को गुमराह करने का। एक सज़ा अपने जुर्मों की और दूसरी सज़ा इस बात की कि वो दूसरों के लिये पेशगी जुर्मों की मीरास छोड़कर आया है।


हदीस में इसी बात को इस तरह बयान किया गया है कि, "जिसने किसी नई गुमराही की शुरुआत की जो अल्लाह और उसके रसूल के नज़दीक नापसन्दीदा हो, तो उस पर उन सब लोगों के गुनाह की ज़िम्मेदारी पड़ेगी जिन्होंने उसके निकाले हुए तरीक़े पर अमल किया, बग़ैर इसके कि ख़ुद उन अमल करनेवालों की ज़िम्मेदारी में कोई कमी हो।" [इब्ने-माजा]


दूसरी हदीस में है, "दुनिया में जो इंसान भी ज़ुल्म के साथ क़त्ल किया जाता है उसके ख़ूने-नाहक़ का एक हिस्सा आदम के उस पहले बेटे को पहुँचता है जिसने अपने भाई को क़त्ल किया था क्योंकि इंसान के क़त्ल का रास्ता सबसे पहले उसी ने खोला था।" [बुख़ारी]


इससे मालूम हुआ कि जो शख़्स या गरोह किसी ग़लत ख़याल या ग़लत रवैये की बुनियाद डालता है वो सिर्फ़ अपनी ही ग़लती का ज़िम्मेदार नहीं होता बल्कि दुनिया में जितने इंसान उससे मुतास्सिर होते हैं उन सबके गुनाह की ज़िम्मेदारी का भी एक हिस्सा उसके हिसाब में लिखा जाता रहता है और जब तक उसकी इस ग़लती के असरात चलते रहते हैं उसके हिसाब में उनको लिखा जाता रहता है। साथ ही इससे ये भी मालूम हुआ कि हर शख़्स अपनी नेकी या बदी का सिर्फ़ अपनी ज़ात की हद तक ही ज़िम्मेदार नहीं है बल्कि इस बात का भी जवाबदेह है उसकी नेकी या बदी के क्या असरात दूसरों की ज़िन्दगियों पर पड़े।

मिसाल के तौर पर एक ज़ानी (व्यभिचारी या बलात्कारी) को लीजिये। जिन लोगों की तालीम व तरबियत से, जिनकी संगत के असर से, जिनकी बुरी मिसालें देखने से और जिनकी तरग़ीबात (प्रेरणाओं) से उस शख़्स के अन्दर ज़िनाकारी (व्यभिचार या बलात्कार) की ख़राबी पैदा हुई वो सब उसके ज़िनाकार बनने में हिस्सेदार हैं और ख़ुद उन लोगों ने जहाँ-जहाँ से इस बदनज़री व बदनियती और बदकारी की मीरास पाई है वहाँ तक उसकी ज़िम्मेदारी पहुँचती है। यहाँ तक कि ये सिलसिला उस सबसे पहले इंसान तक पहुँचता है जिसने सबसे पहले इंसान को मन की ख़ाहिश की तस्कीन का ये ग़लत रास्ता दिखाया। ये उस ज़ानी के हिसाब का वो हिस्सा है जो उसके अपने ज़माने के लोगों और उससे पहले गुज़रे हुए लोगों से ताल्लुक़ रखता है। फिर वो ख़ुद भी अपनी ज़िनाकारी (बदकारी) का ज़िम्मेदार है। उसको भले और बुरे की जो पहचान दी गई थी, उसमें ज़मीर (अंतरात्मा) की जो ताक़त रखी गई थी, उसके अन्दर अपनी ख़ाहिशों को क़ाबू में रखने की जो क़ुव्वत रखी गई थी, उसको नेक लोगों से ख़ैर (भलाई) और शर (बुराई) का जो इल्म पहुँचा था, उसके सामने भले लोगों की जो मिसालें मौजूद थीं, उसको सिनफ़ी बदअमली (यौन-दुराचार) के बुरे अंजामों की जो जानकारी थी, उनमें से किसी चीज़ से भी उसने फ़ायदा न उठाया और अपने-आपको नफ़्स की उस अन्धी ख़ाहिश के हवाले कर दिया जो सिर्फ़ अपनी तस्कीन (तृप्ति) चाहती थी चाहे वो किसी तरीक़े से हो। ये उसके हिसाब का वो हिस्सा है जो उसकी अपनी ज़ात से ताल्लुक़ रखता है। फिर ये शख़्स उस बदी को जिसको उसने ख़ुद कमाया था और जिसे ख़ुद अपनी कोशिशों से वो परवरिश करता रहा, दूसरों में फैलाना शुरू करता है। किसी मर्ज़े-ख़बीस (संक्रामक रोग) की छूत कहीं से लगा लाता है और उसे अपनी नस्ल में और ख़ुदा जाने किन-किन नस्लों में फैलाकर नामालूम कितनी ज़िन्दगियों को ख़राब कर देता है। कहीं अपना नुत्फ़ा छोड़ आता है और जिस बच्चे की परवरिश का बोझ उठाना चाहिये था उसे किसी और की कमाई का नाजाइज़ हिस्सेदार, उसके बच्चों के हुक़ूक़ में ज़बरदस्ती का शरीक, उसकी विरासत में नाहक़ का हक़दार बना देता है और इस हक़तलफ़ी का सिलसिला न जाने कितनी नस्लों तक चलता रहता है। किसी नौजवान लड़की को फुसलाकर बदअख़लाक़ी की राह पर डालता है और उसके अन्दर वो बुरी बातें उभार देता है जो उससे निकलकर न जाने कितने ख़ानदानों और कितनी नस्लों तक पहुँचती हैं और कितने घर बिगाड़ देती हैं। अपनी औलाद, अपने रिश्तेदारों, अपने दोस्तों और अपनी सोसाइटी के दुसरे लोगों के सामने अपने अख़लाक़ की एक बुरी मिसाल पेश करता है और नामालूम कितने आदमियों के चाल-चलन ख़राब करने का सबब बन जाता है, जिसके असरात बाद की नस्लों में लम्बी मुद्दत तक चलते रहते हैं। ये सारा बिगाड़ जो इस शख़्स ने समाज में फैलाया, इन्साफ़ चाहता है कि ये भी उसके हिसाब में लिखा जाए और उस वक़्त तक लिखा जाता रहे जब तक उसकी फैलाई हुई ख़राबियों का सिलसिला चलता रहे। 

ऐसा ही मामला नेकी के बारे में भी समझ लेना चाहिये। जो नेक विरासत अपने असलाफ़ (बुज़ुर्गों) से हमको मिली है उसका बदला और इनाम उन सब लोगों को पहुँचना चाहिये जो दुनिया के शुरू होने से हमारे ज़माने तक उसको दूसरों तक पहुँचाने के काम में हिस्सा लेते रहे हैं, फिर इस विरासत को लेकर उसे संभालने और तरक़्क़ी देने में जो ख़िदमत हम अंजाम देंगे उसका अच्छा बदला हमें भी मिलना चाहिये। फिर अपनी अच्छी कोशिशों के जो निशाँ और असरात हम दुनिया में छोड़ जाएँगे उन्हें भी हमारी भलाइयों के हिसाब में उस वक़्त तक बराबर लिखा जाता रहना चाहिये जब तक ये निशाँ बाक़ी रहें और उनके असरात का सिलसिला इंसानों में चलता रहे और उनके फ़ायदों से ख़ुदा के बन्दे फ़ायदा उठाते रहें।

जज़ा (बदले) की ये सूरत जो क़ुरआन पेश कर रहा है, हर अक़्लवाला इनसान मानेगा कि सही और मुकम्मल इंसाफ़ अगर हो सकता है तो इसी तरह हो सकता है। इस हक़ीक़त को अगर अच्छी तरह समझ लिया जाए तो इसमें उन लोगों की ग़लतफ़हमियाँ भी दूर हो सकती हैं, जिन्होंने जज़ा (बदले) के लिये इसी दुनिया की मौजूदा ज़िन्दगी को काफ़ी समझ लिया है, और उन लोगों की ग़लतफ़हमियाँ भी जो ये गुमान रखते हैं कि इंसान को उसके आमाल का पूरा बदला आवागमन की सूरत में मिल सकता है। दरअस्ल इन दोनों गरोहों ने न तो इस बात को समझा है कि इंसानी आमाल और उनके असरात व नतीजे कितनी दूर तक फैले हुए हैं, न इंसाफ़ के सिलसिले में मिलनेवाले बदले और उसके तक़ाज़ों को। एक इंसान आज अपनी पचास-साठ साल की ज़िन्दगी में जो अच्छे या बुरे काम करता है उनकी ज़िम्मेदारी में न जाने ऊपर की कितनी नस्लें शरीक हैं जो गुज़र चुकी और आज ये मुमकिन नहीं कि उन्हें इसकी सज़ा या इनाम पहुँच सके। फिर उस शख़्स के वो अच्छे या बुरे आमाल जो वो आज कर रहा है उसकी मौत के साथ ख़त्म नहीं हो जाएँगे, बल्कि करोड़ों इंसानों तक फैलेगा और उसके हिसाब का खाता उस वक़्त तक खुला रहेगा जब तक ये असरात चल रहे हैं और फ़ैल रहे हैं। किस तरह मुमकिन है कि आज ही इस दुनिया की ज़िन्दगी में उस शख़्स को उसकी कमाई का पूरा बदला मिल जाए हालाँकि अभी उसकी कमाई के असरात का लाखवाँ हिस्सा भी ज़ाहिर नहीं हुआ है। फिर इस दुनिया की महदूद (सीमित) ज़िन्दगी और उसके महदूद इमकानात सिरे से इतनी गुंजाइश ही नहीं रखते कि यहाँ किसी को उसके आमाल का पूरा बदला मिल सके। आप किसी ऐसे शख़्स के जुर्म का तसव्वुर कीजिए जो मिसाल के तौर पर दुनिया में एक जंगे-अज़ीम (विश्व युद्ध) की आग भड़काता है और उसकी इस हरकत के अनगिनत बुरे नतीजे हज़ारों साल तक अरबों इंसानों तक फैलते हैं। क्या कोई बड़ी से बड़ी जिस्मानी, अख़लाक़ी, रूहानी या माद्दी (भौतिक) सज़ा भी जो इस दुनिया में दी जा सकती है, उसके इस जुर्म की पूरी मुन्सिफ़ाना (न्यायसंगत) सज़ा हो सकती है? इसी तरह क्या दुनिया का कोई बड़े-से-बड़ा इनाम भी, जिसका तसव्वुर आप कर सकते हैं, किसी ऐसे शख़्स के लिये काफ़ी हो सकता है जो तमाम उम्र इंसानों की भलाई के लिये काम करता रहा हो और हज़ारों साल तक अनगिनत इंसान जिसकी कोशिशों के नतीजों से फ़ायदा उठाए चले जा रहे हों। अमल और बदले के मसले को इस पहलू से जो शख़्स देखेगा उसे यक़ीन हो जाएगा कि जज़ा (बदला) के लिये एक दूसरी ही दुनिया चाहिये है जहाँ तमाम अगली और पिछली नस्लें जमा हों, तमाम इंसानों के खाते बन्द हो चुके हों, हिसाब करने के लिये सब कुछ जानने और सबकी ख़बर रखनेवाला एक ख़ुदा इन्साफ़ की कुर्सी पर विराजमान हो, और आमाल का पूरा बदला पाने के लिये इंसान के पास ग़ैर-महदूद (असीमित) ज़िन्दगी और उसके आस-पास इनाम और सज़ा के ग़ैर-महदूद इमकानात मौजूद हों।

फिर इसी पहलू पर ग़ौर करने से आवागमन को माननेवालों की एक और बुनियादी ग़लती भी दूर हो सकती है जिसमें मुब्तला होकर उन्होंने आवागमन का चक्कर पेश किया है। वो इस हक़ीक़त को नहीं समझे कि सिर्फ़ उसकी मुख़्तसर-सी पचास वर्ष की ज़िन्दगी के कारनामे का फल पाने के लिये उससे हज़ारों गुना ज़्यादा लम्बी ज़िन्दगी की ज़रूरत है, इसके बावजूद कि उस पचास साल की ज़िन्दगी के ख़त्म होते ही हमारी एक दूसरी और फिर तीसरी ज़िम्मेदाराना ज़िन्दगी इसी दुनिया में शुरू हो जाए और उन ज़िन्दगियों में भी हम कुछ और ऐसे काम करते चले जाएँ जिनका अच्छा या बुरा फल हमें मिलना ज़रूरी हो। इस तरह तो हिसाब चुकता होने के बजाए और ज़्यादा बढ़ता ही चला जाएगा और उसके चुकते होने की नौबत कभी आ ही न सकेगी।


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