Kya Akhirat ka faisla gumaan par kar sakte hain?

Kya Akhirat ka faisla gumaan par kar sakte hain?


आखिरत का फैसला गुमान पर करना कैसा है?


क्या इस जिंदगी के बाद दूसरी जिंदगी है या नहीं? 

क्या हम जो अमल इस दुनिया की जिंदगी में कर रहे है उसकी हमसे कुछ पूछ गच्छ होनी भी है या नहीं? 

क्या अच्छों को उनकी अच्छाई का बदला दिया जायेगा या नहीं? 

क्या बुरों को उनके जुर्म की सजा मिलेगी या नहीं? 

ये ऐसे बुनियादी सवाल है जिनके बारे में हर इंसान ने अपना कोई न कोई तसव्वुर कायम किया होता है। और इंसान ने जो आखिरत (मरने के बाद जिंदगी) के बारे में तसव्वुर कायम किया होता है उसी के आधार पर वो इंसान अपनी जिंदगी जीता है। और हम देखते है कि ज्यादातर इंसान आखिरत के मामले में सिर्फ अपनी अटकल, कयास और गुमान की बिना पर कोई राय कायम कर लेते है।


ये लोग कहते हैं कि “ज़िन्दगी बस यही हमारी दुनिया की ज़िन्दगी है, यहीं हमारा मरना-जीना है और दिनों के आने-जाने के सिवा कोई चीज़ नहीं जो हमें हलाक करती हो,” हक़ीक़त में इस मामले में इनके पास कोई इल्म नहीं है। ये सिर्फ़ गुमान की बुनियाद पर ये बातें करते हैं।
[कुरआन 45:24]


क़यास व गुमान की बिना पर कोई अंदाज़ा करना या अन्दाज़ा लगाना, दुनियावी ज़िन्दगी के छोटे छोटे मामलों में तो किसी हद तक चल सकता है, हालाँकि इल्म का क़ायम मक़ाम फिर भी नहीं हो सकता, लेकिन इतना बड़ा बुनियादी मसला कि हम अपनी पूरी ज़िन्दगी के आमाल के लिये किसी के सामने ज़िम्मेदार व जवाबदेह हैं या नहीं, और हैं तो किसके सामने, कब और क्या जवाबदेही हमें करनी होगी, और उस जवाबदेही में कामियाबी व नाकामी के नताइज क्या होंगे, ये ऐसा मसला नहीं है के इसके मुताल्लिक़ आदमी महज़ अपने क़यास व गुमान के मुताबिक़ एक अंदाज़ा क़ायम कर ले और फिर इसी जुए के दांव पर अपना तमाम सरमाया-ए-हयात लगा दे। इसलिये के ये अंदाज़ा अगर ग़लत निकले तो इसके माना ये होंगे कि आदमी ने अपने आपको बिलकुल तबाह व बर्बाद कर लिया। 

मज़ीद ये कि ये मसला सिरे से उन मसाइल में से है ही नहीं जिनके बारे में आदमी महज़ क़यास और गुमान और अन्दाज़े से कोई सही राय क़ायम कर सकता हो। क्योंकि क़यास उन मामलों में चल सकता है जो इंसान के महसूसात (senses) के दायरे में शामिल हों, और ये मसला ऐसा है जिसका कोई पहलु भी महसूसात के दायरे में नहीं आता। लिहाज़ा ये बात मुमकिन ही नहीं है कि इस के बारे में कोई क़यासी अंदाज़ा सही हो सके।

आख़िरत के मुताल्लिक़ इंसान अपने कयास वा गुमान के मुताबिक भांति-भांति की बोलियाँ बोल रहे है और हर एक की बात दूसरे से मुख़्तलिफ़ है-

1. कोई कहता है कि ये दुनिया हमेशा से है और हमेशा रहेगी और कोई क़यामत बरपा नहीं हो सकती। 

2. कोई कहता है के ये ख़त्म हो जानेवाला निज़ाम है और एक वक़्त में ये जा कर ख़त्म भी हो सकता है, मगर इंसान समेत जो चीज़ भी फ़ना हो गई, फिर उसका लौटना मुमकिन नहीं है। 

3. कोई लौटने को मुमकिन मानता है, मगर उसका अक़ीदा ये है के इंसान अपने आमाल के अच्छे और बुरे नताइज भुगतने के लिये बार-बार इसी दुनिया में जन्म लेता है। 

4. कोई जन्नत और जहन्नम का भी क़ाइल है, मगर इसके साथ तनासुख़ को भी मिलाता है, यानी उसका ख़याल ये है के दुनिया की ज़िन्दगी ख़ुद एक अज़ाब है, जब तक इंसान के नफ़्स को माद्दी ज़िन्दगी से लगाव बाक़ी रहता है, उस वक़्त तक वो इस दुनिया में मर-मर कर फिर जन्म लेता रहता है, और उसकी हक़ीक़ी नजात (निर्वाण) ये है के वो बिलकुल फ़ना हो जाए। 

5. कोई आख़िरत और जन्नत व जहन्नम का क़ाइल है, मगर कहता है ख़ुदा ने अपने एकलौते बेटे को सलीब पर मौत दे कर इंसान के अज़ली गुनाह का कफ़्फ़ारा अदा कर दिया है, और उस बेटे पर ईमान ला कर आदमी अपने बुरे अमल के बुरे नताइज से बच जाएगा। 

6. कुछ दूसरे लोग आख़िरत और जज़ा व सज़ा, हर चीज़ को मान कर कुछ ऐसे बुज़ुर्गों को शफ़ीअ (सिफारिश करने वाला) बना लेते हैं जो अल्लाह के ऐसे प्यारे हैं, या अल्लाह के यहाँ ऐसा ज़ोर रखते हैं के जो उनका दामन पकड़ ले, वो दुनिया में सब-कुछ करके भी सज़ा से बच सकता है। इन बुज़ुर्ग हस्तियों के बारे में भी इस अक़ीदे के मानने वालों में इत्तफ़ाक़ नहीं है, बल्कि हर एक गरोह ने अपने अलग-अलग शफ़ीअ (सिफारिश करने वाला) बना रखे हैं। ये इख़्तिलाफ़-ए-अक़वाल ख़ुद ही इस बात का सबूत है के वह्य व रिसालत से बे-नियाज़ हो कर इंसान ने अपने और इस दुनिया के अंजाम पर जब भी कोई राय क़ायम की है, इल्म के बग़ैर क़ायम की है। वरना अगर इंसान के पास इस मामले में हक़ीक़त में बराहे रास्त इल्म का कोई जरिया होता तो इतने मुख़्तलिफ़ और मुतज़ाद अक़ीदे पैदा न होते।


अब रहा ये सवाल कि, 

फिर आदमी के लिये इन शुऊर और समझ से परे के मसाइल पर राय क़ायम करने की सही सूरत क्या है? 

तो इसका जवाब क़ुरआन मजीद में जगह-जगह ये दिया गया है, के इंसान बराहे रास्त ख़ुद हक़ीक़त तक नहीं पहुँच सकता, हक़ीक़त का इल्म अल्लाह तआला अपने नबी के ज़रिये से देता है, और उस इल्म की सेहत के मुताल्लिक़ आदमी अपना इत्मिनान इस तरीके से कर सकता है और आसमान और ख़ुद उसके अपने नफ़्स में जो बेशुमार निशानियाँ मौजूद हैं, उनपर गहरी निगाह डाल कर देखे और फिर बे लाग तर्ज़ पर सोचे के ये निशानियाँ क्या उस हक़ीक़त की शहादत दे रही हैं जो नबी बयान कर रहा है, या उन मुख़्तलिफ़ नज़रियात की ताईद करती हैं जो दूसरे लोगों ने इसके बारे में पेश किये हैं? 

ख़ुदा और आख़िरत के मुताल्लिक़ आलमी तहक़ीक़ का यही एक तरीक़ा है जो क़ुरआन में बताया गया है। इससे हटकर जो भी अपने क़यासी अंदाज़ों पर चला, वो मारा गया।

इसी बात को अल्लाह अपने आखिरी पैगाम कुरआन में कुछ यूं कहता है कि:


وَ السَّمَآءِ ذَاتِ الۡحُبُکِ 
क़सम है अलग-अलग शक्लों वाले आसमान की,

اِنَّکُمۡ لَفِیۡ قَوۡلٍ مُّخۡتَلِفٍ
(आख़िरत के बारे में) तुम्हारी बात एक-दूसरे से अलग है।

یُّؤۡفَکُ عَنۡہُ مَنۡ اُفِکَ
उससे वही दूर होता है जो हक़ से फिरा हुआ है।

قُتِلَ الۡخَرّٰصُوۡنَ

मारे गए अटकल और गुमान से हुक्म लगानेवाले,

الَّذِیۡنَ ہُمۡ فِیۡ غَمۡرَۃٍ سَاہُوۡنَ 
जो जिहालत में डूबे और ग़फ़लत में मदहोश हैं।

[कुरआन 51:7-11]


यानी इंसान जिहालत में डूबकर और गफलत में मदहोश रहकर कयास और गुमान के बिना पर जिंदगी गुज़ार रहे है उन्हें कुछ पता नहीं है के अपने इन ग़लत अंदाज़ों की वजह से वो किस अंजाम की तरफ़ चले जा रहे हैं। इन अंदाज़ों की बिना पर जो रास्ता भी किसी ने इख्तियार किया है। वो सीधा तबाही की तरफ़ जाता है। 

जो शख़्स आख़िरत का मुनकिर है वो सिरे से किसी जवाबदेही की तैयारी ही नहीं कर रहा है और इस ख़याल में मगन है के मरने के बाद कोई दूसरी ज़िन्दगी नहीं होगी, हालाँकि अचानक वो वक़्त आ जाएगा जब उसकी उम्मीदों के बिलकुल ख़िलाफ़ दूसरी ज़िन्दगी में उसकी आँखें खुलेंगी और उसे मालूम होगा कि यहाँ उसको अपने एक अमल की जवाबदेही करनी है। 

जो शख़्स इस ख़याल में सारी उम्र खपा रहा है के मर कर फिर इसी दुनिया में वापिस आऊँगा, उसे मरते ही मालूम हो जाएगा कि अब वापसी के सारे दरवाज़े बंद हैं, किसी नए अमल से पिछली ज़िन्दगी के आमाल की तलाश का अब कोई मौक़ा नहीं, और आगे एक और ज़िन्दगी है जिसमें हमेशा हमेशा के लिये उसे अपनी दुनयावी ज़िन्दगी के नताइज देखने और भुगतने हैं। 

जो शख़्स इस उम्मीद में अपने आप को हलाक किये डालता है के नफ़्स और उसकी ख़ाहिशों को जब पूरी तरह मार दूंगा तो फ़ना-ए-महज़ की शकल में मुझे अज़ाब से नजात मिल जाएगी, वो मौत के दरवाज़े से गुज़रते ही देख लेगा कि आगे फ़ना नहीं बल्कि बक़ा है, और उसे अब इस बात की जवाबदेही करनी है के क्या तुझे वजूद की नेमत इसी लिये दी गई थी के तू उसे बनाने और सँवारने के बजाए मिटने में अपनी सारी मेहनतें ख़र्च कर देता? 

इसी तरह जो शख़्स किसी अल्लाह के बेटे के कफ़्फ़ारा बन जाने या किसी बुज़ुर्ग हस्ती के शफ़ीअ बन जाने पर भरोसा करके उम्र भर ख़ुदा की नाफ़रमानियाँ करता रहा, उसे ख़ुदा के सामने पहुँचते ही पता चल जाएगा के यहाँ न कोई किसी का कफ़्फ़ारा अदा करने वाला है और न किसी में ये ताक़त है के अपने ज़ोर से या अपनी महबूबियत के सदक़े में किसी को ख़ुदा की पकड़ से बचा ले। 

बस ये तमाम क़यासी अक़ीदे दरहक़ीक़त एक अफ़ीम हैं जिसकी पीनक में ये लोग बेसुध पढ़े हुए हैं और उन्हें कुछ ख़बर नहीं है के ख़ुदा और अम्बिया (अल०) के दिये हुए सही इल्म को नज़र अंदाज़ करके अपनी जिस जहालत पर ये मगन हैं, वो इन्हें किधर लिये जा रही है।


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