निकाह के मौके पर कुछ ग़ैर इस्लामी रस्में
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने बेटियों को रहमत बना कर इस दुनियां में भेजा है जिसका हर रूप ख़ूबसूरत है। कल्पना करें अगर इस दुनियां में बेटियां ना होती तो क्या ये दूनियां इतनी ख़ूबसूरत होती?
ये फ़ितरी बात कि उम्र के एक पड़ाव पर लडकियां अपने ख़्वाबों ख़्यालों में एक शहजा़दा तालाश करती हैं....
जो उन्हें तपती हुई सहरा से निकाल कर ठंडी छावों में ले आए....
जहां वो सुकून से सांस ले...
उसके जज़्बात की क़द्र करे....
मगर अफ़सोस कि हमारे समाज में कुछ ग़ैर ज़रूरी रस्में पैर फ़ैला रही हैं और आज इन्हीं रस्मों ने मुस्लिम लड़कियों का जीना मुश्किल कर रखा है चैन और सुकून छीन कर तबाही और बर्बादी के दल दल में...
हम यहां कुछ ग़ैर इस्लामी रस्मों की ओर आप का ध्यान आकर्षित करेगें।
- (i). लड़की देखना
- (ii). सगाई/मंगनी इंगेजमेंट
- (iii). दिन तारीख़
- (iv). मांझा/हल्दी
- (v). मायो की रस्म
- (vi). मेहंदी की रस्म
- (vii). संगीत
- (viii). पटाखे और आतिश बाज़ी करना
- (ix). ढोलक और डिस्क जॉकी (DJ)
- (x). रतजगा (छोटा खाना)
- (xi). बारात
- (xii). दावते तआम
- (xiii). सलाम कराई/बासी खवई
- (xiv). खीर/मलीदा खवही
- (xv) जूता छिपाई
- (xvi). गौना की रस्म
- (xvii). दुल्हन को कुरआन के साए में बिदा करना
- (xviii). दहेज
- (xix). दुल्हन के कमरे को सजाना
- (xx). मुँह दिखाई
- (xxi). निकाह के मौके पर विडियो और फोटोग्राफी
- (xxii). चौथी की रस्म
(i) लड़की देखना
इस्लाम में लड़के को लडकी देखने की इजाज़त है इसका ज़िक्र हम निकाह के पिछले सीरीज में कर चुके हैं। लड़की देखने के नाम पर कुछ गैर शरीअती रस्में हमारे मुआशरे में लड़कियों पर बोझ बन रही हैं, सबसे पहले हम इस पर चर्चा करेंगे।
रिश्ता तय होते ही लड़की को देखने का सिलसिला जारी हो जाता है अब झुंड बनाकर सुसराल वालों की तरफ़ से लोग लड़की को देखने आ रहे होते हैं नंद, जेठानी, सास, चाची सास, ताई सास यहां तक कि ससुर, जेठ, जीजा, नंदोई और भी ना मेहरम रिश्ते जैसे लगता है बारात आई है। और एक बेटी की मां अपनी मजबूरी और परेशानी छिपाए चेहरे पर मुस्कान सजाए चाय नाश्ता, सैकड़ों डिसेज़ परोसने में व्यस्त हैं। दूसरी तरफ़ लड़की का इंटरव्यू लेना जारी होता है तो उससे दुनियादारी के तमाम सवाल किए जाते हैं। दुनियावी तालीम में क्वालिफ़िकेशन पूछी जाती है "शादी के बाद हम जॉब कराएंगे" ये पहली प्राथमिकता है लेकिन दीन का पहलू को पूरी तरह छोड़ दिया जाता है। लड़की ने दीनी तालीम हासिल की है या नहीं, नमाज़ पढ़ती है या नहीं, पर्दे का एहतेमाम तो दूर की बात है ये तो आज ज़रूरी ही नहीं समझा जाता।
एक बात और देखने को मिलता है जिस लड़के से शादी करनी है उसे देखने ही नहीं दिया जाता या बस एक औपचारिकता (formality) पूरी की जाती है। बेचारी लड़की को ऐसे देखा जा रहा है जैसे कोई चीज़ या जानवर हो चला कर, टहला कर, दाएं-बाएं, आगे पीछे करके
देखने के बाद वापस जा रहे लोगो को 500-500 रूपए भी दिए जाते हैं। ये भी एक रस्म होती है जिसे ना करने पर रिश्ता तोड़ दिया जाता है।
(ii) मंगनी की रस्म
इस्लाम में मंगनी की रस्म करना सुन्नत से साबित नहीं है। मंगनी का मतलब बस इतना है कि रिश्ता तय होने का ऐलान हो जाय ताकि लोगों को पता चल जाए, जिससे कोई और रिश्ता उस लड़का या लड़की के लिए न आए। क्योंकि एक रिश्ते पर दूसरा पैग़ाम भेजना मना है।
हजरत अबू हुरैरह रज़ि अल्लाहु अन्हु रिवायत करते हैं कि नबी करीम ﷺ ने फरमाया:
"कोई शख्स अपने भाई के निकाह के पैग़ाम पर अपना पैग़ाम न भेजे, यहाँ तक कि वो (उस औरत) से निकाह कर ले या (निकाह का इरादा) छोड़ दे।" [सहीह बुखारी 5144]
इब्ने उमर की रिवायत में ये अल्फ़ाज़ हैं:
"तुममें से कोई शख़्स अपने भाई के निकाह के पैग़ाम पर अपना पैग़ाम न भेजे, यहाँ तक कि पहले पैग़ाम देने वाला अपना इरादा बदल दे या उसे पहले पैग़ाम देने वाला इजाज़त दे दे।" [सहीह बुखारी 5142]
अब आज के दौर की सगाई को देखें, बाक़ायदा एक इवेंट बना लिया गया है जिसमें दोनों तरफ़ से इस रस्म को सेलिब्रेट किया जाता है। लड़का लड़की को क़रीब बैठा कर एक-दूसरे को अंगूठी पहनाई जाती है। नामेहरम एक-दुसरे को touch करते है। ये नाजायज़ है। ऐसी मंगनी की रस्म अदा करते वक़्त लाखों रुपए ख़र्च किए जाते हैं जो की फ़िज़ूलख़र्ची है।
मंगनी की रस्म होते ही लड़की लड़का दोनों सोचते हैं की एक दूसरे के लिए हलाल हो गए। फिर घूमना फिरना, बातें करना, हंसी मज़ाक, घंटो चैटिंग करना आम होता जा रहा है जो नाजायज़ अमल है इससे बचना चाहिए।
(iii) दिन तारीख़
क्या इस्लाम में निकाह का कोई ख़ास दिन और वक़्त है?
जब रिश्ता तय हो जाता है तो कुछ ग़लतफ़हमियां पाई जाती है जिससे अक़ीदा ए तौहिद कमज़ोर होता है कि कुछ अय्याम (दिन तारीख़) फिक्स करते वक़्त दिन को ये कहा जाता है कि ये दिन सही नहीं है जैसे मंगल, जुमारात, शनिचर और इतवार के विषय में अकसर कहा जाता है कि ये दिन ठीक नहीं है, मनहूस है, इस दिन शादी हुई तो निकाह ज़्यादा दिन नहीं चल पाएगा, इसी तरह कुछ महीनों को भी निकाह के लिए सही नहीं माना जाता जैसे मुहर्रम और शाबान के महीनों में लोग निकाह की date नहीं रखते हैं फिर लोग कैलेंडर मानते हैं क़ाज़ी के पास जाकर जैंत्री दिखवाकर निकाह का दिन तय करते हैं।
याद रखें इस्लाम में शगुन अपशगुन का कोई मतलब नहीं है निकाह या कोई भी काम किसी दिन, तारीख़, किसी भी घड़ी किया जा सकता है ।
(iv) हल्दी की रस्म
दूल्हा या दुल्हन को हल्दी लगाने का जो रिवाज़ हमारे समाज में एक इवेंट के तौर पर चल रहा है इसका इस्लाम में कोई कांसेप्ट नहीं है ये ग़ैर मुस्लिमों का तरीक़ा है जिनकी नक़ल हम कर रहे हैं।
हमारे समाज में यह रस्म कम-अज़-कम एक हफ़्ते पहले आयोजित की जाती है और इस दिन दुल्हन/दूल्हा को पीले लिबास में हल्दी लगाई जाती है। इस मौक़े पर आने वाले मेहमान भी ख़ास तौर पर पीले रंग का कपड़ा पहन कर आते हैं। इस मौक़े पर तोहफ़े देने का भी रिवाज आम हो चला है और आज वक़्त के साथ शिर्क और बिद्दत में भी इज़ाफ़ा ही हो रहा है मसलन जब दूल्हे को हल्दी लगाई जाती है तो शिरकिया और बेहयाई वाले गाने भी गाए जाते हैं और फिर नामेहरम औरतें जिसमे भाभी, मामी और ऐसी लड़कियां जो चचेरी, ममेरी है उस दुल्हे को हल्दी लगाती हैं।
इसी तरह दुल्हन को भी नामेहरम की भीड़ में हल्दी लगाई जाती है जो नाजायेज़ है। इसका चलन बढ़ता ही जा रहा है।
याद रहे, शादी से पहले "हल्दी या मांझा" की रस्म करना सुन्नत से साबित नहीं है।
नोट:
1) अगर कोई ख़ूबसूरती के लिए लगाये तो लगा सकते हैं, लेकिन इसे रस्म के साथ नहीं।
2) ये ऐसी रस्म है जिसमें महरम और ग़ैर-महरम दोनों होते हैं और एक पार्टी की तरह रस्म अदायगी होती है, हल्दी लगाई जाती है। ग़ैर मेहरम (लड़का/लड़की) को छुआ (टच किया) जाता है जो हराम है। रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़रमाया :
"तुम्हारे लिए किसी ग़ैर मेहरम को छूने (टच) से बेहतर है कि तुम अपने सिर (हेड) में लोहे की कील ठोक लो।" [सही अल-जामेअ : 5045]
3) अलग अलग शहर और इलाक़े में मुख़्तलिफ़ तरीक़े से इस रस्म को मनाने का रिवाज़ है जिसमें कुछ शिर्किया काम भी किए जाते हैं।
याद रखें जो भी काम या रस्म जिसमें शिर्किया अमल किए जाए या सुन्नत से जो साबित न हों उस से बचना चाहिए। हमे उसी तरीक़े से जीना चाहिये जो तरीक़ा रसूल अल्लाह ﷺ का था, ग़ैर क़ौमो का तरीक़ा नही अपनाना चाहिए तभी हम इस दुनिया और आख़िरत में कामयाब होंगे।
अल्लाह के रसूल ﷺ ने फ़रमाया:
"जिसने किसी क़ौम की मुशाबिहत की वो उन्ही में से है।" [सुनन अबु दाऊद : 4031]
इन शा अल्लाह अगली क़िस्त में दूसरी गैर इस्लामी रस्मों का ज़िक्र करेंगे।
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त हम सब को दीन की सही समझ अता फरमाए।
आमीन
फ़िरोज़ा
2 टिप्पणियाँ
Beshak Ameen
जवाब देंहटाएंSach hai
जवाब देंहटाएंकृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।