Kya Akhirat par shaq aur iska inkaar ek jaisa hai?

 

Kya Akhirat par shaq aur iska inkaar ek jaisa hai?

आख़िरत का इनकार और आख़िरत पर शक एक जैसा है


जो लोग आख़िरत (मरने के बाद जिंदगी) का इनकार करते है वो इस दुनिया को ही सब कुछ समझते है और उनका ये समझना कोई इल्म या अकल की बुनियाद पर नहीं बल्कि सिर्फ अपने गुमान की बुनियाद पर है। इसी बात को अल्लाह ने कुरआन में कुछ इस तरह बयान किया है कि:- 


وَ قَالُوۡا مَا ہِیَ اِلَّا حَیَاتُنَا الدُّنۡیَا نَمُوۡتُ وَ نَحۡیَا وَ مَا یُہۡلِکُنَاۤ اِلَّا الدَّہۡرُ ۚ وَ مَا لَہُمۡ بِذٰلِکَ مِنۡ عِلۡمٍ ۚ اِنۡ ہُمۡ اِلَّا یَظُنُّوۡنَ 

ये लोग कहते हैं कि “ज़िन्दगी बस यही हमारी दुनिया की ज़िन्दगी है, यहीं हमारा मरना-जीना है और दिनों के आने-जाने के सिवा कोई चीज़ नहीं जो हमें हलाक करती हो,” हक़ीक़त में इस मामले में इनके पास कोई इल्म नहीं है। ये सिर्फ़ गुमान की बुनियाद पर ये बातें करते हैं।

[कुरआन 45:24]


यानी इल्म का कोई ज़रिआ ऐसा नहीं है जिससे उनकी सच्चाई का पता लगाकर ये मालूम हो गया हो कि इस ज़िन्दगी के बाद इन्सान के लिये कोई दूसरी ज़िन्दगी नहीं है और ये बात भी उन्हें मालूम हो गई हो कि इन्सान की रूह किसी ख़ुदा के हुक्म से नहीं निकाली जाती है, बल्कि आदमी सिर्फ़ दिनों के गुज़रने से मरकर मिट जाता है। आख़िरत का इनकार करनेवाले ये बातें किसी इल्म की बुनियाद पर नहीं, बल्कि सिर्फ़ गुमान की बुनियाद पर करते हैं। इल्मी हैसियत से अगर वे बात करें तो ज़्यादा से ज़्यादा जो कुछ कह सकते हैं, वो बस ये है कि हम नहीं जानते कि मरने के बाद कोई ज़िन्दगी है या नहीं, लेकिन ये हरगिज़ नहीं कह सकते कि हम जानते हैं कि इस ज़िन्दगी के बाद कोई दूसरी ज़िन्दगी नहीं है। 

इसी तरह इल्मी तरीक़े पर वे ये जानने का दावा नहीं कर सकते कि आदमी की रूह ख़ुदा के हुक्म से निकाली नहीं जाती, बल्कि वो सिर्फ़ उस तरह मरकर ख़त्म हो जाता है जैसे एक घड़ी चलते-चलते रुक जाए। ज़्यादा से ज़्यादा जो कुछ वे कह सकते हैं वो सिर्फ़ ये है कि हम इन दोनों में से किसी के बारे में ये नहीं जानते कि हक़ीक़त में क्या सूरत पेश आती है। 

अब सवाल ये है कि, 

जब इन्सानी इल्म के ज़रिओं की हद तक मरने के बाद की ज़िन्दगी के होने या न होने और रूह निकाले जाने या दिनों के गुज़रने से आप ही आप मर जाने का एक जैसा इमकान है, तो आख़िर क्या वजह है कि ये लोग आख़िरत के आने के इमकान को छोड़कर पूरी तरह आख़िरत के इनकार के हक़ में फ़ैसला कर डालते हैं? 

क्या इसकी वजह इसके सिवा कुछ और है कि असल में इस मसले का आखिरी फ़ैसला वे दलील की बुनियाद पर नहीं, बल्कि अपनी ख़ाहिश की बुनियाद पर करते हैं? 

चूँकि उनका दिल ये नहीं चाहता कि मरने के बाद कोई ज़िन्दगी हो और मौत की हक़ीक़त मिट जाना और ख़त्म हो जाना नहीं, बल्कि ख़ुदा की तरफ़ से रूह का क़ब्ज़े में लिया जाना हो, इसलिये वे अपने दिल की माँग को अपना अक़ीदा बना लेते हैं और दूसरी बात का इनकार कर देते हैं।


आखिरत (मरने के बाद जिंदगी) पर शक रखने वाले


अल्लाह कुरआन में फरमाता है:-


وَ اِذَا قِیۡلَ اِنَّ وَعۡدَ اللّٰہِ حَقٌّ وَّ السَّاعَۃُ لَا رَیۡبَ فِیۡہَا قُلۡتُمۡ مَّا نَدۡرِیۡ مَا السَّاعَۃُ ۙ اِنۡ نَّظُنُّ اِلَّا ظَنًّا وَّ مَا نَحۡنُ بِمُسۡتَیۡقِنِیۡنَ

"और जब कहा जाता था कि अल्लाह का वादा सच्चा है और क़ियामत के आने में कोई शक नहीं, तो तुम कहते थे कि हम नहीं जानते क़ियामत क्या होती है, हम तो बस एक गुमान सा रखते हैं, यक़ीन हमको नहीं है।”

[कुरआन 45:32]


इससे पहले जिन लोगों का ज़िक्र गुज़र चुका है, वे आख़िरत का पूरी तरह और खुला इनकार करने वाले थे और यहाँ उन लोगों का ज़िक्र किया जा रहा है जो उसका यक़ीन नहीं रखते अगरचे गुमान की हद तक उसके इमकान से इनकार करनेवाले नहीं हैं। बज़ाहिर इन दोनों गरोहों में इस लिहाज़ से बड़ा फ़र्क़ है कि एक बिलकुल इनकार करनेवाला है और दूसरा उसके मुमकिन होने का गुमान रखता है। लेकिन नतीजे और अंजाम के लिहाज़ से इन दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं। इसलिये कि आख़िरत के इनकार और उसपर यक़ीन न होने के अख़लाक़ी नतीजे बिलकुल एक जैसे हैं। 

कोई आदमी चाहे आख़िरत को न मानता हो, या उसका यक़ीन न रखता हो, दोनों सूरतों में लाज़िमन वो ख़ुदा के सामने अपनी जवाबदेही के एहसास से ख़ाली होगा और ये एहसास न होना उसको लाज़िमन फ़िक्रो-अमल (विचार और व्यवहार) की गुमराहियों में मुब्तला करके रहेगा। सिर्फ़ आख़िरत का यक़ीन ही दुनिया में आदमी के रवैये को दुरुस्त रख सकता है। ये अगर न हो तो शक और इनकार, दोनों उसे एक ही तरह की ग़ैर-ज़िम्मेदारी वाली राह पर डाल देते हैं और चूँकि यही ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैया आख़िरत के बुरे अंजाम का असल सबब है, इसलिये जहन्नम में जाने से न इनकार करनेवाला बच सकता है, न यक़ीन न रखनेवाला।


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