🌙 रमज़ान के मसाइल-4: रोज़ की फ़र्ज़ियत बच्चे और मजनूं पर
अगर किसी ने ये 5 शर्ते पूरी की है तो उस पर रोजा रखना लाज़िम है-
(ii) वह जवाबदार हो (मजनून- पागल ना हो, बच्चा ना हो)
(iii) उसमें रोजा रखने की कूवत हो (बीमार ना हो)
(iv) वह एक ही जगह पर हो (सफर में नहीं)
(v) रोजा रखने में कोई रुकावट ना हो (हैज़, निफास)
"जो शख़्स इस महीने (रमज़ान) को पाए, उसके लिये ज़रूरी है कि इस पूरे महीने के रोज़े रखे। और जो कोई बीमार हो या सफ़र पर हो, तो वो दूसरे दिनों में रोज़ों की गिनती पूरी करे।"
[कुरान 2:185]
बच्चे और पागल (मजनूं) इन दोनों पर रोज़े और दूसरी इबादत माफ़ है, इन का कोई हिसाब नहीं होगा जब तक मजनून को अक्ल ना आ जाए और बच्चा बलूग़त (बालिग) तक ना पहुंच जाये।
रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तीन तरह के आदमियों से क़लम उठा लिया गया है : पागल जुनूनी (दीवाना) से यहाँ तक कि सेहत मन्द हो जाए, सोए हुए से यहाँ तक कि जाग जाए और बच्चे से यहाँ तक कि अक़ल मन्द (बालिग़) हो जाए।"
[आबू दाऊद 4402]
शेख उसेमीन फरमाते हैं:
बलूग़त तक एक लड़का तब पहुंचता है जब-
(i) 15 साल का हो जाए।
(ii) या ज़ेर ए नाफ (प्राइवेट पार्ट) में बाल आ जाए।
(iii) या सहवत से मनी खारिज होना (निकलना) चाहे ख्वाब में हो या बेदारी में (जागते हो)।बलूग़त तक एक लड़की तब पहुंचती है जब-
(i) 15 साल की हो जाए।
(ii) या ज़ेर ए नाफ (प्राइवेट पार्ट) में बाल आ जाए।
(iii) या सहवत से मनी खारिज होना (निकलना) चाहे ख्वाब में हो या बेदारी में (जागते हो)।
(iv) हैज़ आने लगे।[फतवा रमज़ान, वॉल्यूम-1, पेज-44]
नोट: हमारे मुल्क में 15 साल बालिग होने की average है, कुछ बच्चे इससे पहले और कुछ बाद मे भी होते हैं।
बालिग़ पर तमाम इबादत फर्ज है इसलिए बच्चों को सात-आठ साल की उम्र से रोज़ा रखने और दूसरी इबादत की हिदायत करनी चाहिए जिससे उसकी प्रैक्टिस हो सके। अगर सातवे साल में वो दो-चार रोज़े रखता है तो नवे साल में दस रोज़े और इन शा अल्लाह जब उसपर रोज़े फ़र्ज़ हो जायेंगे तो वो पूरे रोज़े रख लेगा।
रबीअ बिनत मुआविद (رضي الله عنه) ने कहा कि फिर बाद में भी (रमज़ान के रोज़े की फ़र्ज़ियत के बाद) हम उस दिन रोज़ा रखते और अपने बच्चों से भी रखवाते थे। उन्हें हम ऊन का एक खिलौना देकर बहलाए रखते। जब कोई खाने के लिये रोता तो वही दे देते यहाँ तक कि इफ़्तार का वक़्त आ जाता।
[बुखारी 1960]
रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया : अपने बच्चों को जब वो सात साल के हो जाएँ तो नमाज़ का हुक्म दो और जब दस साल के हो जाएँ (और न पढ़ें ) तो उन्हें इस पर मारो और उन के बिस्तर जुदा-जुदा कर दो।
[आबू दाऊद 495]
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