8. Qurbani kyun, kab aur kaise?



क़ुर्बानी इसलिए की जाती है क्योंकि ये अल्लाह का हुक्म और हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की सुन्नत है। ये अल्लाह की रज़ा के लिए अपनी महबूब चीज़ को कुर्बान करने का इज़हार है — और ये ईमान, तक़वा और फ़िदाकारी की अलामत है।

क़ुर्बानी क्यों की जाती है? 

(मुख़सद और मक्सद)

1. अल्लाह के हुक्म की पैरवी में

क़ुर्बानी कोई रस्म नहीं, बल्कि इबादत है — जैसे नमाज़, रोज़ा।
अल्लाह ने क़ुरआन में साफ़ फ़रमाया:
 “तो अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ो और क़ुर्बानी करो।”
(Surah Al-Kawthar – आयत 2)

2. हज़रत इब्राहीम (अ.स.) और इस्माईल (अ.स.) की याद में

जब अल्लाह ने इब्राहीम अ. को अपने बेटे की क़ुर्बानी का हुक्म दिया, तो उन्होंने पूरी फरमाबरदारी से बेटे को लिटा दिया।
अल्लाह ने उनकी यह आज़माइश देखकर एक दुम्बा भेजा और इंसानी क़ुर्बानी को रोक दिया।
“ऐ इब्राहीम! तूने ख्वाब को सच्चा कर दिखाया... और हमने एक बड़ी क़ुर्बानी से उसकी जगह बदल दी।”
(Surah As-Saffat – आयत 105-107)

3. तक़वा और सच्ची नियत दिखाने के लिए

अल्लाह को न गोश्त चाहिए, न खून — सिर्फ़ तुम्हारा दिल और नियत।
“अल्लाह तक न इनका गोश्त पहुंचेगा न खून, बल्कि उसे तो तुम्हारा तक़वा पहुंचता है।”
(Surah Al-Hajj – आयत 37)

4. गरीबों, रिश्तेदारों को खाना खिलाने और खुशी बांटने के लिए

क़ुर्बानी का गोश्त खुद खाओ, गरीबों को दो, और समाज में इख़लाक़ व मोहब्बत फैलाओ।
क़ुर्बानी का मक़सद सिर्फ़ जानवर ज़बह करना नहीं, बल्कि अल्लाह की रज़ा के लिए अपना माल और चाहत कुर्बान करना है — ताकि दिल से साबित हो कि अल्लाह हमें सबसे ज़्यादा अज़ीज़ है।


क़ुर्बानी  किस पर वाजिब है?

क़ुर्बानी के बारे में उलमा का मत अलग-अलग है, लेकिन हनफी फ़िक़्ह के मुताबिक: क़ुर्बानी वाजिब हैसुन्नत नहीं।

विवरण:

1. हनफ़ी फ़िक़्ह के अनुसार:

क़ुर्बानी वाजिब है उस मुसलमान पर जो:

  • मालदार हो (निसाब के बराबर माल रखता हो),
  • बालिग़, अ़ाक़िल और मुक़ीम हो।

दलील (हदीस):
रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया:

“जिसके पास क़ुर्बानी की ताक़त हो और वह फिर भी क़ुर्बानी न करे, वह हमारी ईदगाह के करीब भी न आए।”
(सुनन इब्ने माजह, हदीस 3123)

यह हदीस वुजूब (फ़र्ज़/वाजिब) पर ज़ोर देती है, सिर्फ़ सुन्नत नहीं।

2. शाफ़ई, मालिकी और हंबली फ़िक़्ह के अनुसार:

उनके नज़दीक क़ुर्बानी सुन्नत-ए-मुअक्कदा है, यानी बहुत पक्की सुन्नत — जिसे बिना वजह छोड़ना अच्छा नहीं।


सलफ़ी (Salafi) या अहले हदीस के नज़दीक क़ुर्बानी वाजिब नहीं, बल्कि सुन्नत-ए-मुअक्कदा है।


3. सलफ़ी (अहले हदीस) नज़रिये से हुक्म:

"क़ुर्बानी एक बहुत ही ताक़ीद वाली (ज़ोरदार) सुन्नत है, लेकिन वाजिब नहीं है।"

दलील (हदीस से):

हदीस:
रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया:

“क़ुर्बानी करने से बेहतर कोई अमल अल्लाह को इन दिनों (ज़िलहज्ज के पहले 10 दिन) में ज़्यादा पसंद नहीं।”
(सुनन तिर्मिज़ी, हदीस 1493)


दूसरी हदीस:

"रसूलुल्लाह (ﷺ) ने मदीना मुनव्वरा में 10 साल क़ुर्बानी की।"
(अहमद, तिर्मिज़ी)


सलफ़ी उलमा कहते हैं कि अगर यह वाजिब होती तो आप (ﷺ) हर मुसलमान को इसका हुक्म देते, लेकिन आपने ऐसा नहीं किया — इसलिए ये सुन्नत है।

सलफ़ी मानते हैं:
  • क़ुर्बानी फ़र्ज़ या वाजिब नहीं
  • लेकिन बहुत ज़ोरदार सुन्नत (मुअक्कदा) है
  • तरगीब दी गई है, छोड़ा न जाए बग़ैर वजह


क़ुर्बानी के जानवर

क़ुर्बानी के जानवर के बारे में इस्लाम में बहुत साफ़ और मुकम्मल हिदायतें हैं। नीचे क़ुर्बानी के जानवरों की शर्तें, कौन से जानवर हलाल हैं और कौन नहीं, और इसके साथ क़ुरआन व हदीस से दलीलें दी गई हैं:

1. कौन-कौन से जानवर की क़ुर्बानी कर सकते हैं?

हलाल और क़ुर्बानी के लायक़ जानवर:

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2. जानवर में क्या ऐब नहीं होना चाहिए? (दोष न हो)

हदीस से हुक्म:

रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया:

“चार तरह के जानवरों की क़ुर्बानी जायज़ नहीं है:”

  1. एक आंख से अंधा (बहुत कम देखता हो)
  2. बीमार जानवर (जिसकी बीमारी ज़ाहिर हो)
  3. लंगड़ा (जिसका चलना भी मुश्किल हो)
  4. बहुत दुबला (जिसकी हड्डियां नज़र आएं)
(सुनन अबू दाऊद – हदीस 2802, तिर्मिज़ी – 1497)

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3. जानवर के सींग, कान, दुम में कुछ कमी हो तो?

हल्का सा कटाव / ऐब हो तो क़ुर्बानी हो सकती है

लेकिन पूरी दुम, कान या सींग गायब हों तो क़ुर्बानी जायज़ नहीं

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4. एक जानवर में कितने लोगों की क़ुर्बानी हो सकती है?

बकरा / बकरी / दुम्बा – सिर्फ़ 1 शख्स की तरफ़ से

गाय / ऊँट – 7 लोगों तक की नियत से क़ुर्बानी हो सकती है

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5. जानवर पालतू और अच्छा होना चाहिए

क़ुरआन से दलील:

 “हर उम्मत के लिए हमने क़ुर्बानी का अमल मुकर्रर किया ताकि अल्लाह का नाम लें उन जानवरों पर जो उसने उन्हें दिए हैं।”

(Surah Al-Hajj – आयत 34)

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6. नहीं कर सकते इनकी क़ुर्बानी:

  • मुर्दा जानवर
  • किसी और का चुराया हुआ जानवर
  • ऐसा जानवर जो बहुत बीमार, टांग टूटी हो, या खड़ा न हो सके
  • जंगली जानवर, या ऐसे जानवर जो पालतू न हों

क़ुर्बानी के गोश्त की तक़सीम (बाँटना)

क़ुर्बानी का गोश्त किस तरह बाँटना चाहिए, इस्लाम ने इसके लिए साफ़ तरीका बताया है — ताके इंसाफ़ भी हो और सबको फायदा पहुँचे। नीचे इसका वाज़ेह तरीका, और क़ुरआन व हदीस से दलीलें दी गई हैं:

सुन्नत तरीका ये है:
  1. 1/3 (एक तिहाई) – गरीबों और मोहताजों को देना
  2. 1/3 (एक तिहाई) – रिश्तेदारों और दोस्तों को देना (चाहे गरीब हों या अमीर)
  3. 1/3 (एक तिहाई) – खुद अपने लिए रखना और खाना
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क्या ऐसा बाँटना फ़र्ज़ है?
यह तक़सीम सुन्नत-ए-मुअक्कदा है — यानी बहुत ज़ोरदार सुन्नत।

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क़ुरआन से दलील:
"तो उसका (क़ुर्बानी का) गोश्त खाओ और गरीबों को भी खिलाओ जो माँगते हैं और जो नहीं माँगते।"
(Surah Al-Hajj – आयत 36)

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हदीस से दलील:

हज़रत अब्दुल्लाह इब्न अब्बास रज़ि. से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
“तुम इस गोश्त से खुद खाओ, दूसरों को भी खिलाओ और ज़ख़ीरा भी कर सकते हो।”
(सहीह मुस्लिम – हदीस 1971)


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ज़रूरी बातें:

  • गैर-मुस्लिमों को भी दे सकते हो, लेकिन मुस्लिम ग़रीब को तरजीह दी जाए
  • क़ुर्बानी की खाल बेच कर उसका पैसा खुद नहीं रख सकते, वो भी सदक़ा करना होगा
  • क़ुर्बानी के गोश्त या खाल के बदले में कसाई को मेहनताना देना हराम है

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नमाज़ से पहले खाना???

ईद उल-अज़्हा (बकरा ईद) की नमाज़ से पहले खाना खाने का हुक्म अलग है बनिस्बत ईद उल-फित्र के।
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1. ईद उल-अज़्हा के दिन नमाज़ से पहले खाना खाना कैसा है?
सुन्नत यह है कि: ईद उल-अज़्हा की नमाज़ के बाद खाना खाया जाए।
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हदीस से दलील:

हज़रत अब्दुल्लाह बिन बुरैदाह रज़ि. अपने वालिद से रिवायत करते हैं:
"रसूलुल्लाह ﷺ ईद-उल-फ़ित्र के दिन कुछ खा कर निकलते और ईद उल-अज़्हा के दिन नमाज़ के बाद लौटकर क़ुर्बानी का गोश्त खाते।”
(सुनन इब्ने माजह – हदीस 1756, तिर्मिज़ी – 542)
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2. मक़सद क्या है?

ईद उल-अज़्हा में पहला निवाला क़ुर्बानी के गोश्त से हो — यह सुन्नत और अल्लाह की नेमत की क़द्र है।
इससे पहले कुछ भी न खाएं तो ज़्यादा अफ़ज़ल है (मगर ज़रूरत हो तो हल्का खा सकते हैं, ममनूअ नहीं है)

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3. क्या खाना हराम है नमाज़ से पहले?
नहीं — हराम नहीं, लेकिन सुन्नत के ख़िलाफ़ है।
जैसे ईद उल-फ़ित्र में नमाज़ से पहले खजूर खाना सुन्नत है, वैसे ही ईद उल-अज़्हा में नमाज़ के बाद गोश्त खाना सुन्नत है।
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ईद उल-अज़्हा (और ईद उल-फ़ित्र) की नमाज़ का वक़्त सूरज निकलने के थोड़ी देर बाद से शुरू होता है, और ज़ुहर से पहले तक जारी रहता है।


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ईद की नमाज़ का वक़्त:

हदीस से दलील:
“नबी ﷺ ईद की नमाज़ सूरज निकलने के बाद अदा करते थे।”
(सहीह मुस्लिम – 885)

ईद उल-अज़्हा में जल्दी पढ़ना मुस्तहब है:
ताके लोग जल्दी क़ुर्बानी कर सकें
यही नबी ﷺ का अमल था:
“रसूलुल्लाह ﷺ ईद उल-अज़्हा की नमाज़ जल्दी पढ़ते थे और ईद उल-फ़ित्र की थोड़ी देर से।”
(सहीह बुखारी – 560)

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वक़्त: सूरज निकलने के 15–20 मिनट बाद से ज़ुहर से पहले तक
ईद उल-अज़्हा: जल्दी अदा करना सुन्नत है
ईद उल-फ़ित्र: थोड़ी देर से अदा करना मुस्तहब है

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क़ुर्बानी का सुन्नती तरीका:

क़ुर्बानी का तरीका सीधा, सुन्नत और आदाब के साथ होना चाहिए। 
1. नियत और नाम लेना:
जानवर को ज़बह करने से पहले नियत करें कि ये अल्लाह की खातिर क़ुर्बानी है
जानवर को ज़बह करते वक़्त कहें:
"बिस्मिल्लाहि वल्लाहु अकबर, अल्लाहुम्मा हाज़ा मिंनी"
(अगर दूसरों की तरफ से है तो:)
"हाज़ा अन्फुलान" (जैसे: "हाज़ा अन्हु, अन्हा")

2. चाक़ू तेज़ करें (जानवर के सामने नहीं):
रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
“जब तुम ज़बह करो, तो चाकू तेज़ कर लो और जानवर को आराम दो।”
(सहीह मुस्लिम – 1955)

3. जानवर को नरमी से लिटाना:
बकरा, भेड़, बकरी को बाएं करवट लिटाकर
ऊँट को खड़ा करके ज़बह करें (या नीचे लिटाकर)

4. ज़बह की जगह:
गला और गर्दन की दोनों नली काटें
खून बहने दें — जल्दबाज़ी न करें

5. सुन्नत अल्फाज़ ज़बह के वक़्त:
"बिस्मिल्लाह, वल्लाहु अकबर"
(ये पढ़ना वाजिब है — छोड़ दिया तो ज़बह हलाल नहीं)

6. अल्लाह के रसूल ﷺ का अमल:
"रसूलुल्लाह ﷺ ने दो सफ़ेद सींगदार मेढ़े ज़बह किए, 'बिस्मिल्लाह वल्लाहु अकबर' कहा और अपना पाँव उनके पहलू पर रखा।"
(सहीह बुखारी – 5558)

7. किसके लिए?
अगर किसी और की तरफ से है (जैसे बीवी, वालिद, मरहूम), तो:
 "अल्लाहुम्मा हाज़ा अन्फुलां बिन फलां" (नाम से नियत)
क़ुर्बानी का तरीका सीधा, सुन्नत और आदाब के साथ होना चाहिए। 






































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