Maut ke baad ki zindagi par aqli daleel

Maut ke baad ki zindagi par aqli daleel


मौत के बाद की ज़िंदगी पर अकली दलील


अल्लाह कुरआन में मौत के बाद की ज़िंदगी पर अकली दलील कुछ यूं बयान करता है कि:


خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَ الۡاَرۡضَ بِالۡحَقِّ وَ صَوَّرَکُمۡ فَاَحۡسَنَ صُوَرَکُمۡ ۚ وَ اِلَیۡہِ الۡمَصِیۡرُ
"उसने ज़मीन और आसमानों को बरहक़ पैदा किया है, और तुम्हारी सूरत बनाई और बड़ी उम्दा बनाई है, और उसी की तरफ़ आख़िरकार तुम्हें पलटना है।"
[कुरआन 64:3]


इस आयत में एक के बाद एक तीन बातें बयान की गईं हैं, जिनके दरमियान एक बहुत गहरा मनतीक़ी रब्त (तार्किक सम्बन्ध) है-

1. पहली बात यह कही गई है कि अल्लाह ने यह कायनात हक़ के साथ पैदा की है। बिल-हक़ (हक़ के साथ) का लफ़्ज़ जब ख़बर के लिए बोला जाता है तो मुराद सच्ची ख़बर होती है। हुक्म के लिए बोला जाता है तो मतलब होता है वह हुक्म जिसकी बुनियाद इनसाफ़ पर हो। बात के लिए बोला जाता है तो तो मक़सद होता है सीधी और दुरुस्त बात  और जब किसी काम के लिए यह लफ़्ज़ इस्तेमाल होता है जो हिकमत-भरा और अक़्ल के मुताबिक़ हो, न कि बे-मतलब और फ़ुज़ूल।

अब यह ज़ाहिर है कि ख़ल्क़ (creation) एक काम है, इसलिए कायनात को पैदा करने को हक़ के साथ कहने का मतलब ज़रूर ही यह है कि यह कायनात कुछ खेल के तौर पर नहीं बना दी गई है, बल्कि यह एक हिकमत वाले ख़ालिक़ का बहुत ही संजीदा काम है। इसकी हर चीज़ अपने पीछे एक मुनासिब मक़सद रखती है, और यह मक़सद रखना उसमें इतना नुमायाँ है कि अगर कोई अक़्लमन्द इनसान किसी चीज़ की नौइयत को अच्छी तरह समझ ले तो यह जान लेना उसके लिए मुश्किल नहीं होता कि ऐसी एक चीज़ के करने का मुनासिब और हिकमत से भरपूर मक़सद और क्या हो सकता है। दुनिया में इनसान की सारी साईंटिफ़िक तरक्की इस बात की गवाही दे रही है कि जिस चीज़ की नौइयत को भी इनसान ने ग़ौर-फ़िक्र और जाँच-पड़ताल से समझ लिया उसके बारे में यह बात भी आख़िरकार उसे मालूम हो गई कि वह किस मक़सद के लिए बनाई गई है, और उस मक़सद को समझ कर ही इनसान ने वो अनगिनत चीज़े ईजाद कर लीं जो आज इनसानी समाज में इस्तेमाल हो रही हैं। यह बात हरगिज़ मुमकिन न होती अगर यह कायनात किसी खिलंडरे का खिलौना होती जिसमे कोई हिकमत और मक़सद काम न कर रहा होता।


2. दूसरी बात यह कही गई है कि इस कायनात में अल्लाह तआला ने इनसान को बेहतरीन सूरत पर पैदा किया है। सूरत से कुर्द सिर्फ़ इनसान का चेहरा नहीं है, बल्कि इससे मुराद उसकी पूरी जिस्मानी बनावट है और वे क़ुव्व्तें और सलाहियतें (प्रतिभाएँ) भी इसके मतलब में दाख़िल हैं जो इस दुनिया में काम करने के लिए आदमी को दी गई हैं। इन दोनों हैसियतों से इनसान को ज़मीन के जानदारों में सबसे बेहतर बनाया गया है, और इसी वजह से वह इस क़ाबिल हुआ कि इन तमाम मौजूद चीज़ों पर हुकूमत करे जो ज़मीन और उसके आस-पास पाई जाती हैं। उसकी खड़ा क़द दिया गया है। उसकी चलने के लिए इन्तिहाई मुनासिब पाँव दिए गए हैं। उसको ऐसे हवास (इन्द्रियों) और जानकारी के ऐसे आलात दिए गए हैं जिनके ज़रिए से वह हर तरफ़ की जानकारी हासिल कर सकता है। उसको सोचने समझने और मालूमात हासिल को जमा करके उनसे नतीजे निकालने के लिए एक आला दर्जे का ज़ेहन दिया गया है। उसको एक अख़लाक़ी एहसास (नैतिक चेतना) और अच्छा-बुरा पहचानने की क़ुव्वत दी गई है जिसकी वजह से वह भलाई-बुराई और सही-ग़लत में फ़र्क़ करता है। उसको एक फ़ैसला करने की क़ुव्वत दी गई है, जिससे काम लेकर वह अपने अमल का रास्ता ख़ुद चुनता है और यह तय करता है कि अपनी कोशिशों को किस रास्ते पर लगाए और किस पर ना लगाए। उसको यहाँ तक आज़ादी दे दी गई है कि चाहे तो अपने पैदा करने वाले को माने और उसकी बन्दगी करे, वरना उसका इनकार कर दे, या जिन-जिन को चाहे अपना ख़ुदा बना बैठे, यह जिसे ख़ुदा मानता हो उसके ख़िलाफ़ भी बग़ावत करना चाहे तो कर गुज़रे। इन सारी क़ुव्वतों और इन सारे इख़्तियारात के साथ उसे ख़ुदा ने अपनी पैदा की हुई अनगिनत जानदार और बेजान चीज़ों को इस्तेमाल करने का इक़तिदार (ताक़त, क़ुदरत और इख़्तियार) उसे दिया है और वह अमली तौर पर इस इक़तिदार को इस्तेमाल कर रहा है।


इन दो बातों से, जो ऊपर बयान की गई हैं, बिल्कुल एक मनतिक़ी (तार्किक) नतीजे के तौर पर वह तीसरी बात ख़ुद-ब-ख़ुद निकलती है जो आयत के तीसरे जुमले में कही गई है कि उसी की तरफ़ आख़िरकार तुम्हें पलटना है। ज़ाहिर बात है कि जब ऐसे एक हिकमत भरे और बा-मक़सद निज़ामे कायनात (विश्व-व्यवस्था) मैं ऐसा इख़्तियार रखने वाला जानदार पैदा किया गया है तो हिकमत का तक़ाज़ा हरगिज़ यह नहीं है कि उसे यहाँ बे नकेल के ऊँट की तरह ग़ैर-ज़िम्मेदार बना कर छोड़ दिया जाए, बल्कि लाज़िमी तौर से इसका तक़ाज़ा यह है कि यह जानदार उस हस्ती के सामने जवाबदेह हो जिसने उसे इन इख़्तियारात के साथ अपनी कायनात में यह मक़ाम और मर्तबा दिया है। पलटने से मुराद इस आयत में सिर्फ़ पलटना नहीं है, बल्कि जवाबदेही के लिए पलटना है, और बाद की आयतों में साफ़ तौर से बयान कर दिया गया है कि यह वापसी इस ज़िन्दगी में नहीं बल्कि मरने के बाद दूसरी ज़िन्दगी में होगी, और इसका अस्ल वक़्त वह होगा जब तमाम इनसानों को नए सिरे से ज़िन्दा करके एक ही वक़्त में पूछ-गछ के लिए इकट्ठा किया जाएगा, और उस पूछ-गछ के नतीजे में इनाम और सज़ा इस बुनियाद पर होगी कि आदमी ने ख़ुदा के दिए हुए इस इख़्तियार को सही तरीक़े से इस्तेमाल किया या ग़लत तरीक़े से।

  • रहा यह सवाल कि यह जवाबदेही दुनिया की मौजूदा ज़िन्दगी में क्यों नहीं हो सकती? 
  • और इसका सही वक़्त मरने के बाद दूसरी ज़िन्दगी ही क्यों है? 
  • और यह क्यों ज़रूरी है कि यह जवाबदेही उस वक़्त हो जब पूरी इनसानी नस्ल इस दुनिया में ख़त्म हो जाए और शुरू से आख़िर तक के तमाम इनसानों को एक साथ दोबारा ज़िन्दा करके इकट्ठा किया जाए? 

आदमी ज़रा भी अक़्ल से काम ले तो वह समझ सकता है कि यह सब कुछ भी सरासर अक़्ल के मुताबिक़ है और हिकमत और समझदारी का तक़ाज़ा यही है कि पूछ-गछ दूसरी ज़िन्दगी ही में हो और सब इनसानों से एक साथ हो। इसकी पहली वजह यह है कि इनसान अपनी पूरी ज़िन्दगी की किए-धरे के लिए जवाबदेह है। इसलिए उसकी जवाबदेही का सही वक़्त लाज़मी तौर से वही होना चाहिए जब उसकी ज़िन्दगी का कारनामा पूरा हो चुका हो। और दूसरी वजह इसकी यह है कि इनसान उन तमाम असरात और नतीजों के लिए ज़िम्मेदार है जो उसके कामों से दूसरों को की ज़िन्दगी पर पड़े हों, और वे असरात और नतीजे उसके मरने के साथ ख़त्म नहीं हो जाते, बल्कि उसके बाद एक लम्बी मुद्दत तक चलते रहते हैं। लिहाज़ा सही हिसाब उसी वक़्त किया जा सकता है जब तमाम इनसानों की ज़िन्दगी का कारनामा ख़त्म हो जाए और शुरू से लेकर आख़िर तक तमाम इनसान एक साथ जवाबदेही के लिए जमा किए जाएँ।


कर्म (अमल) का जाहिरी और छुपा हुआ पहलू सिर्फ अल्लाह ही जानता है।


अल्लाह फरमाता है:-


یَعۡلَمُ مَا فِی السَّمٰوٰتِ وَ الۡاَرۡضِ وَ یَعۡلَمُ مَا تُسِرُّوۡنَ وَ مَا تُعۡلِنُوۡنَ ؕ وَ اللّٰہُ عَلِیۡمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوۡرِ
"ज़मीन और आसमानों की हर चीज़ का उसे इल्म है। जो कुछ तुम छुपाते हो और जो कुछ तुम ज़ाहिर करते हो सब उसको मालूम है, और वो दिलों का हाल तक जानता है।"
[कुरआन 64:4]


यानी अल्लाह इनसान के सिर्फ़ उन कामों ही को नहीं जानता जो लोगों की जानकारी में आ जाते हैं, बल्कि उन कामों को भी जानता है जो सबसे छिपे रह जाते हैं । इसके अलावा वह सिर्फ़ कामों की ज़ाहिरी शक्ल ही को नहीं देखता, बल्कि यह भी जानता है कि इनसान के हर अमल के पीछे क्या इरादा और क्या मक़सद काम कर रहा था और जो कुछ उसने किया किस नीयत से किया और क्या समझते हुए किया। यह एक ऐसी हक़ीक़त है जिस पर इनसान ग़ौर करे तो उसे अन्दाज़ा हो सकता है कि इनसाफ़ सिर्फ़ आख़िरत ही में हो सकता है और सिर्फ़ ख़ुदा ही की अदालत में सही इनसाफ़ होना मुमकिन है। इनसान की अक़्ल ख़ुद यह तक़ाज़ा करती है कि आदमी को उसके हर जुर्म की सज़ा मिलनी चाहिए, लेकिन आख़िर यह बात कौन नहीं जानता कि दुनिया में अक्सर और ज़्यादातर जुर्म या तो छिपे रह जाते हैं या उनके लिए काफ़ी गवाही न मिल पाने की वजह से मुजरिम छूट जाता है, या जुर्म खुल भी जाता है तो मुजरिम इतना असरदार और ताक़तवर होता है कि उसे सज़ा नहीं दी जा सकती। फ़िर इनसान की अक़्ल यह भी चाहती है कि आदमी को सिर्फ़ इस बुनियाद पर सज़ा नहीं मिलनी चाहिए कि उसने जो काम किया है उसकी शक्ल एक जुर्म के काम की सी है, बल्कि यह जाँच होनी चाहिए कि जो हरकत उसने की है जान-बूझकर और सोच-समझकर की है, उसके करते वक़्त वह एक ज़िम्मेदार करने वाले की हैसियत से काम कर रहा था, उसकी नियत सचमुच जुर्म करने की ही थी, और वह जानता था कि जो कुछ वह कर रहा है वह जुर्म है। इसी लिए दुनिया की अदालतें मुक़दमों का फ़ैसला करने में इन बातों की जाँच-पड़ताल करती हैं और इनकी पड़ताल को इनसाफ़ के उसूलों का तक़ाज़ा माना जाता है। 

मगर क्या सचमुच दुनिया में कोई ज़रिआ ऐसा पाया जाता है जिससे इनकी ठीक-ठीक जाँच हो सके जो हर शक-शुब्हे से परे हो? 

इस लिहाज़ से देखा जाए तो यह आयत भी अल्लाह तआला के इस फ़रमान से गहरा मनतिक़ी रब्त (तार्किक) सम्बन्ध रखती है कि उसने ज़मीन और आसमान को हक़ के साथ पैदा किया है। हक़ के साथ पैदा करने का लाज़िमी तक़ाज़ा यह है कि इस कायनात में सही और पूरा इनसाफ़ हो। यह इनसाफ़ लाज़मी तौर से उसी सूरत में क़ायम हो सकता है जबकि इनसाफ़ करने वाले की निगाह से इनसान जैसी ज़िम्मेदार मख़लूक़ (जानदार) की न सिर्फ़ यह कि कोई हरकत छिपी न रह जाए, बल्कि वह नियत भी उससे छिपी ना रहे जिसके साथ किसी शख़्स ने कोई हरकत की हो। और ज़ाहिर है कि कायनात के पैदा करने वाले (ख़ुदा) के सिवा कोई दूसरी हस्ती ऐसी नहीं हो सकती जो इस तरह का इनसाफ़ कर सके। अब अगर कोई शख़्स अल्लाह और आख़िरत का इनकार करता है तो वह मानो यह दावा करता है कि हम एक ऐसी कायनात में रहते हैं जो हक़ीक़त में इनसाफ़ से ख़ाली है, बल्कि जिसमें सिरे से इनसाफ़ का कोई इमकान ही नहीं है। इस बेवक़ूफ़ी भरे ख़्याल पर जिस शख़्स की अक़्ल और जिसका दिल व ज़मीर मुत्मइन हो वह बड़ा ही बेशर्म है, अगर वह अपने-आपको तरक़्क़ी पसन्द या अक़लियत पसन्द (बौद्धिकतावादी) समझता हो और उन लोगों को अन्धविश्वासी क़दामत पसन्द (रूढ़िवादी) समझे जो कायनात के इस अक़्ल के मुताबिक़ (Rational) नज़रिए को क़बूल करते हैं जिसे क़ुरान पेश कर रहा है।

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