ताग़ूत का इनकार [पार्ट-32]
(यानि कुफ्र बित-तागूत)
ताग़ूत से कैसे बचें- पहचान और इंकार
ताग़ूत से कैसे बचें- पहचान और इंकार
अल्लाह तआला ने मुसलमान पर सबसे पहली चीज जो फर्ज़ की है, वह है तागूत का इनकार और फिर अल्लाह अकेले पर ईमान लाना। अल्लाह तआला ने तमाम नबियों को यही दावत देकर भेजा है, जैसा कि इरशाद बारी तआला है:
"हमने हर उम्मत (समुदाय) में एक रसूल भेज दिया और उसके ज़रिए से सबको ख़बरदार कर दिया कि “अल्लाह की बन्दगी करो और ताग़ूत (बढ़े हुए सरकश) की बन्दगी से बचो। इसके बाद इनमें से किसी को अल्लाह ने सीधा रास्ता दिखाया और किसी पर गुमराही छा गई। फिर ज़रा ज़मीन में चल-फिरकर देख लो कि झुठलानेवालों का क्या अंजाम हो चुका है।" [कुरआन 16:36]
ये बात पीछे गुज़र चुकी है के ताग़ूत का इनकार तौहीद का पहला मरहला है! पहले अपने दिल से तमाम के तमाम बातिल माबूदो की मुहब्बत से खाली कर लेना है, उसके बाद अल्लाह की वहदानियत का इक़रार करना है।
"ला इलाहा इल्लाल्लाह" दो हिस्सों में तकसीम है:
- "ला इलाहा" = सारे माबूदों (तवाग़ीत) का इनकार करना।
- "इल्लाल्लाह" = एक अल्लाह पर ईमान लाना।
इससे पहले के तमाम पोस्ट में हम ताग़ूती निज़ामो के मुख्तलिफ रूप पढ़ चुके हैं! ये सारे इज्तिमाई ताग़ूती निज़ाम थे, इसके आगे इंफरादी ताग़ूतो का ज़िक्र किया जा रहा है।
हिन्दुस्तान में इन में से बाज़ ताग़ूत बहुत आम हैं और तौहीद कि दावत मेँ इसके इन्कार की दावत भी शामिल है।
ताग़ूत
लुगवी तारीफ़- ताग़ूत अरबी लफ्ज़ है जो तगा, यतगा, और "तुग़ियान" से निकला है, जिसका मतलब है हद से आगे बढ़ जाना या सरकशी (बग़ावत)।
ताग़ूत - बेइन्तिहा सरकश है।
शरई तारीफ़- हर वो शख्स या हर वो चीज़ जिसकी अल्लाह रब्बुल आलमीन के अलावा इबादत की जाए, और उसका इल्म उसको हो और वो उससे राज़ी हो, वो ताग़ूत है।
इसमें सारी चीजें दाख़िल हैं, पत्थर, दरख़्त, सूरज, चांद, नदी इंसान, जिसको भी इंसान अल्लाह तआला के साथ शरीक करता है वो सब के सब तागूत हैं।
सारे शिर्क करने और कराने वाले तागूत के अंदर दाख़िल हैं। शैतान, काहिन, बुत, दिरहम दीनार, कुर्सी वगैरह। जिसको भी इंसान अल्लाह तआला की फरमाबरदारी की कि जगह अपना रब बना ले।
हद से आगे बढ़ जाना या सरकशी (बग़ावत)- हमारी और आपकी हद ये है के हम अल्लाह के बन्दे, अल्लाह की मखलुक हैं, हम माबूद नहीं हैं। हमको अल्लाह कि इबादत करने का हक्क है, इबादत किए जाने का हक नहीं है। किसी जिन्नात, इंसान, सूरज, चांद किसी मखलुक को ये हक हासिल नहीं।
ताग़ूत 5 क़िस्में
तमाम तवागीत को इन 5 किस्मों में तकसीम किया जा सकता है। इन अलावा भी ताग़ूत हैं लेकिन ये सबसे ज़्यादा आम हैं।
1. इब्लीस
2. जिसकी अल्लाह रब्बुल आलमीन के अलावा इबादत की जाए, और वो उससे राज़ी हो
3. जो दूसरों को अपनी इबादत की दावत देता हो
4. जो गैब जानने का दावा करता हो
5. अल्लाह की नाज़िल शरियत के अलावा फैसला करने वाला
1. इब्लीस:
तमाम ताग़ूतो का सरदार है। सबसे पहली सरकशी इसी इब्लीस ने की। अल्लाह का हुक्म मानने से इंकार किया।
फिर जब हमने फ़रिश्तों को हुक्म दिया कि आदम के आगे झुक जाओ, तो सब झुक गए मगर इबलीस ने इनकार किया। वो अपनी बड़ाई के घमंड में पड़ गया और नाफ़रमानों में शामिल हो गया। [क़ुरआन 2:34]
और सिर्फ नाफ़रमानी नहीं बल्कि सरकशी की हद पार की, और अल्लाह से मोहलत मांगी, क़यामत वो भी इसलिए नहीं कि माफ़ी मांगेगा बल्कि दूसरों को भी सरकशी पर आमादा करने के लिए।
(अल्लाह ने) फ़रमाया,
"अच्छा, तू यहाँ से नीचे उतर। तुझे हक़ नहीं है कि यहाँ बड़ाई का घमंड करे। निकल जा कि हक़ीक़त में तू उन लोगों में से है जो ख़ुद अपनी रुसवाई चाहते हैं।"
(इब्लीस) बोला, "मुझे उस दिन तक मोहलत दे जबकि ये सब दोबारा उठाए जाएँगे।"
(अल्लाह ने) फ़रमाया, "तुझे मोहलत है।"
(इब्लीस) बोला, "अच्छा तो जिस तरह तूने मुझे गुमराही में डाला है, मैं भी अब तेरी सीधी राह पर इन इनसानों की घात में लगा रहूँगा। आगे और पीछे, दाएँ और बाएँ, हर तरफ़ से इनको घेरूँगा और तू इनमें से ज़्यादातर लोगों को शुक्रगुज़ार न पाएगा।" [क़ुरआन 7:13-17]
यहाँ हमने देखा कि तमाम इन्सानों को सरकशी के लिए उकसाने और अल्लाह की नाफ़रमानी का हुकुम देने में इब्लीस सबसे आगे है, और क़यामत में तमाम इब्लीस की इत्तेबा करने वालों का ठिकाना जहन्नुम होगा जैसा कि अल्लाह ने क़ुरआन में फरमाया, "निकल जा यहाँ से रुसवा किया हुआ और ठुकराया हुआ। यक़ीन रख कि इनमें से जो तेरी पैरवी करेंगे, तुझ समेत इन सबसे जहन्नम को भर दूँगा।" [क़ुरआन 7:18]
और जब क़यामत में इब्लीस की इत्तेबा करने वाले उससे मदद तलब करेंगे तो वो उनसे पल्ला झाड़ लेगा।
और जब फ़ैसला चुका दिया जाएगा तो शैतान कहेगा, "सच तो ये है कि अल्लाह ने जो वादे तुमसे किये थे, वो सब सच्चे थे और मैंने जितने वादे किये, उनमें से कोई भी पूरा न किया। मेरा तुमपर कोई ज़ोर तो था नहीं, मैंने इसके सिवा कुछ नहीं किया कि अपने रास्ते की तरफ़ तुम्हें बुलाया और तुमने मेरी दावत को क़बूल किया। अब मुझे बुरा-भला न कहो, अपने आप ही को मलामत करो, यहाँ न मैं तुम्हारी फ़रियाद सुन सकता हूँ और न तुम मेरी। इससे पहले जो तुमने मुझे ख़ुदाई [ प्रभुता] में साझीदार बना रखा था, मैं उसकी ज़िम्मेदारी से अलग हूँ। ऐसे ज़ालिमों के लिये तो दर्दनाक सज़ा यक़ीनी है।" [क़ुरआन 14:22]
तमाम सरकशो का इमाम इब्लीस, सबसे बड़ा ताग़ूत है।
2. जिसकी अल्लाह के अलावा इबादत की जाए, और वो उससे राज़ी हो:
ताग़ूत होने के लिए शर्त ये है के जिसकी इबादत अल्लाह रबबुल इज़्ज़त के अलावा की जा रही हो उसको इस बात का इल्म हो और वो उससे राज़ी हो। मिसाल के तौर पे- किसी वली या पीर के लिए लोग जानवर ज़िब्ह करते हैं और वो जानता है के लोग उसके लिए जानवर ज़िब्ह करते हैं और इससे वो राज़ी भी है, तो वो ताग़ूत है। चाहे वो जिंदा हो या मर गया हो।
लेकिन मिसाल लें ईसा अलैहिस्सलाम की तो कुछ लोगों ने उनके लिए कुछ इबादत खास कर दीं, लेकिन ईसा अलैहिस्सलाम को उसका इल्म नहीं बल्कि उन्होंने तो तौहीद की दावत दी थी, और कहा था। اِنِّیۡ عَبۡدُ اللّٰہِ। “मैं अल्लाह का बन्दा हूँ। क़ुरआन 19:30, और वो उससे राज़ी भी नहीं, जब दुबारा उनका नजूल होगा और उन्हें इल्म हो जाएगा तब वो सलीब यानी क्रॉस तोड़ देंगे यानी बरात का इज़हार करेंगे। (इब्न ए माजा 4078) यानी किसी की अल्लाह की साथ इबादत की जाए और वो उससे राज़ी ना हो तो वो तागूत के हुकुम में नहीं आएगा।
अब सूरज की इबादत होती है, वो इंकार तो नहीं कर सकता कि मेरी इबादत मत करो, लोग पेड़ों पर धागे बांधते हैं पेड़ रजामंदी तो नहीं बता सकता। तो ऐसे चीज़ें जिनको अल्लाह के साथ इबादत में शरीक किया जाए और उनकी रज़ामंदी जानने की कोई सूरत ना हो वो भी ताग़ूत में दाखिल होंगे। यानी दरख्त, पत्थर, बुत, नदी, सूरज, चांद, जानवर जिस जिस की इबादत की जाती है, सब ताग़ूत में शामिल होंगे।
ताग़ूत - हर वो शख्स या हर वो चीज़ जिसकी अल्लाह रब्बुल आलमीन के अलावा इबादत की जाए, और उसका इल्म उसको हो और वो उससे राज़ी हो, वो ताग़ूत है।
3. जो दूसरों को अपनी इबादत की दावत देता हो:
पीर फ़कीर - कुछ ऐसे लोग हैं जिनको पता है उनके तरफ इबादत के बाज चीज़ें मुक्तख़ब की जाती हैं, जैसे उनसे आकर लोग बोलते हैं - अब आप ही का सहारा है बाबा। आप ही बेड़ा पार लगा सकते हो। उनके कदमों में गिर के सजदा करते हैं, और वो सुन कर भी खुश होता है। कुछ तो गुर्गे पले हुए होते हैं, फ़लां पीर साहब बहुत पहुचें हुए हैं, उनके दर से कोई खाली नहीं लौटता। इस तरह की बातें करते हैं।
ये तमाम ताग़ूत में शामिल हैं।
ताग़ूत वो भी है जिसकी अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के अलावा पैरवी की जाए- कुफ्र में गुमराही में।
वो उलमा जो लोगों को कुफ्र की तरफ बुलाते हैं, शिर्क की दावत देते हैं, वो इसमे दाखिल हैं- कभी फातिहा, कभी तीजा, कभी चालीसवाँ, कभी बरसी। औलिया की इबादत पर लोगों को दावत देते हैं, नेक लोगों की कब्रों को सजदागाह बनाकर लोगों को शिर्क की तरफ बुलाते हैं।
अल्लाह तआला फरमाता:
"इन्होंने अपने उलमा और दरवोशों को अल्लाह के सिवा अपना रब [बना] लिया है।" [क़ुरआन अत-तौबा: 31]
यानी ये जिसको अल्लाह ने हराम किया है उसे हलाल बताते हैं, और लोगों को शिर्क और कुफ्र की तरफ बुलाते है।
और जानते समझते हुए ऐसा करते हैं, क्यूंकि वो जानते हैं के अगर हम ऐसा ना करेंगे तो हमारी जो समाज में कमाई हो रही है, वो छिन जाएगी। वो मुजावर जो मज़ार के बाहर इंतजार करते हैं के कोई आएगा तो हमारी कमाई होगी, अगर मजार के अंदर के लोग किसी को कुछ दे सकने के काबिल होते तो उन मुजावर लोगोँ को किसी और से लेने की ज़रूरत ही ना पड़ती। वो ही सबसे अमीर होते, मजार वाला सबसे पहले उनकी हाजत पूरी कर्ता। इस दुनिया के फ़ायदे के लिए ही मजार दरगाहों पर बैठने वाले फुकहा शिर्क और बिदअत की दावत देते हैं, हराम को हलाल बताते हैं।
हदीस में आता है कि हज़रत अदी-बिन-हातिम ने, जो पहले ईसाई थे, जब नबी (ﷺ) के पास हाज़िर होकर इस्लाम क़बूल किया तो उन्होंने और बहुत-से सवालों के अलावा एक सवाल ये भी किया था कि इस आयत में हमपर अपने उलमा और दरवोशों को ख़ुदा बना लेने का जो इलज़ाम लगाया गया है उसकी असलियत क्या है?
जवाब में नबी (ﷺ) ने फ़रमाया कि क्या ये हक़ीक़त नहीं है कि जो कुछ ये लोग हराम क़रार देते हैं उसे तुम हराम मान लेते हो और जो कुछ ये हलाल क़रार देते हैं उसे हलाल मान लेते हो? उन्होंने कहा कि ये तो ज़रूर हम करते रहे हैं।
नबी (ﷺ) ने कहा कि बस यही उनको ख़ुदा बना लेना है। [जामे तिरमिजी : 3095]
4. जो गैब जानने का दावा करता हो:
इल्म ए गैब- जो इंसान के इल्म से ग़ायब है। अहले इल्म के नज़दीक इसकी दो किस्म है -
i. गैब ए मुतलक़ - वो गैब का इल्म जो अल्लाह के अलावा कोई नहीं जानता, जैसा कि हदीस में ज़िक्र है:
नबी करीम (ﷺ) ने फ़रमाया, ''ग़ैब की पाँच कुंजियाँ हैं जिन्हें अल्लाह के सिवा और कोई नहीं जानता। अल्लाह के सिवा और कोई नहीं जानता कि माँ के पेट में क्या है? अल्लाह के सिवा और कोई नहीं जानता कि कल क्या होगा? अल्लाह के सिवा और कोई नहीं जानता कि बारिश कब आएगी? अल्लाह के सिवा और कोई नहीं जानता कि किस जगह कोई मरेगा और अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता कि क़ियामत कब क़ायम होगी।" [सहीह बुखारी 7379]
ii. गैब ए निस्बी - अल्लाह रब उल आलमीन ने कुछ निशानियाँ मुतईय्यन की हैं, क़ौमी हो या शरइ, उन निशानियों को को पहचान कर इंसान मुस्तकबिल की चंद बातों को बताता है, इसे गैब ए निस्बी कहा जाता है। मिसाल से समझें- कुछ तापमान, हवा का रुख, स्पीड, लो प्रेशर वगैरह नाप करके बताता है 15 दिन बाद इस जगह पर साइक्लोन आने वाला है। इस तरह कुछ निशानियाँ देख कर अंदाजा लगाने को गैब ए निस्बी कहा जाता है। इस तरह सबब और इल्म की बुनियाद पर ख़बर दी जा सकती है। गौरतलब है, के इस में कई दफा ख़बर सही होती है लेकिन कई दफा ख़बर ग़लत भी हो जाती है।
अगर कोई इंसान इस तरह का कोई दावा करे के 15 दिन बाद इस बस्ती में सैलाब आएगा, लेकिन ना उसको इस तरह का कोई साइंस का इल्म हो और ना ही उसने किसी एक्सपर्ट की राय ली हो बल्कि खुद ही ये दावा करे तो ये गैब जानने का दावा हुआ।
गैब ए इज़ाफी- इसी तरह अगर कोई शख्स कहे के मेरा पड़ोसी 5 दिन से बीमार है, क्यूंकि उसके पड़ोसी ने उसे देखा है और वो जानता है के पड़ोसी बीमार है तो ये इल्म की बुनियाद पर बताया, लेकिन अगर कोई इंसान दावा करे के फ्लां आदमी का पड़ोसी 5 दिन से बिमार है, वो उससे ना मिला, ना उसे किसी ने ख़बर दी, तो ये गैब जानने का दावा है, इसे गैब ए इज़ाफी कहा जाता है।
अब ये मिसालें देख कर आप समझ गए होंगे गैब जानने का दावा करना यानी ऐसी चीज़ जिसका इल्म इंसान को नहीं हो सकता लेकिन वो उसे जानने का दावा करे।
नबी करीम (ﷺ) ने फ़रमाया : "जो शख़्स किसी ग़ैब की ख़बरें सुनाने वाले के पास आए और उससे किसी चीज़ के बारे में पूछे तो चालीस रातों तक उस शख़्स की नमाज़ क़बूल नहीं होती।" [सहीह मुस्लिम 2230]
सिर्फ़ जाने और पूछने पर 40 दिन की नमाज़ क़बूल नहीं होगी, और अगर उसकी बात की तस्दीक कर दी तो दायरा ए इस्लाम से ख़ारिज।
नबी करीम (ﷺ) ने फ़रमाया: "जो किसी काहिन (पुजारी) के पास गया (और उससे ग़ैबी मामलात के बारे में कुछ पूछा) और उसकी कही हुई बात को सच मान लिया तो उसने मुहम्मद ﷺ पर नाज़िल की जाने वाली चीज़ के साथ कुफ़्र किया।" [इब्न माजा 639]
अल्लाह ने फरमाया:
"क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें किताब के इल्म में से कुछ हिस्सा दिया गया है और उनका हाल ये है कि जिब्त और ताग़ूत को मानते हैं और [हक़ का] इनकार करनेवालों के बारे में कहते हैं कि ईमान लानेवालों से तो यही ज़्यादा सही रास्ते पर हैं।" [क़ुरआन 4:51]
अरबी लफ़्ज़ जिब्त के असली मानी बेहक़ीक़त, बेअसल और बेफ़ायदा चीज़ के हैं। इस्लाम की ज़बान में जादू, कहानत (ज्योतिष), फ़ालगीरी, टोने-टोटके, शगुन, मुहूर्त और तमाम दूसरे अन्धविश्वास की ख़याली बातों को जिब्त कहा गया है। चुनाँचे हदीस में आया है कि जानवरों की आवाज़ों से फ़ाल लेना, ज़मीन पर जानवरों के क़दमों के निशानों से शगुन निकालना और फ़ालगीरी के दूसरे तरीक़े सब जिब्त की क़िस्म ही के काम हैं। तो जिब्त का मतलब वही है जिसे हम उर्दू-हिन्दी में औहाम या अन्धविश्वास कहते हैं और जिसके लिये अंग्रेज़ी में superstitions का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया जाता है।
आजकल इसमें नए नए काहिन आ गए हैं जो यूट्यूब, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर वीडियो भी वायरल करते हैं, जिसमें वो लोगों के बारे में गैब की बातें बता रहे हैं और लोग उसकी तस्दीक कर रहे हैं, उनमें से कुछ मशहूर नाम बागेश्वर बाबा और शिवानी, और इस तरह के और लोग। ये लोग टीवी पर इस तरह के गैब जानने और बताने का दावा करते हैं और इनके वीडियो तमाम लोग देखते हैं, याद रखें, इस तरह के लोगों की सिर्फ वीडियो देखने से 40 दिन की नमाज़ कुबूल ना होगी, क्यूंकि आप उनकी वीडियो देख कर उनकी वीडियो वायरल करने का हिस्सा बन रहे हैं और अगर आप उनकी बातों को दूसरों तक सच की तस्दीक करते हुए पहुचा दें तो मामला और भी संगीन है।
और मिसालें- जैसे कुंडली मिलाना, वास्तु शास्त्र, टेरो कार्ड देखने वाला, राशिफल, और इस तरह के तमाम लोग काहिन के हुकुम में दाख़िल हैं। यानी वो शख्स भी ताग़ूत जो इल्म ए गैब जानने का दावा करता है।
बिल्ली रास्ता काट गई, अब कुछ बुरा होगा। कव्वा बोल रहा है, मेहमान आने वाले हैं। उल्लु बैठा है, किसी की मौत होगी। खाली कैची चलायी, लडाई होगी। चप्पल उल्टी पडी है, लडाई होगी। ये तमाम बातें गैब जानने के दावे में आयेंगी।
5. अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की नाज़िल शरियत के अलावा फैसला करने वाला:
सबसे पहले इस बात की गहराई को समझें, अल्लाह की नाज़िल शरियत के हिसाब से फैसला करना किसके जिम्मे है?
मुस्लिम हुक्मरान? काफ़िर हुक्मरान? अदालत? पुलिस?
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की नाज़िल शरियत के अलावा फैसला करना फ़र्ज़ लेकिन किस पर? हम ये समझते हैं के सिर्फ हाकिम या सिर्फ़ सरदार के ऊपर लेकिन अल्लाह की नाज़िल शरियत के हिसाब से फैसला करना हर मुसलामान के जिम्मे है। जी हाँ, ये हुक्मरान के लिए तो है ही, लेकिन आपके और हमारे लिए भी है।
अगर हर मुसलामान अल्लाह की नाज़िल करदा शरियत पर अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले करेगा तो दूसरे के पास फैसला करवाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। हर मुसलामान को सुबह से लेकर रात तक अपनी ज़िंदगी का हर फ़ैसला अल्लाह के हुकुम के मुताबिक करना हैं। जहां तक उसकी हद है, उसका इख़्तियार है। और जो कोई अल्लाह की नाज़िल हुकुम के अलावा फ़ैसला लेता है वो ताग़ूत है।
और हर एक से सवाल होगा, उसके फैसलों के बारे में।
उन्होंने रसूलुल्लाह (ﷺ) को ये फ़रमाते सुना तुममें से हर शख़्स एक तरह का हाकिम है और उसकी ज़िम्मेदारी के बारे में उससे सवाल होगा। इसलिये बादशाह हाकिम ही है और उसकी ज़िम्मेदारी के बारे में उससे सवाल होगा। हर इन्सान अपने घर का हाकिम है और उस से उसकी ज़िम्मेदारी के बारे में सवाल होगा। औरत अपने शौहर के घर की हाकिम है और उससे उसकी ज़िम्मेदारी के बारे में सवाल होगा। ख़ादिम अपने मालिक के माल का हाकिम है और उस से उसकी ज़िम्मेदारी के बारे में सवाल होगा। [सहीह बुखारी 2409]
हम समझते हैं के सिर्फ हुक्मरान ही से सवाल होगा। यहां गौर करने वाली बात ये है के हर मुसलामान से ये सवाल के उसने अपनी ज़िंदगी की सुबह से रात तक तमाम फैसले अल्लाह की नाज़िल शरियत पर लिए हैं या नहीं। उसने अपने आप पर शरियत नाफिज़ की या नहीं। उसके बाद अपने घर के अंदर वो तमाम लोग जिनका वो हाकिम है उन पर अल्लाह का कानून नाफिज़ किया या नहीं।
अल्लाह ने फरमाया:
"किसी मोमिन मर्द और किसी मोमिन औरत को ये हक़ नहीं है कि जब अल्लाह और उसका रसूल किसी मामले का फ़ैसला कर दे तो फिर उसे अपने उस मामले में ख़ुद फ़ैसला करने का इख़्तियार मिला रहे और जो कोई अल्लाह और उसके रसूल की नाफ़रमानी करे तो वो खुली गुमराही में पड़ गया।" [क़ुरआन 33:36]
यहां इन्फ्रादी तौर हर एक मर्द और हर एक औरत का ज़िक्र है, के अल्लाह और उसके रसूल ने जो फैसला कर दिया है उसकी नाफ़रमानी करने का हक किसी को नहीं है। यानी हर वो जो शख्स अल्लाह की शरियत के खिलाफ़ फैसला करे वो ताग़ूत है।
ताग़ूत का इंकार
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का फैसला है के हम सिर्फ अल्लाह की इबादत करें और इबादत मे किसी को शरीक न करें, आप (ﷺ) ने फ़रमाया, ''ऐ मुआज़! क्या तुम्हें मालूम है कि अल्लाह तआला का हक़ अपने बन्दों पर क्या है? और बन्दों का हक़ अल्लाह तआला पर क्या है?" मैंने कहा अल्लाह और उसके रसूल ही ज़्यादा जानते हैं। आप (ﷺ) ने फ़रमाया, "अल्लाह का हक़ अपने बन्दों पर ये है कि उसकी इबादत करें और उसके साथ किसी को शरीक न ठहराएँ और बन्दों का हक़ अल्लाह तआला पर ये है कि जो बन्दा अल्लाह के साथ किसी को शरीक न ठहराता हो अल्लाह उसे अज़ाब न दे।" [सहीह बुखारी 2856]
इबादत
हर वो काम जिसे अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त पसंद करता हो, चाहे उसका ताल्लुक़ कौल (जुबान से कहने) से हो या फेल (करने) से, ज़ाहिर (सबके सामने) से हो या बातिन (दिल मे छुपा हुआ) से।
इबादत का तकाज़ा ये है के बंदा अपने तमाम मामलात को अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के हवाले करदे- चाहे अल्लाह किसी काम को करने का हुकुम दिया है या किसी चीज़ को करने से मना किया हो, और ये अकीदत रखे के अल्लाह का हर हुकुम मानना उस पर वाजिब है।
और आदमी की जिन्दगी अल्लाह की शरियत पर क़ायम हो- वो अपने लिए वही चीज़ हलाल करे जो अल्लाह और उसके रसूल ने उसके लिए हलाल किया हो और उन्हीं चीजों को अपने लिए हराम करे जो अल्लाह और उसके रसूल ने उसके लिए हराम किया हो, ख़ुद से हराम हलाल का इख़्तियार अपने हाथ में ना ले ले। और अपनी ज़िंदगी के तमाम मामलात के फ़ैसले अल्लाह के हुकुम से ले।
आज हमारा मामला ये है के जहां हमारा फ़ायदा हो वहाँ अल्लाह के हुकुम से फ़ैसला करते हैं और जहां फ़ायदा नज़र न आए वहाँ छोड़ देते हैं। मिसाल के तौर मीरास में मर्द को औरत से दुगना हिस्सा है तो कोई कहे फायदे के लिए दूसरी शरियत से फ़ैसला करवाएंगे, तो ये अल्लाह के शरियत के खिलाफ़ ताग़ूत की इत्तेबा है। जहां भी इंसान को इख़्तियार है और वो अपनी मर्ज़ी से फ़ैसला कर सकता है, और अल्लाह की शरियत के अलावा किसी दूसरे हुकुम से फ़ैसला करता है वो ताग़ूत की इत्तेबा है।
अल्लाह और उसके रसूल के खिलाफ़ किसी दूसरे की हुकुम मानना उसकी इबादत करना होगा, फिर दूसरा चाहे ख़ुद का नफ़स ही क्यूँ ना हो। मिसाल के तौर पे सर्दी का वक्त है, फ़ज्र की अज़ान हुई, इंसान के नफ्स ने कहा बाद मे उठ के पढ़ लेना, फिर उसने वक्त निकलने के बाद उठ कर नमाज़ पडी, तो फ़ज्र में उसने किसकी बात मानी? अपने नफ्स की। ये ही अपने नफ्स को रब बना लेना हुआ।
"कभी तुमने उस शख़्स के हाल पर ग़ौर किया है जिसने अपने नफ़्स (मन) की ख़ाहिश को अपना ख़ुदा बना लिया हो?" [क़ुरआन 25:43]
"ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! बात मानो अल्लाह की और बात मानो रसूल की और उन लोगों की जो तुममें से हुक्म देने का अधिकार रखते हों। फिर अगर तुम्हारे बीच किसी मामले में झगड़ा हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल की तरफ़ फेर दो। अगर तुम हक़ीक़त में अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते हो। काम करने का यही एक सही तरीक़ा है और अंजाम के लिहाज़ से भी बेहतर है।" [क़ुरआन 4:59]
इस आयत से पता चलता है के इख़्तिलाफ की सूरत में अपने फ़ैसले के लिए अल्लाह की शरियत की तरफ पलटना है और जो कोई ऐसा नहीं करता वो हक़ीक़त में ईमान रखने वाला नहीं है।
ये सीरीज़ यहाँ से ख़त्म होती है।अल्लाह रब्बुल अलामीन हमें सही समझने-समझाने, कहने सुनने और लिखने पढ़ने से ज़्यादा अमल की तौफीक अता करे।
अमीन या रब्बुल अलामीन
जज़ाक अल्लाह खैर
- मुवाहिद
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