ताग़ूत का इनकार [पार्ट-1]
(यानि कुफ्र बित-तागूत)
ताग़ूत क्या है?
अल्लाह अकेले पर ईमान लाना:
हमने हर उम्मत (समुदाय) में एक रसूल भेज दिया और उसके ज़रिए से सबको ख़बरदार कर दिया कि “अल्लाह की बन्दगी करो और ताग़ूत (बढ़े हुए सरकश) की बन्दगी से बचो। इसके बाद इनमें से किसी को अल्लाह ने सीधा रास्ता दिखाया और किसी पर गुमराही छा गई। फिर ज़रा ज़मीन में चल-फिरकर देख लो कि झुठलानेवालों का क्या अंजाम हो चुका है।" [कुरआन 16: 36]
कलिमा:
और कलिमा "ला इलाहा इल्लल्लाह" में ही सारे तवाग़ीत (यानि तागूत की जमा) का इनकार है। हम कलिमे में कहते हैं "ला इलाहा" (जिसका मतलब है कि कोई हकीकी माबूद नहीं। यहां "माबूद" से मुराद वह हस्ती है जिसकी इबादत की जाए, यानी जिसकी बंदगी, परस्तिश (पूजा), और इताअत (आज्ञा पालन) की जाए। जब हम कहते हैं "ला इलाहा इल्लल्लाह" (अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं), तो इसका मतलब है कि हम सिर्फ़ अल्लाह को ही इबादत के लायक़ मानते हैं और उसके सिवा किसी और को माबूद नहीं मानते। यहाँ माबूद से मुराद तवाग़ीत है, इस जुमले में सारे तवागीत का इनकार है और फिर हम कहते हैं "इल्लल्लाह" (सिवाए अल्लाह के)।
"ला इलाहा इल्लल्लाह" दो हिस्सों में तकसीम है:
- "ला इलाहा" = सारे माबूदों (तवाग़ीत) का इनकार करना।
- "इल्लल्लाह" = एक अल्लाह पर ईमान लाना।
अब मसला (परेशानी/मुश्किल) यह है कि हर कोई लोगों को यह सिखा रहा है कि अल्लाह पर ईमान लाओ। लेकिन यह नहीं सिखा रहे कि तागूत का इनकार करो।
मुसलमान बनने के लिए पहले हमें तागूत का इनकार करके फिर अल्लाह पर ईमान लाना होगा। और मुसलमान बनने का तरीका भी यही है। आप सिर्फ अल्लाह पर ईमान लाने से मुसलमान नहीं कहलाते। अल्लाह पर ईमान लाने से पहले तागूत का इनकार करना होगा। अल्लाह ने भी यही कहा है:
"दीन के मामले में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है। सही बात ग़लत ख़यालात से अलग छाँटकर रख दी गई है। अब जो कोई ताग़ूत का इनकार करके अल्लाह पर ईमान ले आया, उसने एक ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटनेवाला नहीं और अल्लाह [ जिसका सहारा उसने लिया है] सब कुछ सुननेवाला और जाननेवाला है।" [कुरआन 2: 256]
- मुवाहिद
पार्ट-2 |
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