ताग़ूत का इनकार [पार्ट-31]
(यानि कुफ्र बित-तागूत)
ताग़ूत से हमारा रिश्ता क्या होना चाहिए?
इस्लाम में तौहीद (अल्लाह की एकता) की सबसे बुनियादी तालीमात में से एक यह है कि इंसान सिर्फ अल्लाह की इबादत करे और ताग़ूत का इंकार करे। ताग़ूत से हमारा रिश्ता नफ़रत, दुश्मनी, और उससे दूरी का होना चाहिए। कुरान और हदीस में इसे साफ तौर पर बताया गया है कि एक सच्चे मोमिन का सबसे पहला और अहम फ़र्ज़ है कि वह ताग़ूत को नकारे और उससे जुदा होकर अपनी ज़िंदगी को अल्लाह की मर्जी के मुताबिक ढाले।
ताग़ूत हर वो चीज़ या शख़्स है जो इंसान को अल्लाह की इबादत और उसके हुक्म से दूर कर दे। यह शैतान हो सकता है, इंसानी ख्वाहिशात हो सकती हैं, कोई तानाशाह या ज़ालिम हुकूमत हो सकती है, या कोई गलत विचारधारा जैसे एथिज़्म, लिब्रलिज़्म, नेशनलिज़्म आदि हो सकती है। हर वह चीज़ जो इंसान को अल्लाह की इबादत से रोक दे या उसके खिलाफ खड़ा कर दे, उसे ताग़ूत कहा जाता है।
ताग़ूत से दूरी का हुक्म
कुरआन ताग़ूत के इंकार को एक मोमिन का सबसे अहम फ़र्ज़ बताता है। अल्लाह ने कुरआन में बार-बार मोमिनों को ताग़ूत से दूर रहने का हुक्म दिया है:
"हमने हर उम्मत (समुदाय) में एक रसूल भेज दिया और उसके ज़रिए से सबको ख़बरदार कर दिया कि अल्लाह की बन्दगी करो और ताग़ूत (बढ़े हुए सरकश) की बन्दगी से बचो।" [कुरआन 16:36]
इस आयत में अल्लाह साफ तौर पर बता रहा है कि सच्चे मोमिन वही हैं जो ताग़ूत का इंकार करते हैं। इंकार का मतलब है न सिर्फ ताग़ूत को छोड़ना, बल्कि उससे नफ़रत और दुश्मनी रखना। मोमिन का रिश्ता ताग़ूत से बिल्कुल साफ होना चाहिए—वह ताग़ूत को मानता नहीं, बल्कि उसके खिलाफ खड़ा होता है।
"ऐ नबी! तुमने देखा नहीं उन लोगों को जो दावा तो करते हैं कि हम ईमान लाए हैं उस किताब पर जो तुम्हारी तरफ़ उतारी गई है और उन किताबों पर जो तुमसे पहले उतारी गई थीं। मगर चाहते ये हैं कि अपने मामलों का फ़ैसला कराने के लिये ताग़ूत की तरफ़ जाएँ, हालाँकि उन्हें ताग़ूत से इनकार करने का हुक्म दिया गया था – शैतान उन्हें भटकाकर सीधे रास्ते से बहुत दूर ले जाना चाहता है।" [कुरआन 4:60]
यह आयत इस बात की तस्दीक करती है कि अल्लाह और उसके रसूल की इबादत करने के लिए सबसे पहले ताग़ूत को छोड़ना जरूरी है। जो लोग ताग़ूत की परस्तिश करते हैं, उनसे बचना और उनसे जुदा रहना मोमिनों के लिए जरूरी है।
ताग़ूत से हमारा रिश्ता – इंकार, नफ़रत, और दुश्मनी
ताग़ूत से हमारा रिश्ता न सिर्फ इंकार का होना चाहिए, बल्कि हमें ताग़ूत से नफ़रत और दुश्मनी का भी इज़हार करना चाहिए। इसका मतलब यह है कि हमें न सिर्फ ताग़ूत की बातों को ठुकराना है, बल्कि उसके खिलाफ खड़े होकर अल्लाह की राह पर चलना है।
नफ़रत और दुश्मनी: जब ताग़ूत इंसान को अल्लाह की राह से रोकता है, तो मोमिन का फ़र्ज़ बनता है कि वह उसके खिलाफ खड़ा हो और उससे नफ़रत करे। अल्लाह कुरआन में कहता है:
"ऐ मोमिनों, हक़ीक़त में शैतान तुम्हारा दुश्मन है, इसलिये तुम भी उसे अपना दुश्मन ही समझो। वो तो अपनी पैरवी करनेवालों को अपनी राह पर इसलिये बुला रहा है कि वो जहन्नमवालों में शामिल हो जाएँ।" [कुरआन 35:6]
चूंकि ताग़ूत इंसान को अल्लाह से दूर ले जाता है, इसलिए मोमिन का यह फ़र्ज़ है कि वह ताग़ूत को अपना दुश्मन समझे और उसके खिलाफ अपनी दुश्मनी का इज़हार करे।
ताग़ूत से इंकार: ताग़ूत का इंकार सिर्फ एक जुबानी बात नहीं है, बल्कि यह एक अमली काम भी है। इसका मतलब यह है कि हम ताग़ूत की हर बात को ठुकराएं और उससे जुदा होकर अपनी जिंदगी को अल्लाह के मुताबिक ढालें। जो शख्स ताग़ूत का इंकार करता है, वह अल्लाह की राह पर मजबूती से खड़ा होता है।
"जो ताग़ूत का इंकार करे और अल्लाह पर ईमान लाए, उसने सबसे मजबूत सहारे को पकड़ लिया है।" [कुरआन 2:256]
ताग़ूत से इंकार के फायदे
1. अल्लाह की रहमत:
जो लोग ताग़ूत का इंकार करते हैं, वे अल्लाह की रहमत के हक़दार बनते हैं। अल्लाह उनकी मदद करता है और उन्हें अपनी हिफ़ाज़त में ले लेता है।
2. तौहीद की हिफ़ाज़त:
ताग़ूत का इंकार करना तौहीद की हिफ़ाज़त है। जब हम ताग़ूत का इंकार करते हैं, तो हम अपनी तौहीद को मजबूत करते हैं और अल्लाह की इबादत में ज्यादा पुख्ता हो जाते हैं।
3. आख़िरत में कामयाबी:
ताग़ूत से दूरी बनाना और अल्लाह की इबादत पर कायम रहना आख़िरत में कामयाबी का जरिया बनता है। जो लोग ताग़ूत के खिलाफ खड़े होते हैं, वे जन्नत के हक़दार बनते हैं।
नतीजा:
ताग़ूत से हमारा रिश्ता साफ़ होना चाहिए - इंकार, नफ़रत, और दुश्मनी का। यह हमारा फ़र्ज़ है कि हम ताग़ूत का इंकार करें, उससे नफ़रत करें, और उसकी हर सूरत से जुदा रहें।
- मुवाहिद
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