ताग़ूत का इनकार [पार्ट-14]
(यानि कुफ्र बित-तागूत)
Patriotism (वतनपरस्ती) – आज के दौर का ताग़ूत कैसे है?
इस्लाम के मुताबिक़, "ताग़ूत" वो हर चीज़ है जो अल्लाह के इलाह होने का इंकार करके इंसान को अपनी हुकूमत या फ़िक्र का ग़ुलाम बना लेती है। ताग़ूत सिर्फ़ बुत-परस्ती तक महदूद नहीं, बल्कि हर वो सिस्टम, सोच, या शख्स जो इंसान को अल्लाह की दी हुई हिदायत से दूर करने का ज़रिया बने, ताग़ूत की कैटेगरी में आता है।
वतनपरस्ती (Patriotism) एक विचारधारा है जो इंसान को उसकी मातृभूमि (वतन) से बेइंतहा मोहब्बत करने और उसकी खातिर सब कुछ कुर्बान करने का आह्वान करती है। आधुनिक काल में वतनपरस्ती एक बड़ी ताकत बन गई है, और बहुत से लोग अपने देश, संस्कृति, और सरहद की रक्षा के लिए उसे सबसे ऊपर मानते हैं। जबकि इस्लाम में अल्लाह की तौहीद (एकता) को सबसे ऊंचा माना जाता है और वतन की मोहब्बत या किसी ज़मीन की हदबंदी को धार्मिक आधार नहीं बनाया गया है। वतन से मुहब्बत फ़ितरी चीज़ है, इंसान जहां रहता है बसता है, जहां उसके घर परिवार होता है, उस जगह से उसे मुहब्बत होती है, मगर वतन की मुहब्बत को जब अल्लाह के हुकुम के ऊपर रखा जाए या वतन की मोहब्बत इंसान को अल्लाह के हुक्म से दूर कर दे, तो यह ताग़ूत बन जाता है।
जहां इंसान रहता है, उसका परिवार होता है उसको उस जगह मोहब्बत तो फितरी तौर रहती है। यही मोहब्बत नबी करीम (सल्ल०) को अपने शहर मक्का से भी थी।
अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने मक्का को ख़िताब करते हुए फ़रमाया: "कितना पाकीज़ा शहर है तू और तू कितना मुझे महबूब है! मेरी क़ौम ने मुझे तुझसे न निकाला होता तो मैं तेरे अलावा कहीं और न रहता।" [सुनन तिरमिज़ी : 3926]
कुछ लोग वतन की मोहब्बत में इस हद तक आगे बढ़ जाते हैं कि वे इसे दीन और ईमान का हिस्सा बना लेते हैं। ऐसे लोगों की तरफ से अक्सर एक एक हदीस पेश की जाती है जिसमें कहा गया कि:
"वतन की मोहब्बत ईमान का हिस्सा है।"
लेकिन इस हदीस का इस्लाम की प्रामाणिक हदीसों में कोई आधार नहीं है। इसे सही हदीस समझना एक गंभीर गलती है। बल्कि ये मनगढ़ंत बात है।
इस्लाम में किसी भी प्रकार की असब्बियत (tribalism), नस्ल पर गर्व, या सरहद के आधार पर फर्क करना मना है। नबी करीम (ﷺ) ने स्पष्ट रूप से असब्बियत के खिलाफ फरमाया है।
वतनपरस्ती, जब अल्लाह की तौहीद से ऊपर रखी जाती है या इसे शरीअत के मुकाबले में ज्यादा अहमियत दी जाती है, तो यह ताग़ूत बन जाती है।
वतनपरस्ती का मतलब और इस्लामी नजरिया
1. वतनपरस्ती की परिभाषा:
वतनपरस्ती का मतलब है अपने देश (वतन) से इतनी मोहब्बत करना कि इंसान उसे अपनी पहचान और जिंदगी का मकसद बना ले। इसमें यह विचार होता है कि इंसान को अपने देश और उसकी सीमाओं की हिफाज़त और तरक्की के लिए हर कीमत चुकानी चाहिए, चाहे वह धर्म, आस्था, या न्याय के खिलाफ ही क्यों न हो।
2. इस्लामी नजरिया:
इस्लाम में इंसान का सबसे पहला और आखिरी फर्ज़ अल्लाह की इबादत करना और उसकी तौहीद को मानना है। इंसान की पहचान उसकी तौहीद और उसके अमल से होती है, न कि उसकी नस्ल, जाति, या वतन से। अल्लाह ने कुरआन में फरमाया:
"ऐ लोगों! हमने तुमको एक मर्द और औरत से पैदा किया और तुम्हें जातियों और क़बीलों में बांट दिया ताकि तुम एक-दूसरे को पहचान सको। अल्लाह के नज़दीक सबसे ज़्यादा इज़्ज़त वाला वही है जो सबसे ज़्यादा परहेज़गार है।" [सूरह अल-हुजरात, 49:13]
यह आयत स्पष्ट करती है कि इस्लाम में इंसान की इज़्ज़त और पहचान उसकी तौहीद और परहेज़गारी से होती है, न कि उसकी ज़मीन या नस्ल से।
वतनपरस्ती क्यों ताग़ूत है?
1. असब्बियत (Tribalism) का पुनरुत्थान:
वतनपरस्ती उसी असब्बियत (tribalism) की एक आधुनिक शक्ल है, जिसे नबी करीम (ﷺ) ने इस्लाम से निकाल फेंकने की कोशिश की थी। असब्बियत का मतलब है जाति, क़बीला, या नस्ल के आधार पर दूसरों से खुद को बेहतर मानना और उसके लिए लड़ना। इस्लाम ने इस विचारधारा को खत्म कर दिया था, लेकिन आज वतनपरस्ती ने उसी विचारधारा को वापस ला दिया है।
नबी करीम (ﷺ) ने फरमाया: "जो असब्बियत (tribalism, nationalism) के लिए लड़ता है या उसके ऊपर गर्व करता है, वह हमसे नहीं।"[अबू दाऊद, हदीस 5121]
यह हदीस साफ तौर पर बताती है कि जो इंसान किसी जाति, क़बीले या वतन के लिए लड़ता है या उस पर गर्व करता है, वह इस्लामी विचारधारा से दूर हो जाता है।
2. अल्लाह के कानून की अवहेलना:
जब वतनपरस्ती का पैमाना इंसान के लिए उसकी शरई जिम्मेदारियों से ज्यादा हो जाता है, तब यह ताग़ूत बन जाती है। इस्लाम में हर इंसान पर फ़र्ज़ है कि वह सबसे पहले अल्लाह के कानून को माने, और अगर किसी स्थिति में वतन की मोहब्बत अल्लाह के कानून से ऊपर मानी जाए, तो यह शिर्क का रूप ले लेती है। कुरआन कहता है: मफहूम:
"और जो लोग अल्लाह के अलावा किसी और को हाकिम मानते हैं, वह ताग़ूत की इबादत कर रहे हैं।"[सूरह निसा, 4:60]
वतनपरस्ती एक ऐसी स्थिति पैदा कर देती है जहां इंसान अल्लाह के कानून से ज्यादा वतन और उसकी नीतियों को मानने लगता है। यह तौहीद के खिलाफ जाकर ताग़ूत की इबादत बन जाती है।
3. शहादत और जिहाद का मकसद बदलना:
इस्लाम में शहादत (martyrdom) और जिहाद का मकसद अल्लाह की राह में लड़ना और उसकी तौहीद की बुलंदी के लिए जान कुर्बान करना है। लेकिन वतनपरस्ती में इंसान वतन के लिए लड़ता है, चाहे वह लड़ाई किसी भी नैतिकता या धर्म के खिलाफ हो। अगर कोई इंसान वतन की खातिर जिहाद करता है और उसके लिए अपनी जान देता है, तो उसका मकसद अल्लाह की तौहीद नहीं बल्कि वतन की इबादत हो जाती है, जो कि ताग़ूत की इबादत है।
एक सहाबी (लाहिक़-बिन-ज़मीरा) नबी करीम (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और कहा कि एक शख़्स जंग में शिरकत करता है, ग़नीमत हासिल करने के लिये एक शख़्स जंग में शिरकत करता है नामवरी के लिये एक शख़्स जंग में शिरकत करता है ताकि उसकी बहादुरी की धाक बैठ जाए तो उन में से अल्लाह के रास्ते में कौन लड़ता है?
आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, जो शख़्स इस इरादे से जंग में शरीक होता है कि अल्लाह ही का कलिमा बुलन्द रहे सिर्फ़ वही अल्लाह के रास्ते में लड़ता है। [सहीह बुखारी, हदीस 2810]
अगर कोई इंसान वतन या राष्ट्र के लिए लड़ता है और उसके कानून को शरीअत से ऊपर मानता है, तो वह इस्लामी जिहाद के मकसद से हटकर ताग़ूत की इबादत कर रहा है।
वतनपरस्ती के खतरनाक असरात:
1. असब्बियत और जातिवाद:
वतनपरस्ती समाज में असब्बियत और जातिवाद को बढ़ावा देती है, जिसमें लोग एक-दूसरे के खिलाफ सिर्फ इस आधार पर नफरत करते हैं कि उनका वतन या सरहद अलग है। इस्लाम इंसानों को जोड़ने के लिए आया है, न कि उन्हें ज़मीन के आधार पर बांटने के लिए।
2. अल्लाह की तौहीद से दूर:
जब इंसान अपनी पहचान और जिंदगी का मकसद वतन की मोहब्बत को बना लेता है, तो वह अल्लाह की तौहीद से दूर हो जाता है। अल्लाह ने साफ फरमाया कि सबसे ऊंची पहचान उसकी इबादत और तौहीद की है, न कि किसी सरहद की।
3. दुनियावी फित्ना और फसाद:
वतनपरस्ती के नाम पर दुनियाभर में युद्ध, फसाद और कत्लेआम होते हैं। लोग अपने वतन की सीमाओं और हुकूमतों के लिए एक-दूसरे से लड़ते हैं और धर्म, आस्था, और इंसानियत को भूल जाते हैं। इस्लाम ने ऐसे फसाद से मना किया है:
"और अगर ईमानवालों में से दो गरोह आपस में लड़ जाएँ तो उनके दरम्यान सुलह कराओ। फिर अगर उनमें से एक गरोह दूसरे गरोह से ज़्यादती करे तो ज़्यादती करनेवाले से लड़ो यहाँ तक कि वो अल्लाह के हुक्म की तरफ़ पलट आए। फिर अगर वो पलट आए तो उनके दरम्यान अद्ल के साथ सुलह करा दो।और इन्साफ़ करो कि अल्लाह इन्साफ़ करनेवालों को पसन्द करता है।" [कुरआन 49:9]
वतनपरस्ती का इस्लामी हल (समाधान):
इस्लाम में इंसान की असल पहचान उसकी तौहीद और अल्लाह की इबादत से है, न कि उसकी जाति, नस्ल या वतन से। इस्लाम ने इंसानों को एक ऊंचे मकसद के लिए जोड़ा है, और वह मकसद अल्लाह की इबादत और उसकी तौहीद को सबसे ऊंचा रखना है। कुरआन में अल्लाह ने फरमाया:
"और मैंने जिन्न और इंसानों को सिर्फ इसलिए पैदा किया कि वे मेरी इबादत करें।" [कुरआन 51:56]
इंसान को चाहिए कि वह अपने वतन की मोहब्बत को अपनी आस्था और तौहीद से ऊपर न रखे और हर हाल में अल्लाह के कानून को सबसे ऊपर माने।
वतनपरस्ती आज के दौर का ताग़ूत है क्योंकि यह इंसान को अल्लाह की तौहीद और उसके कानून से हटाकर वतन की इबादत की ओर ले जाता है। जब इंसान अपनी पहचान, मकसद और लड़ाई को वतन की मोहब्बत से जोड़ लेता है और शरीअत के बजाए वतन के कानूनों की पैरवी करने लगता है तो यह ताग़ूत बन जाता है।
- मुवाहिद
1 टिप्पणियाँ
माशा अल्लाह: बेहतरीन पोस्ट.
जवाब देंहटाएंकृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।