Tagut ka inkar (yaani kufr bit-tagut) part-13

Tagut ka inkar (yaani kufr bit-tagut)


ताग़ूत का इनकार [पार्ट-13]

(यानि कुफ्र बित-तागूत)


नेशनलिज़्म (Nationalism) आज के दौर का ताग़ूत कैसे है?

इस्लामी नज़रिए से ताग़ूत हर उस चीज़ को कहते हैं जो अल्लाह की इबादत और हुकूमत से हटाकर इंसान को किसी और कानून या ताकत की इबादत या मानने पर मजबूर करे। नेशनलिज्म (Nationalism) भी ताग़ूत की एक शक्ल है, क्योंकि यह इंसानों को अल्लाह के बनाए हुदूद और उसके कानून से दूर करके एक नए झूठे खुदा की तरह पेश करता है, जिसे वतन या मुल्क के नाम से जाना जाता है।


Nationalism का मतलब और इसका असर

नेशनलिज्म या क़ौमियत का मतलब है कि इंसान को उसकी ज़मीन, इलाक़े या वतन के नाम पर बाँटना और फिर उस बँटवारे पर फ़ख़्र करना। ये सोच इंसान को उसकी असल पहचान, जो कि एक मुस्लिम और अल्लाह का बंदा होना है, से दूर करती है। जब इंसान वतन, जात या मुल्क के नाम पर लड़ाई करता है, तो वो अपनी वफादारी और मोहब्बत अल्लाह के बजाए वतन और मुल्क से जोड़ लेता है। इसे इस्लाम में ‘अस्बियत’ कहा गया है, जिसे नबी मुहम्मद (ﷺ) ने सख्ती से मना किया।

नबी (ﷺ) ने फरमाया: "जिसने अस्बियत (क़ौमियत, नस्ल, या क़बीले की मोहब्बत) की दावत दी वो हममें से नहीं। जिसने अस्बियत (दुश्मनी) पर लड़ाई की वो हममें से नहीं और जो अस्बियत (दुश्मनी) पर मरा वो हममें से नहीं।"[अबू दाऊद : 5121]


राष्ट्रवाद (Nationalism) और ताग़ूत का ताल्लुक़:

1. अल्लाह के कानून से हटकर इंसानी कानून को मानना:

नेशनलिज्म की सोच में मुल्क और उसकी हदों को सबसे अहम माना जाता है। लोग मुल्क और उसके बनाए कानूनों को अल्लाह के शरीअत से ऊपर रख देते हैं। ये सोच अल्लाह के कानून को दरकिनार करके इंसान को एक नये ताग़ूत की इबादत की तरफ़ ले जाती है।


2. मुल्क के लिए जान देने का जज़्बा:

नेशनलिज्म लोगों को इस बात की तरफ़ ले जाता है कि वो मुल्क के लिए जान दें, जबकि इस्लाम में सिर्फ़ अल्लाह के रास्ते में जिहाद करने का हुक्म है। वतन या मुल्क के नाम पर लड़ाई करना, और उसकी इज्ज़त के लिए लड़ना अल्लाह के साथ किसी और को शरीक करने जैसा है, क्योंकि यह मोहब्बत और वफादारी का हक़ अल्लाह से छीना जा रहा है।

"जिन लोगों ने ईमान का रास्ता अपनाया है वो अल्लाह की राह में लड़ते हैं और जिन्होंने इनकार  [कुफ़्र] का रास्ता अपनाया है वो ताग़ूत की राह में लड़ते हैं। तो शैतान के साथियों से लड़ो और यक़ीन जानो कि शैतान की चालें हक़ीक़त में बहुत ही कमज़ोर हैं।" [कुरआन 4:76]

ये अल्लाह का दो टूक फ़ैसला है। अल्लाह की राह में इस मक़सद के लिये लड़ना कि ज़मीन पर अल्लाह का दीन क़ायम हो, ये ईमानवालों का काम है और जो वाक़ई ईमानवाला है वो इस काम से कभी न रुकेगा और ताग़ूत की राह में इस मक़सद के लिये लड़ना कि ख़ुदा की ज़मीन पर ख़ुदा के बाग़ियों का राज हो, ये कुफ़्र करनेवालों का काम है और कोई ईमान रखनेवाला आदमी ये काम नहीं कर सकता।


नेशनलिज्म के ख़तरनाक असरात:

1. उम्मत में बँटवारा:

नेशनलिज्म मुसलमानों को उनकी असल पहचान से हटाकर अलग-अलग मुल्कों, जातों, और इलाकों में बाँटता है। इससे उम्मत का बिखराव होता है, जबकि इस्लाम एक ही उम्मत पर ज़ोर देता है, चाहे इंसान किसी भी मुल्क या नस्ल से ताल्लुक़ रखता हो।


2. शरीअत के खिलाफ़ कानूनों का पालन:

नेशनलिज्म के तहत बने हुए मुल्कों में अक्सर ऐसे कानून बनाए जाते हैं जो इस्लामी शरीअत से मेल नहीं खाते। इस्लाम में अल्लाह का कानून ही सर्वोपरि है, लेकिन नेशनलिज्म के तहत मुल्क के कानूनों को प्राथमिकता दी जाती है। ये ताग़ूत की सबसे बड़ी निशानी है, क्योंकि इसमें अल्लाह की हुकूमत को नजरअंदाज कर दिया जाता है।


राष्ट्रवाद (Nationalism) से तौबा और इस्लामी पहचान:

कुरआन और हदीस में इंसान की असल पहचान उसके ईमान और तक़वा से जुड़ी होती है, न कि उसकी ज़मीन या मुल्क से। अल्लाह ने कुरआन में फरमाया:

"मोमिन तो एक-दूसरे के भाई हैं, इसलिये अपने भाइयों के बीच ताल्लुक़ात को ठीक करो और अल्लाह से डरो, उम्मीद है कि तुम पर रहम किया जाएगा।" [अल-क़ुरआन 49:10]

इस आयत में अल्लाह ने साफ़ तौर पर फ़रमाया कि मुसलमानों की असल पहचान उनके ईमान और भाईचारे में है, न कि मुल्क या नस्ल में। नेशनलिज्म इस पहचान को मिटा देता है और इंसानों को जंगी सरहदों और नक्शों के हिसाब से बांटता है, जो इस्लाम की असल रूह के खिलाफ़ है।

"लोगो, हमने तुमको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया और फिर तुम्हारी क़ौमें और ब्रादरियाँ बना दीं ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। हक़ीक़त में अल्लाह के नज़दीक तुममें सबसे ज़्यादा इज़्ज़त वाला वो है जो तुम्हारे अन्दर सबसे ज़्यादा परहेज़गार है। यक़ीनन अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और बाख़बर है।" [अल-क़ुरआन 49:13]

तफसीर : इस आयत में पूरी इन्सानी नस्ल को ख़िताब करके उस अज़ीम गुमराही की इस्लाह की गई है जो दुनिया में हमेशा आलमगीर फ़साद की वजह बन रही है, यानी नस्ल, रंग, ज़बान, वतन और क़ौमियत का तास्सुब क़दीम तरीन ज़माने से आज तक हर दौर में इन्सान आम तौर से इन्सानियत को नज़र-अन्दाज़ करके अपने आसपास कुछ छोटे-छोटे दायरे खींचता रहा है जिनके अन्दर पैदा होनेवालों को उसने अपना और बाहर पैदा होनेवालों को ग़ैर क़रार दिया है। ये दायरे किसी अक़ली और अख़लाक़ी बुनियाद पर नहीं बल्कि इत्तिफ़ाक़ी पैदाइश की बुनियाद पर खींचे गए हैं। कहीं इनकी बिना एक ख़ानदान, क़बीले या नस्ल में पैदा होना है और कहीं एक भौगोलिक भाग में या एक ख़ास रंग वाली या एक ख़ास ज़बान बोलनेवाली क़ौम में पैदा हो जाना। फिर इन बुनियादों पर अपने और ग़ैर की जो तमीज़ क़ायम की गई है वो सिर्फ़ इस हद तक महदूद नहीं रही है कि जिन्हें इस लिहाज़ से अपना क़रार दिया गया हो कि उनके साथ ग़ैरों के मुक़ाबले ज़्यादा मुहब्बत और ज़्यादा तआवुन हो, बल्कि इस तमीज़ ने नफ़रत, दुश्मनी, अपमान व बेइज़्ज़ती और ज़ुल्मो-सितम की बदतरीन शक्लें इख़्तियार की हैं। इसके लिये फ़लसफ़े घड़े गए हैं। मज़हब बनाए गए हैं। क़ानून बनाए गए हैं। अख़लाक़ी उसूल तैयार किये गए हैं। क़ौमों और सल्तनतों ने इसको अपना मुस्तक़िल मसलक बनाकर सदियों इस पर अमल किया है। यहूदियों ने इसी बिनापर बनी-इसरईल को ख़ुदा की बहुत ही ख़ास मख़लूक़ ठहराया और अपने मज़हबी हुक्मों तक में ग़ैर-इसराईलियों के हक़ और मर्तबे को इसराईलियों से कमतर रखा। हिन्दुओं के यहाँ वर्ण आश्रम को उस भेदभाव ने जन्म दिया जिसके मुताबिक़ ब्रह्मणों की बरतरी क़ायम की गई। ऊँची ज़ात वालों के मुक़ाबले में तमाम नीच और नापाक ठहराए गए, और शूद्रों को इन्तिहाई ज़िल्लत के गढ़े में फेंक दिया गया। काले और गोरे के भेदभाव ने अफ़्रीक़ा और अमरीका में काले लोगों पर जो ज़ुल्म ढाए उनको तारीख़ के पन्नों में तलाश करने की ज़रूरत नहीं, आज इस बीसवीं सदी ही में हर शख़्स अपनी आँखों से उन्हें देख सकता है। यूरोप के लोगों ने अमरीका महाद्वीप में घुसकर रेड इंडियंन नस्ल के साथ जो सुलूक किया और एशिया और अफ़्रीक़ा की कमज़ोर क़ौमों पर अपना तसल्लुत क़ायम करके जो बर्ताव उनके साथ किया उसकी तह में भी ये तसव्वुर काम कर रहा है कि अपने वतन और अपनी क़ौम की हदों से बाहर पैदा होनेवालों की जान, माल और आबरू उनपर हलाल है और उन्हें हक़ पहुँचता है कि उनको लूटें, ग़ुलाम बनाएँ, और ज़रूरत पड़े तो दुनिया से मिटा दें। मग़रिबी क़ौमों की क़ौम-परस्ती ने एक क़ौम को दूसरी क़ौमों के मुक़ाबले जिस तरह दरिन्दा बनाकर रख दिया है उसकी बदतरीन मिसालें क़रीब के ज़माने की लड़ाइयों में देखी जा चुकी हैं और आज देखी जा रही हैं। ख़ास तौर से नाज़ी जर्मनी का फ़लसफ़ा नस्लीयत और नार्डिक नस्ल की बरतरी का तसव्वुर पिछली जंगे-अज़ीम (World War) में जो करिश्मे दिखा चुका है उन्हें निगाह में रखा जाए तो आदमी बहुत आसानी के साथ से अन्दाज़ा कर सकता है कि वो कितनी अज़ीम और तबाहकुन गुमराही है जिसकी इस्लाह के लिये क़ुरआन मजीद की ये आयत नाज़िल हुई है। इस छोटी सी आयत में अल्लाह ने तमाम इन्सानों को ख़िताब करते हुए तीन बहुत ही अहम् उसूली हक़ीक़तें बयान की हैं:

1. एक ये कि तुम सबकी असल एक है, एक ही मर्द और एक ही औरत से तुम्हारी पूरी नस्ल वुजूद में आई है, और आज तुम्हारी जितनी नस्लें भी दुनिया में पाई जाती हैं वो हक़ीक़त में एक शुरूआती नस्ल की शाख़ें हैं जो एक माँ और एक बाप से शुरू हुई थी। पैदाइश के इस सिलसिले में किसी जगह भी उस भेदभाव और ऊँच-नीच के लिये कोई बुनियाद मौजूद नहीं है जिसके झूटे ज़ोम में मुब्तला हो। एक ही ख़ुदा तुम्हारा पैदा करनेवाला है, ऐसा नहीं है कि मुख़्तलिफ़ इन्सानों को मुख़्तलिफ़ ख़ुदाओं ने पैदा किया हो। पैदाइश के एक ही माद्दे (matter) से तुम बने हो, ऐसा भी नहीं है कि कुछ इन्सान किसी पाक या बढ़िया माद्दे से बने हों और कुछ दूसरे इन्सान किसी नापाक या घटिया माद्दे से बन गए हों। एक ही तरीक़े से तुम पैदा हुए हो, ये भी नहीं है कि अलग-अलग इन्सानों के पैदाइश के तरीक़े अलग-अलग हों। और एक ही माँ-बाप की तुम औलाद हो, ये भी नहीं हुआ है कि शुरूआती इन्सानी जोड़े बहुत-से रहे हों जिनसे दुनिया के अलग-अलग हिस्सों की आबादियाँ अलग-अलग पैदा हुई हों। 

2. दूसरे ये कि अपनी असल के ऐतिबार से एक होने के बावजूद तुम्हारा क़ौमों और क़बीलों में तक़सीम हो जाना एक फ़ितरी बात थी। ज़ाहिर है कि पूरी ज़मीन पर सारे इन्सानों का एक ही ख़ानदान तो नहीं हो सकता था। नस्ल बढ़ने के साथ ज़रूरी था कि बेशुमार ख़ानदान बनें, और ख़ानदानों से क़बीले और क़ौमें वुजूद में आ जाएँ। इसी तरह ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों में आबाद होने के बाद रंग, हुलिया, ज़बानें और ज़िन्दगी जीने के तरीक़े भी लामुहाला मुख़्तलिफ़ ही हो जाने थे, और एक इलाक़े के रहनेवालों को आपस में क़रीब से क़रीब और दूर-दराज़ इलाक़ों के रहनेवालों को दूर ही होना था। मगर इस फ़ितरी फ़र्क़ और भेद का तक़ाज़ा ये हरगिज़ न था कि इसकी बुनियाद पर ऊँच-नीच, शरीफ़ और कमीन, बरतर और कमतर के फ़र्क़ क़ायम किये जाएँ, एक नस्ल दूसरी नस्ल पर अपनी फ़ज़ीलत जताए, एक रंग के लोग दूसरे रंग के लोगों को ज़लील व हक़ीर समझें। एक क़ौम दूसरी क़ौम पर अपनी बरतरी जमाए और इन्सानी हक़ों में एक गरोह को दूसरे गरोह पर तरजीह हासिल हो। पैदा करनेवाले ने जिस वजह से इन्सानी गरोहों को क़ौमों और क़बीलों की शक्ल में बनाया था वो सिर्फ़ ये थी कि उनके बीच आपसी पहचान और तआवुन की फ़ितरी सूरत यही थी। इसी तरीक़े से एक ख़ानदान, एक ब्रादरी, एक क़बीले और एक क़ौम के लोग मिलकर मुश्तरक समाज बना सकते थे और ज़िन्दगी के मामलों में एक-दूसरे के मददगार बन सकते थे। मगर ये महज़ शैतानी जहालत थी कि जिस चीज़ को अल्लाह की बनाई हुई फ़ितरत ने पहचान का ज़रिआ बनाया था उसे घमण्ड और दुश्मनी का ज़रिआ बना लिया गया और फिर नौबत ज़ुल्म और ज़्यादती तक पहुँचा दी गई। 

3. तीसरे ये कि इन्सान और इन्सान के बीच फ़ज़ीलत और बरतरी की बुनियाद अगर कोई है और हो सकती है तो वो सिर्फ़ अख़लाक़ी फ़ज़ीलत है। पैदाइश के ऐतिबार से तमाम इन्सान बराबर हैं, क्योंकि इनका पैदा करनेवाला एक है, इनके पैदा होने का माद्दा एक और पैदाइश का तरीक़ा भी एक ही है, और इन सबका नसब एक ही माँ-बाप तक पहुँचता है। इसके अलावा किसी शख़्स का किसी ख़ास मुल्क क़ौम या ब्रादरी में पैदा होना एक इत्तिफ़ाक़ी बात है, जिसमें उसके अपने इरादे और इन्तिख़ाब और उसकी अपनी मेहनत और कोशिश का कोई दख़ल नहीं है। कोई माक़ूल वजह नहीं कि इस लिहाज़ से किसी को किसी पर फ़ज़ीलत और बरतरी हासिल हो। असल चीज़ जिसकी बिना पर एक शख़्स को दूसरों पर फ़ज़ीलत हासिल होती है वो ये है कि वो दूसरों से बढ़कर ख़ुदा से डरनेवाला, बुराइयों से बचनेवाला और नेकी व पाकीज़गी की राह पर चलनेवाला हो। ऐसा आदमी चाहे किसी नस्ल, किसी क़ौम और किसी मुल्क से ताल्लुक़ रखता हो, अपनी ज़ाती ख़ूबी की बिना पर क़ाबिले-क़द्र है। और जिसका हाल इसके बरख़िलाफ़ हो वो बहरहाल एक कमतर दर्जे का इन्सान है चाहे वो काला हो या गोरा, मशरिक़ में पैदा हुआ हो या मग़रिब में। 

यही हक़ीक़तें जो क़ुरआन की मुख़्तसर सी आयत में बयान की गई हैं, रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने इनको अपने मुख़्तलिफ़ ख़ुत्बों और इर्शादों में ज़्यादा खोलकर बयान किया है। मक्का फ़तह के मौक़े पर काबा का तवाफ़ करने के बाद आपने जो तक़रीर की थी उसमें फ़रमाया :

"शुक्र है उस ख़ुदा का जिसने तुमसे जाहिलियत का ऐब और उसका तकब्बुर दूर कर दिया। लोगो, तमाम इन्सान बस दो ही हिस्सों में तक़सीम होते हैं। एक, नेक और परहेज़गार जो अल्लाह की निगाह में इज़्ज़तवाला है। दूसरा फ़ाजिर और तंगदिल, जो अल्लाह की निगाह में ज़लील है। वरना सारे इन्सान आदम की औलाद हैं और अल्लाह ने आदम को मिटटी से पैदा किया था।" [बैहक़ी, तिर्मिज़ी :3270]

हिज्जतुल-वदाअ के मौक़े पर तशरीक़ के दिनों के बीच में आपने एक तक़रीर की और उसमें फ़रमाया:

"लोगो, ख़बरदार रहो, तुम सब का ख़ुदा एक है। किसी अरब को किसी आजमी पर और किसी आजमी को किसी अरबी पर और किसी गोरे को किसी काले पर और किसी काले को किसी गोरे पर कोई फ़ज़ीलत व बरतरी हासिल नहीं है, मगर तक़वा के ऐतिबार से। अल्लाह के नज़दीक तुममें सबसे ज़्यादा इज़्ज़तवाला वो है जो सबसे ज़्यादा परहेज़गार हो। बताओ, मैंने तुम्हें बात पहुँचा दी है? लोगों ने अर्ज़ किया हाँ, या रसूलुल्लाह फ़रमाया, अच्छा तो जो मौजूद है वो उन लोगों तक ये बात पहुँचा दे जो मौजूद नहीं हैं।" [सुनन अल-बैहक़ी हदीस नंबर 5137]

तुम सब आदम की औलाद हो और आदम मिट्टी से पैदा किये गए थे। लोग अपने बाप-दादा पर फ़ख़्र करना छोड़ दें वरना वो अल्लाह की निगाह में एक हक़ीर कीड़े से ज़्यादा ज़लील होंगे।" [सुनन अबू दाऊद, हदीस नंबर 5116; जामेह तिर्मिज़ी, हदीस नंबर 3955]

अल्लाह क़ियामत के दिन तुम्हारा हसब-नस्ब नहीं पूछेगा। अल्लाह के यहाँ सबसे ज़्यादा इज़्ज़त वाला वो है जो सबसे ज़्यादा परहेज़गार हो। अल्लाह तुम्हारी सूरतें और तुम्हारे माल नहीं देखता बल्कि वो तुम्हारे दिलों और तुम्हारे आमाल की तरफ़ देखता है। [मुस्लिम : 2560]

ये तालीमात सिर्फ़ अलफ़ाज़ की हद तक ही महदूद नहीं रही हैं बल्कि इस्लाम ने इनके मुताबिक़ ईमानवालों की एक आलमगीर ब्रादरी अमलन क़ायम करके दिखा दी है जिसमें रंग, नस्ल, ज़बान, वतन और क़ौमियत की कोई तमीज़ नहीं, जिसमें ऊँच-नीच और छूत-छात और भेदभाव का कोई तसव्वुर नहीं, जिसमें शरीक होने वाले तमाम इन्सान चाहे वो किसी नस्ल और क़ौम और मुल्क और वतन से ताल्लुक़ रखते हों बिलकुल बराबरी के हक़ के साथ शरीक हो सकते हैं और हुए हैं। इस्लाम के मुख़ालिफ़ों तक को ये तस्लीम करना पड़ा है कि इन्सानी बराबरी और एक माँ-बाप के होने के उसूल को जिस कामयाबी के साथ मुस्लिम समाज में अमली शक्ल दी गई है उसकी कोई मिसाल दुनिया के किसी दीन और किसी निज़ाम में नहीं पाई जाती, न कभी पाई गई है। सिर्फ़ इस्लाम ही वो दीन है जिसने पूरी ज़मीन के कोने-कोने में फैली हुई बेशुमार नस्लों और क़ौमों को मिलाकर एक उम्मत बना दिया है। 

आज के दौर में Nationalism ताग़ूत इसलिए है क्योंकि ये अल्लाह के कानून और उसकी हुकूमत से इंसान को हटाकर वतन और मुल्क को इंसान की इबादत और मोहब्बत का मकसद बनाता है। इस्लाम हमें ताग़ूत से बचने और सिर्फ़ अल्लाह की इबादत और उसके कानून पर चलने का हुक्म देता है।


- मुवाहिद


पार्ट-12

लिब्रलिज्म – ताग़ूत कैसे है?

पार्ट-14

वतनपरस्ती-आज के दौर का ताग़ूत कैसे है?

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