ताग़ूत का इनकार [पार्ट-12]
(यानि कुफ्र बित-तागूत)
लिब्रलिज्म (Liberalism) – ताग़ूत कैसे है?
इस्लाम के मुताबिक़, "ताग़ूत" वो हर चीज़ है जो अल्लाह के इलाह होने का इंकार करके इंसान को अपनी हुकूमत या फ़िक्र का ग़ुलाम बना लेती है। ताग़ूत सिर्फ़ बुत-परस्ती तक महदूद नहीं, बल्कि हर वो सिस्टम, सोच, या शख्स जो इंसान को अल्लाह की दी हुई हिदायत से दूर करने का ज़रिया बने, ताग़ूत की कैटेगरी में आता है।
लिब्रलिज्म एक विचारधारा है जो व्यक्तिगत आज़ादी, आत्मनिर्भरता, और नफ़्स (इंसान की इच्छाएं और ख्वाहिशें) पर आधारित है। इसका मकसद यह होता है कि हर व्यक्ति को अपने निजी जीवन, नैतिकता, और आस्थाओं का चुनाव खुद करने का अधिकार होना चाहिए, चाहे वह चुनाव धार्मिक सीमाओं या परंपराओं के खिलाफ ही क्यों न हो।
इस्लाम में, अल्लाह और उसके भेजे हुए नबियों के आदेशों के मुताबिक जीवन जीने का आदेश दिया गया है, और नफ़्स (इच्छाओं) की अंधी पैरवी करने से मना किया गया है। लिब्रलिज्म ताग़ूत बन जाता है क्योंकि यह इंसान को अल्लाह की शरीअत और धार्मिक सीमाओं से हटा कर उसकी अपनी इच्छाओं और स्वतंत्रता की पूजा करने की ओर ले जाता है।
लिब्रलिज्म का मतलब और इस्लाम से टकराव:
1. लिब्रलिज्म की परिभाषा:
लिब्रलिज्म एक ऐसी विचारधारा है जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता को सबसे ज़्यादा अहमियत दी जाती है। इसमें यह मान्यता होती है कि हर इंसान को अपने धर्म, नैतिकता, समाज और व्यक्तिगत जीवन के बारे में खुद फ़ैसले करने का अधिकार होना चाहिए, और कोई धार्मिक या सामाजिक नियम उस पर बाध्यता नहीं बना सकता। लिब्रलिज्म व्यक्ति की इच्छाओं और उसके नफ़्स को सर्वोपरि मानता है।
2. इस्लामी नजरिया:
इस्लाम में इंसान को अल्लाह की बनाई हुई शरीअत के मुताबिक जीवन जीने का आदेश दिया गया है। इंसान को अपनी नफ़्स (इच्छाओं) के बजाय अल्लाह के आदेशों का पालन करना चाहिए। अल्लाह का हुक्म ही इंसान की जिंदगी के हर पहलू पर लागू होता है, चाहे वह व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक। नफ़्स की अंधी पैरवी करने से इस्लाम में सख्त मना किया गया है, क्योंकि यह इंसान को गुमराही और तौहीद से दूर ले जा सकता है:
"क्या आपने उस शख्स को देखा, जिसने अपनी ख्वाहिशों (नफ़्स) को अपना खुदा बना लिया?" [कुरआन 25:43]
यह आयत इस बात का साफ तौर पर जिक्र करती है कि नफ़्स की अंधी पैरवी करने से इंसान अपने खालिक से दूर होता जाता है। और ये अपनी ख्वाहिशों (नफ़्स) को खुदा बना लेना भी है, जिससे वो शिर्क में मुब्तिला हो जाता है।
लिब्रलिज्म क्यों ताग़ूत है?
1. अल्लाह के कानून की अवहेलना:
लिब्रलिज्म में इंसान अपनी इच्छाओं को प्राथमिकता देता है और अल्लाह के कानूनों से मुंह मोड़ता है। इस्लाम में कानून अल्लाह का होता है, और इंसान को उसी के मुताबिक अपने जीवन को ढालना होता है। लिब्रलिज्म में इंसान अपनी ख्वाहिशों और नफ़्स के मुताबिक फैसले करता है, चाहे वो अल्लाह के कानून के खिलाफ ही क्यों न हो। यह अल्लाह की तौहीद को छोड़कर अपने नफ़्स की इबादत करने जैसा है, जो ताग़ूत है।
2. नफ़्स की इबादत:
इस्लाम में इंसान को अपनी इच्छाओं पर काबू रखने और अल्लाह के बताए हुए रास्ते पर चलने का हुक्म दिया गया है। लेकिन लिब्रलिज्म में इंसान की ख्वाहिशें सबसे ऊपर रखी जाती हैं। यह इस्लाम के बिल्कुल खिलाफ़ है, क्योंकि इस्लाम में खुदा का कानून हर चीज़ से ऊपर है। अगर इंसान अपनी नफ़्स की पैरवी करता है और उसे ही अपना मार्गदर्शक मानता है, तो वह अल्लाह के बजाय अपने नफ़्स की इबादत कर रहा है। यही ताग़ूत है, जब इंसान अल्लाह के बजाए किसी और चीज़ की इबादत करने लगता है।
3. मोरल रिलेटिविज़्म (नैतिकता का निरपेक्ष दृष्टिकोण):
लिब्रलिज्म में कोई भी नैतिकता या नियम स्थिर नहीं होते। इंसान अपने विचारों और इच्छाओं के अनुसार खुद नैतिकता की परिभाषा तय करता है। उदाहरण के तौर पर, लिब्रलिज्म में समलैंगिकता, विवाह पूर्व यौन संबंध (pre-marital relationships), और दूसरी नैतिक रूप से सवाल उठाने वाली चीज़ें व्यक्तिगत पसंद के रूप में स्वीकार की जाती हैं, जबकि इस्लाम में इन चीज़ों को हराम (वर्जित) माना गया है। यह नैतिकता का निरपेक्ष दृष्टिकोण इंसान को अल्लाह के बनाए नियमों से हटाकर खुद अपने नियम बनाने की तरफ ले जाता है, जो ताग़ूत की खुली निशानी है।
4. धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र का आधार:
लिब्रलिज्म लोकतंत्र और सेक्युलरिज़्म का आधार भी है, क्योंकि यह धार्मिक सीमाओं को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के आड़े नहीं आने देता। लोकतंत्र में भी बहुमत की राय सबसे ऊपर मानी जाती है, चाहे वह अल्लाह के कानून के खिलाफ़ ही क्यों न हो। इसी तरह, सेक्युलरिज़्म भी कानून और धर्म को अलग करता है। लिब्रलिज्म, सेक्युलरिज़्म और लोकतंत्र, तीनों ही ताग़ूत के रूप में काम करते हैं, क्योंकि ये इंसानों के बनाए नियमों और इच्छाओं को अल्लाह के कानून से ऊपर रखते हैं।
लिब्रलिज्म के खतरनाक असरात
1. अखलाकी पतन:
लिब्रलिज्म में इंसान की ख्वाहिशें और इच्छाएं नैतिकता को तय करती हैं। इससे समाज में अनैतिकता और गुनाह बढ़ते हैं, क्योंकि लोग अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए हर हद पार कर लेते हैं। इस्लाम में इंसान को अपनी इच्छाओं को काबू में रखने और शरीअत के मुताबिक चलने की ताकीद की गई है।
2. समाज में फूट और बिखराव:
जब इंसान लिब्रलिज्म के आधार पर खुद अपनी नैतिकता और नियम बनाता है, तो समाज में फूट और बिखराव पैदा होता है। हर व्यक्ति अपनी ख्वाहिशों और इच्छाओं के मुताबिक फैसले करता है, जिससे समाज में एकता और नैतिकता खत्म हो जाती है।
3. अल्लाह से दूरी:
लिब्रलिज्म इंसान को अल्लाह की राह से दूर करता है, क्योंकि इसमें इंसान को यह सिखाया जाता है कि वह अपने जीवन में खुद फैसला करे और अल्लाह के कानून को नज़रअंदाज़ करे। यह गुमराही और अल्लाह से दूरी का कारण बनता है, और तौहीद के खिलाफ़ एक ताग़ूत की शक्ल ले लेता है।
इस्लामी हल (समाधान):
इस्लाम में इंसान को अपने नफ़्स (इच्छाओं) पर काबू पाने और अल्लाह की तौहीद को सबसे ऊपर रखने का हुक्म दिया गया है। अल्लाह की इबादत और शरीअत के मुताबिक जीवन गुज़ारना ही इंसान का असली मकसद है। कुरआन में अल्लाह ने साफ कहा:
"किसी ऐसे आदमी के हुक्मों पर न चलो जिसके दिल को हमने अपनी याद से ग़ाफ़िल कर दिया है और जो अपनी मर्ज़ी पर चलने और मनमानी करने में लग गया है और जिसके काम करने का तरीक़ा एतिदाल (सन्तुलन) पर नहीं है।" [सूरह अल-कहफ, 18:28]
इंसान को अपनी ख्वाहिशों और नफ़्स के बजाय अल्लाह के बताए हुए कानून का पालन करना चाहिए, क्योंकि यही असल कामयाबी का रास्ता है।
लिब्रलिज्म ताग़ूत इसलिए है, क्योंकि यह इंसान को अल्लाह की इबादत और उसके कानून से हटा कर उसकी अपनी ख्वाहिशों और इच्छाओं को प्राथमिकता देता है। लिब्रलिज्म इंसान को इस सोच पर लाता है कि वह खुद अपने लिए सही और गलत तय कर सकता है, जो इस्लामी तौहीद के खिलाफ़ है।
- मुवाहिद
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