Tagut ka inkar (yaani kufr bit-tagut) part-7

Tagut ka inkar (yaani kufr bit-tagut) part-7


ताग़ूत का इनकार [पार्ट-7]

(यानि कुफ्र बित-तागूत)


ताग़ूत और तौहीद

इस्लाम में तौहीद (अल्लाह की एकता) सबसे बुनियादी और अहम ईमान का हिस्सा है। तौहीद का मतलब सिर्फ यह नहीं है कि इंसान अल्लाह पर ईमान लाए, बल्कि यह भी है कि वो हर उस चीज़ का इनकार करे जो अल्लाह के मुकाबले में आती है। यही चीज़ ताग़ूत कहलाती है, और इसका इनकार करना तौहीद की मुकम्मल तकमील के लिए फर्ज़ है।

ताग़ूत का शब्द अरबी में उन तमाम चीज़ों के लिए इस्तेमाल होता है, जो अल्लाह के खिलाफ विद्रोह करती हैं, उसकी इबादत के मुकाबले में आती हैं, और इंसान को अल्लाह की राह से भटकाती हैं। यह किसी भी इंसानी, राजनीतिक, धार्मिक, या आर्थिक व्यवस्था का हिस्सा हो सकता है, जो इंसान को अल्लाह से दूर करे।

कुरआन में अल्लाह ने यह स्पष्ट किया है कि तौहीद को सही तरीके से समझने के लिए, सबसे पहले ताग़ूत का इनकार ज़रूरी है। कुरआन की आयत में अल्लाह फ़रमाता है:

"दीन के मामले में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है। सही बात ग़लत ख़यालात से अलग छाँटकर रख दी गई है। अब जो कोई ताग़ूत का इनकार करके अल्लाह पर ईमान ले आया, उसने एक ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटनेवाला नहीं और अल्लाह  [जिसका सहारा उसने लिया है] सब कुछ सुननेवाला और जाननेवाला है।" [कुरआन 2:256]

इस आयत से यह बात साफ होती है कि इंसान की तौहीद तब तक मुकम्मल नहीं हो सकती जब तक वह ताग़ूत का इंकार न करे, क्योंकि ताग़ूत अल्लाह की इबादत और उसके हुकूमत के मुकाबले में खड़ा होता है।

कलीमा "ला इलाहा इल्लल्लाह" की बुनियाद में ही ताग़ूत का इनकार शामिल है। जब हम कहते हैं "ला इलाहा", यानी कोई माबूद (पूज्य) नहीं है, तो इसका मतलब है कि हम हर उस चीज़ का इनकार कर रहे हैं जिसे लोग अल्लाह के अलावा इबादत के लायक समझते हैं। इसके बाद "इल्लल्लाह" कहकर हम सिर्फ अल्लाह की इबादत और तौहीद का इकरार करते हैं।


ताग़ूत का इनकार ईमान का हिस्सा है:

कुरआन की आयत (2:257) में भी बताया गया है कि जो लोग ताग़ूत का इख्तियार करते हैं, वो अंधेरे में चले जाते हैं:

"जो लोग ईमान लाते हैं, उनका हिमायती और मददगार अल्लाह है और वो उनको अंधेरों से रौशनी में निकाल लाता है। और जो लोग कुफ़्र का रास्ता अपनाते हैं, उनके हिमायती और मददगार ताग़ूत  [ बढ़े हुए सरकश और फ़सादी] हैं, और वो उन्हें रौशनी से अंधेरों की तरफ़ खींच ले जाते हैं। ये आग में जानेवाले लोग हैं, जहाँ ये हमेशा रहेंगे।" [कुरआन 2:257]

यहां अल्लाह साफ़ तौर पर कहता है कि ताग़ूत की पैरवी करना इंसान को अंधेरों में डाल देता है, जबकि अल्लाह पर ईमान लाना इंसान को रौशनी और हिदायत की तरफ ले आता है। इसलिए तौहीद की मुकम्मल तकमील के लिए ताग़ूत का इनकार करना ज़रूरी है, क्योंकि ताग़ूत की पैरवी करना सीधे तौर पर इंसान को कुफ़्र और गुमराही की तरफ ले जाता है।


ताग़ूत का इनकार और तौहीद की दावत:

तौहीद की सही और मुकम्मल दावत का मतलब है कि इंसान सबसे पहले ताग़ूत का इनकार करे। सिर्फ अल्लाह पर ईमान लाने की बात करना, और ताग़ूत के इनकार की बात न करना तौहीद की अधूरी समझ है। कुरआन और हदीस दोनों में यह साफ तौर पर बताया गया है कि तौहीद की बुनियाद ताग़ूत का इनकार करना है, और इसके बाद ही अल्लाह की इबादत और उसका इकरार मुकम्मल हो सकता है।

तौहीद को समझने और अपनाने का एक अहम हिस्सा ताग़ूत का इंकार है। अगर कोई इंसान या समाज ताग़ूत को नकारे बिना अल्लाह की इबादत की बात करता है, तो उसकी तौहीद अधूरी है। इसका मतलब है कि हर उस ताकत, सत्ता या व्यक्ति का इंकार करना जो अल्लाह के कानूनों के खिलाफ जाकर अपने नियम और कानून चलाता है।

कुरआन (4:60) में अल्लाह कहता है: "क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा, जो यह दावा करते हैं कि वे ईमान लाए हैं, लेकिन फैसला करवाने के लिए ताग़ूत के पास जाते हैं।"

इस आयत से साफ होता है कि ताग़ूत का इंकार किए बिना तौहीद की सही समझ और अमल नामुमकिन है।


तौहीद की दावत और ताग़ूत की तबदीली का ताल्लुक:

कुछ लोग यह समझते हैं कि पहले तौहीद की दावत दी जानी चाहिए और ताग़ूत को बाद में हटाने की कोशिश की जा सकती है। लेकिन कुरआन और नबियों की ज़िन्दगी से ये साबित होता है कि तौहीद की दावत और ताग़ूत का इंकार साथ-साथ चलते हैं। अगर हुकूमत ताग़ूत बन जाए, तो उसकी तबदीली सबसे पहली ज़रूरत बन जाती है, क्योंकि वो हुकूमत सीधे तौर पर तौहीद के खिलाफ काम कर रही होती है।

तौहीद और ताग़ूत का इंकार एक-दूसरे से जुदा नहीं हैं। तौहीद तभी मुकम्मल होती है जब इंसान हर उस ताकत और सत्ता का इंकार करे जो अल्लाह की इबादत में रुकावट बने। और सही मायनों में तौहीद तब ही समझी जा सकती है, जब ताग़ूत को पूरी तरह नकारा जाए।


ताग़ूत का इनकार और तौबा:

जो लोग ताग़ूत की पैरवी कर रहे हैं, उन्हें तुरंत तौबा करनी चाहिए और अल्लाह के सामने अपने गुनाहों का एतराफ करना चाहिए। तौहीद की दावत देने के लिए सबसे पहले ताग़ूत का इनकार करना ज़रूरी है। अल्लाह कुरआन में फ़रमाता है:

"ये और बात है कि कोई (इन गुनाहों के बाद) तौबा कर चुका हो और ईमान लाकर अच्छे काम करने लगा हो। ऐसे लोगों को अल्लाह भलाइयों से बदल देगा। और वो बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।"[कुरआन 25:70]

"जो शख़्स तौबा भला रवैया अपनाता है वो तो अल्लाह की तरफ़ पलट आता है जैसा कि पलटने का हक़ है।" [कुरआन 25:71]

इस्लाम में तौहीद की दावत देने के लिए सबसे पहले इंसान को ताग़ूत का इनकार करना चाहिए, क्योंकि बिना इसके इंसान का ईमान मुकम्मल नहीं हो सकता।

ताग़ूत का इनकार तौहीद की मुकम्मल तकमील के लिए फर्ज़ है। ताग़ूत की पैरवी इंसान को अंधेरों और गुमराही की तरफ ले जाती है, जबकि अल्लाह पर ईमान और ताग़ूत का इनकार इंसान को रौशनी और हिदायत की तरफ ले आता है। आज की हुकूमत भी ताग़ूत है, और अगर कोई हुकूमत अल्लाह के कानून को न मानकर अपने कानून लागू करती है, तो इसका इनकार करना और इसे बदलना तौहीद की दावत का हिस्सा है।


- मुवाहिद



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