ताग़ूत का इनकार [पार्ट-5]
(यानि कुफ्र बित-तागूत)
कैसे हुक्मरान (Leaders) ताग़ूत हैं?
वो ज़ालिम और जाबिर हुक्मरान जो फैसले के लिए क़ुरआन और सुन्नत को अपना ज़रिया न समझें, बल्कि इंसानों पर इंसानों के बनाए हुए क़वानीन (क़ानून) नाफ़िज़ करें, वो यक़ीनन ताग़ूत हैं। ऐसे हुक्मरान के बारे में अल्लाह ने फ़रमाया:
"और जो लोग अल्लाह के नाज़िल किए हुए अहकाम के मुताबिक फैसला न करें, वो (पूरे और पुख़्ता) काफ़िर हैं।" [क़ुरआन 5:44]
फिर तुम ईमान के बदले कुफ्र पर कैसे राज़ी हो गए?
ताग़ूत से मुराद वो हाकिम है जो अल्लाह के क़ानून के सिवा किसी दूसरे क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला करता हो
"ऐ नबी! तुमने देखा नहीं उन लोगों को जो दावा तो करते हैं कि हम ईमान लाए हैं उस किताब पर जो तुम्हारी तरफ़ उतारी गई है और उन किताबों पर जो तुमसे पहले उतारी गई थीं। मगर चाहते ये हैं कि अपने मामलों का फ़ैसला कराने के लिये ताग़ूत की तरफ़ जाएँ, हालाँकि उन्हें ताग़ूत से इनकार करने का हुक्म दिया गया था – शैतान उन्हें भटकाकर सीधे रास्ते से बहुत दूर ले जाना चाहता है।" [कुरआन 4:60]
यहाँ साफ़ तौर पर ताग़ूत से मुराद वो हाकिम है जो अल्लाह के क़ानून के सिवा किसी दूसरे क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला करता हो और अदालत का वो निज़ाम है जो न तो अल्लाह के इक़्तिदारे-आला (सम्प्रभुत्व) को तस्लीम करता हो और न अल्लाह की किताब को आख़िरी सनद (Final Authority) मानता हो। इसलिये ये आयत इस मानी में बिलकुल साफ़ है कि जो अदालत ताग़ूत की हैसियत रखती हो उसके पास अपने मामलों को फ़ैसले के लिये ले जाना ईमान के ख़िलाफ़ है और ख़ुदा और उसकी किताब पर ईमान लाने का लिज़िमी तक़ाज़ा ये है कि आदमी ऐसी अदालत को जाइज़ अदालत तस्लीम करने से इनकार कर दे। क़ुरआन के मुताबिक़ अल्लाह पर ईमान और ताग़ूत से इनकार दोनों एक-दूसरे के लिये लाज़िमी हैं और ख़ुदा और ताग़ूत दोनों के आगे एक ही वक़्त में झुकना खुली मुनाफ़िक़त (कपटाचार) है।
- मुवाहिद
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