ताग़ूत का इनकार [पार्ट-4]
(यानि कुफ्र बित-तागूत)
इंसानी क़ानून को मानना भी शिर्क है।
किसी भी अमल को हराम या हलाल क़रार देने वाला सिर्फ़ अल्लाह है। जैसे कि अगर अल्लाह ने शराब को हराम कहा है और इंसानी निज़ाम उसे हलाल कर रहा है, तो ये इंसानी निज़ाम ही ताग़ूत है और उसको मानने वाला मुशरिक है।
अल्लाह फ़रमाता है:
"और जिस जानवर को अल्लाह का नाम लेकर ज़बह न किया गया हो उसका गोश्त न खाओ, ऐसा करना फ़िस्क़ [ नाफ़रमानी] है। शैतान अपने साथियों के दिलों में शक और एतिराज़ डालते हैं, ताकि वो तुमसे झगड़ा करें। लेकिन अगर तुमने बात मान ली, तो यक़ीनन तुम मुशरिक हो।" [कुरआन 6: 121]
"इन्होंने अपने उलमा और दरवोशों को अल्लाह के सिवा अपना रब [ बना] लिया है और इसी तरह मरयम के बेटे मसीह को भी, हालाँकि उनको एक माबूद [ उपास्य] के सिवा किसी की बन्दगी करने का हुक्म नहीं दिया गया था, वो जिसके सिवा कोई इबादत का हक़दार नहीं, पाक है वो उन शिर्क भरी बातों से जो ये लोग करते हैं।" [कुरआन 9: 31]
हदीस में आता है कि हज़रत अदी-बिन-हातिम ने, जो पहले ईसाई थे, जब नबी (सल्ल०) के पास हाज़िर होकर इस्लाम क़बूल किया तो उन्होंने और बहुत-से सवालों के अलावा एक सवाल ये भी किया था कि इस आयत में हमपर अपने उलमा और दरवोशों को ख़ुदा बना लेने का जो इलज़ाम लगाया गया है उसकी असलियत क्या है?
जवाब में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि क्या ये हक़ीक़त नहीं है कि जो कुछ ये लोग हराम क़रार देते हैं उसे तुम हराम मान लेते हो और जो कुछ ये हलाल क़रार देते हैं उसे हलाल मान लेते हो? उन्होंने कहा कि ये तो ज़रूर हम करते रहे हैं।
नबी (सल्ल०) ने कहा कि बस यही उनको ख़ुदा बना लेना है। [जामे तिरमिजी : 3095]
इससे मालूम हुआ कि अल्लाह की किताब की सनद के बग़ैर जो लोग इन्सानी ज़िन्दगी के लिये जाइज़ और नाजाइज़ की हदें मुक़र्रर करते हैं वो असल में ख़ुद अपने तौर पर ख़ुदाई के मक़ाम पर जा बैठते हैं और जो क़ानून बनाने के उनके इस हक़ को तस्लीम करते हैं वो उन्हें ख़ुदा बनाते हैं। ये दोनों इलज़ाम, यानी किसी को ख़ुदा का बेटा क़रार देना और किसी को शरीअत बनाने का हक़ दे देना, इस बात के सुबूत में पेश किए गए हैं कि ये लोग अल्लाह पर ईमान के दावे में झूठे हैं। ख़ुदा की हस्ती को चाहे ये मानते हों, मगर उनका ख़ुदाई का तसव्वुर इतना ग़लत है कि इसकी वजह से इनका ख़ुदा को मानना न मानने के बराबर हो गया है।
- मुवाहिद
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