मुहम्मद ﷺ को कुरआन के अलावा कोई मोजिज़ा न देने की वजह
अल्लाह जब इंसानों की हिदायत (मार्गदर्शन) के लिए अपने किसी पैगम्बर को दुनिया में भेजता है तो उसके साथ कुछ ऐसी खुली खुली निशानियां देकर उनको भेजता है ताकि इंसान उन निशानियों को देखकर साफ साफ जान लें कि ये वाकई अल्लाह के पैगम्बर है पिछले सब पैगंबरों को अल्लाह ने जो तमाम मोजिजे (चमत्कार) दिए थे वो उन्ही की जिंदगी ही तक मोजिजे थे उनके दुनिया से जाने के बाद वो मोजिजे भी उन्हीं के साथ चले जाते थे। क्योंकि वो सब पैगम्बर सिर्फ एक खास कौम की तरफ भेजे जाते थे। लेकिन अल्लाह ने अपने आखिरी पैगम्बर मुहम्मद ﷺ को पैगंबरी की दलील के तौर पर ऐसा मोजिज़ा दिया जो रहती दुनिया तक के सब इंसानों के लिए हमेशा मोजिज़ा ही है और वो मोजिज़ा कुरआन है।
लेकिन मक्का के इस्लाम मुखालिफों की तरफ से बार बार किसी ऐसे मोजिजे की मांग की जाती थी जैसे पिछले तमाम पैगंबरों को दिए गए थे। और उनकी तरफ से बार बार इस मांग का आना मुसलमानों को भी बेचैन कर रहा था कि इन्हें कोई ऐसा मोजिजा दिखा दिया जाए जिससे इन्हे यकीन आ जाए और ये मुहम्मद ﷺ पर ईमान ले आए। लेकिन अल्लाह की मंशा यही थी कि ये लोग इस कुरआन पर गौर ओ फिक्र करके ईमान लाए, इसलिए इस्लाम मुखालिफों के मोजिजों की मांग पर अल्लाह ने मुसलमानों से कहा कि:
وَ لَوۡ اَنَّ قُرۡاٰنًا سُیِّرَتۡ بِہِ الۡجِبَالُ اَوۡ قُطِّعَتۡ بِہِ الۡاَرۡضُ اَوۡ کُلِّمَ بِہِ الۡمَوۡتٰی ؕ بَلۡ لِّلّٰہِ الۡاَمۡرُ جَمِیۡعًا ؕ اَفَلَمۡ یَایۡئَسِ الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡۤا اَنۡ لَّوۡ یَشَآءُ اللّٰہُ لَہَدَی النَّاسَ جَمِیۡعًا ؕ
और क्या हो जाता अगर कोई ऐसा क़ुरआन उतार दिया जाता जिसके ज़ोर से पहाड़ चलने लगते, या ज़मीन फट जाती, या मुर्दे क़ब्रों से निकलकर बोलने लगते?
[इस तरह की निशानियाँ दिखा देना कुछ मुश्किल नहीं है] बल्कि सारा अधिकार ही अल्लाह के हाथ में है। फिर क्या ईमानवाले [अभी तक इनकार करनेवाले की तलब के जवाब में किसी निशानी के ज़ाहिर होने की उम्मीद लगाए बैठे हैं और वो ये जानकर] मायूस नहीं हो गए कि अगर अल्लाह चाहता तो सारे इंसानों को हिदायत दे देता?
[कुरआन 13:31]
इस आयत में बात ग़ैर-मुस्लिमों से नहीं, बल्कि मुसलमानों से कही जा रही है। मुसलमान जब ग़ैर-मुस्लिमों की तरफ़ से बार-बार निशानी की माँग सुनते थे तो उनके दिलों में बेचैनी पैदा होती थी कि काश! इन लोगों को कोई ऐसी निशानी दिखा दी जाती जिससे ये लोग मान जाते! फिर जब वो महसूस करते थे कि इस तरह की किसी निशानी के न आने की वजह से इस्लाम का इनकार करनेवालों को मुहम्मद (ﷺ) की रिसालत (पैग़म्बरी) के बारे में लोगों के दिलों में शक फैलाने का मौक़ा मिल रहा है तो उनकी ये बेचैनी और भी ज़्यादा बढ़ जाती थी। इसपर मुसलमानों से कहा जा रहा है कि अगर क़ुरआन की किसी सूरा के साथ ऐसी और ऐसी निशानियाँ यकायक दिखा दी जातीं तो क्या वाक़ई तुम ये समझते हो कि ये लोग ईमान ले आते?
क्या तुम्हें इनसे ये ख़ुशगुमानी है कि ये हक़ क़बूल करने के लिये बिलकुल तैयार बैठे हैं, सिर्फ़ एक निशानी के दिखाए जाने की कमी है?
जिन लोगों को क़ुरआन की तालीम में कायनात की निशानियों में, मुहम्मद ﷺ की पाकीज़ा ज़िन्दगी में, सहाबा किराम की ज़िन्दगी में आई इंक़िलाबी तब्दीली में हक़ की रौशनी नज़र न आई क्या तुम समझते हो कि वो पहाड़ों के चलने और ज़मीन के फटने और मुर्दों के क़ब्रों से निकल आने में कोई रौशनी पा लेंगे?
और अल्लाह की तरफ से इस तरह की निशानियों के न दिखाने की अस्ल वजह ये नहीं है कि अल्लाह उनको दिखाने की क़ुदरत नहीं रखता, बल्कि अस्ल वजह ये है कि इन तरीक़ों से काम लेना अल्लाह की मसलेहत के ख़िलाफ़ है। इसलिये कि अस्ल मक़सद तो सीधा रास्ता दिखाना है, न कि एक नबी की नुबूवत (पैग़म्बरी) को मनवा लेना, और सीधा रास्ता दिखाना इसके बिना मुमकिन नहीं कि लोगों की सोच और समझ का सुधार हो।
और अल्लाह को इंसान का समझ-बूझ के बिना सिर्फ़ एक ग़ैर-शुऊरी ईमान चाहिये होता तो उसके लिये निशानियाँ दिखाने की तकलीफ़ करने की क्या ज़रूरत थी। ये काम तो इस तरह भी हो सकता था कि अल्लाह सारे इन्सानों को ईमानवाला ही पैदा कर देता। इसलिए अल्लाह ने निशानी के तौर पर कुरआन सब इंसानों के सामने रखा ताकि इंसान का इम्तिहान भी ले सके।
इस्लाम मुखालिफों की तरफ से निशानियों की इतनी ज्यादा मांग बढ़ गई कि खुद मुहम्मद ﷺ भी लोगों के ईमान न लाने पर गम में मुब्तिला हो जाया करते थे इसपर अल्लाह ने अपने पैगम्बर को मुखातिब करके फरमाया:
لَعَلَّکَ بَاخِعٌ نَّفۡسَکَ اَلَّا یَکُوۡنُوۡا مُؤۡمِنِیۡنَ ﴿۳﴾ اِنۡ نَّشَاۡ نُنَزِّلۡ عَلَیۡہِمۡ مِّنَ السَّمَآءِ اٰیَۃً فَظَلَّتۡ اَعۡنَاقُہُمۡ لَہَا خٰضِعِیۡنَ ﴿۴﴾
"ऐ नबी, शायद तुम इस ग़म में अपनी जान खो दोगे कि ये लोग ईमान नहीं लाते। हम चाहें तो आसमान से ऐसी निशानी उतार सकते हैं कि इनकी गर्दनें उसके आगे झुक जाएँ।"
[कुरआन 26:3-4]
यानी कोई ऐसी निशानी उतार देना जो इस्लाम के तमाम मुख़ालिफ़ों को ईमान और फ़रमाँबरदारी का रवैया अपनाने पर मजबूर कर दे, अल्लाह के लिये कुछ भी मुश्किल नहीं है। अगर वो ऐसा नहीं करता तो इसकी वजह ये नहीं है कि ये काम उसकी क़ुदरत से बाहर है, बल्कि इसकी वजह ये है कि इस तरह का ज़बरदस्ती थोपा हुआ ईमान उसको नहीं चाहिये। वो चाहता है कि लोग अक़ल और समझ से काम लेकर उन आयतों की मदद से हक़ को पहचानें जो अल्लाह की किताब (यानी कुरआन) में पेश की गई हैं, जो तमाम कायनात में हर तरफ़ फैली हुई हैं, जो ख़ुद उनके अपने वुजूद में पाई जाती हैं। फिर जब उनका दिल गवाही दे कि वाक़ई हक़ वही है जो ख़ुदा के पैग़म्बरों (अलैहि०) ने पेश किया है और उसके ख़िलाफ़ जो अक़ीदे और तरीक़े चल रहे हैं वो बातिल हैं, तो जान-बूझकर बातिल को छोड़ दें और हक़ को अपना लें। यही अपनी मर्ज़ी से अपनाया हुआ ईमान और बातिल का छोड़ना और हक़ की पैरवी करना वो चीज़ है जो अल्लाह इन्सान से चाहता है।
इसी लिये उसने इन्सान को इरादे और इख़्तियार की आज़ादी दी है। इसी वजह से उसने इन्सान को ये क़ुदरत दी है कि सही और ग़लत, जिस राह पर भी वो जाना चाहे जा सके। इसी वजह से उसने इन्सान के अन्दर भलाई और बुराई दोनों के रुझानात रख दिये हैं, फ़ुजूर (नाफ़रमानी) और तक़वा (परहेज़गारी) की दोनों राहें उसके सामने खोल दी हैं, शैतान को बहकाने की आज़ादी दी है, पैग़म्बरी और वह्य और भलाई की तरफ़ बुलाने का सिलसिला सीधा रास्ता दिखाने के लिये क़ायम किया है, और इन्सान को रास्ते के चुनने के लिये सारी मुनासिब सलाहियतें देकर इस इम्तिहान के मक़ाम पर खड़ा कर दिया है कि वो ख़ुदा के इनकार और नाफ़रमानी का रास्ता अपनाता है या उसे मानने और उसकी फ़रमाँबरदारी का। इस इम्तिहान का सारा मक़सद ही ख़त्म हो जाए अगर अल्लाह कोई ऐसी तदबीर अपनाए जो इन्सान को ईमान पर मजबूर कर देनेवाली हो ज़बरदस्ती ईमान ही चाहिये होता तो निशानियाँ उतारकर मजबूर करने की क्या ज़रूरत थी, अल्लाह इन्सान को उसी फ़ितरत और साख़्त (स्वरूप) पर पैदा कर सकता था जिसमें कुफ़्र, नाफ़रमानी और बुराई का कोई इमकान ही न होता, बल्कि फ़रिश्तों की तरह इन्सान भी पैदाइशी फ़रमाँबरदार होता। यही हक़ीक़त है जिसकी तरफ़ कई मौक़ों पर क़ुरआन में इशारा किया गया है। मसलन कहा गया,
وَ لَوۡ شَآءَ رَبُّکَ لَاٰمَنَ مَنۡ فِی الۡاَرۡضِ کُلُّہُمۡ جَمِیۡعًا ؕ اَفَاَنۡتَ تُکۡرِہُ النَّاسَ حَتّٰی یَکُوۡنُوۡا مُؤۡمِنِیۡنَ ﴿۹۹﴾
"अगर तेरे रब की मर्ज़ी ये होती [की ज़मीन में सब ईमानवाले और फ़रमाँबरदार ही हों] तो सारे ज़मीनवाले ईमान ले आए होते। फिर क्या तू लोगों को मजबूर करेगा कि वो ईमानवाले हो जाएँ?"
[सूरह-10 यूनुस, आयत-99]
"और, अगर तेरा रब चाहता तो तमाम इन्सानों को एक ही उम्मत बना सकता था। वो तो अलग-अलग राहों पर ही चलते रहेंगे (और गुमराहियों से) सिर्फ़ वही बचेंगे जिनपर तेरे रब की रहमत है। इसी लिये तो उसने उनको पैदा किया था।"
[सूरह-11 हूद, आयत 118-119]
हक़ (सत्य) की ख़ोज के लिए किस तरह की निशानियों की जरूरत है?
اَوَ لَمۡ یَرَوۡا اِلَی الۡاَرۡضِ کَمۡ اَنۡۢبَتۡنَا فِیۡہَا مِنۡ کُلِّ زَوۡجٍ کَرِیۡمٍ ﴿۷﴾ اِنَّ فِیۡ ذٰلِکَ لَاٰیَۃً ؕوَ مَا کَانَ اَکۡثَرُ ہُمۡ مُّؤۡمِنِیۡنَ ﴿۸﴾
"और क्या इन्होंने कभी ज़मीन पर निगाह नहीं डाली कि हमने कितनी ज़्यादा मिक़दार (मात्रा) में हर तरह की उम्दा वनस्पतियाँ उसमें पैदा की हैं? यक़ीनन इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से ज़्यादातर माननेवाले नहीं।"
[कुरआन 26:7-8]
यानी हक़ की खोज के लिये किसी को निशानी की ज़रूरत हो तो कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं। आँखें खोलकर ज़रा इस ज़मीन ही के फलने-फूलने को देख ले, उसे मालूम हो जाएगा कि कायनात के निज़ाम (सृष्टि की व्यवस्था) की जो हक़ीक़त (तौहीद) ख़ुदा के पैग़म्बर पेश करते हैं वो सही है, या वो नज़रियात सही हैं जो शिर्क करनेवाले या ख़ुदा का इनकार करनेवाले बयान करते हैं। ज़मीन से उगनेवाली बेशुमार तरह-तरह की चीज़ें जिस बहुतायत से उग रही हैं, फिर उनकी ख़ासियतों और ख़ूबियों में और बेशुमार जानदारों की अनगिनत ज़रूरतों में जो खुला तालमेल पाया जाता है, इन सारी चीज़ों को देखकर एक बेवक़ूफ़ ही इस नतीजे पर पहुँच सकता है कि ये सब कुछ एक हिकमतवाले की हिकमत, किसी अलीम के इल्म, किसी क़ुदरतवाले और ताक़तवाले की क़ुदरत और किसी पैदा करनेवाले की स्कीम के बिना बस यूँ ही आपसे आप हो रहा है।
या इन सारी स्कीमों को बनाने और चलानेवाला कोई एक ख़ुदा नहीं है, बल्कि बहुत-से ख़ुदाओं की तदबीर ने ज़मीन, सूरज और चाँद और हवा और पानी के बीच ये तालमेल और इन वसाइल (संसाधनों) से पैदा होनेवाले पेड़-पौधों और बेहद और बेहिसाब अलग-अलग तरह के जानदारों की ज़रूरतों के दरमियान ये तालमेल पैदा कर रखा है। अक़ल रखनेवाला एक इन्सान अगर वो किसी हठधर्मी और पेशगी तास्सुब में पड़ा हुआ नहीं है, इस मंज़र को देखकर बे-इख़्तियार पुकार उठेगा कि यक़ीनन ये ख़ुदा होने और एक ख़ुदा के होने की खुली-खुली निशानियाँ हैं। इन निशानियों के होते हुए और किस मोजिज़े की ज़रूरत है जिसे देखे बिना आदमी को तौहीद (ख़ुदा के एक होने) की सच्चाई का यक़ीन न आ सकता हो?
By इस्लामिक थियोलॉजी
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