आख़िरत को न मानने के नतीजे क्या-क्या है?
- आख़िरत को न मानने के नतीजे इंसान के लिए बहुत नुकसानदेह है उनमें से हम 5 नतीजों का यहां जिक्र करेंगे:-
- आख़िरत के इनकारी के सारे आमाल [कर्म] बर्बाद हो जायेंगे।
- आख़िरत के इनकारी को अल्लाह गुमराहियों में भटकने के लिए छोड़ देगा।
- आख़िरत के इनकारी के दिल पर ताले लग जाते है।
- आख़िरत के इनकारी के दिल में इनकार ही बस जाता है।
- आख़िरत के इनकार की वजह से इंसान गैर जिम्मेदार हो जाता है।
1. आख़िरत के इनकारी के सारे आमाल [कर्म] बर्बाद हो जायेंगे।
अगर इंसान मौत के बाद की जिंदगी को नहीं मानता है तो उसके इस दुनिया में किए गए सारे नेक काम बेकार ही जायेंगे। क्योंकि जब उस इंसान का नजरिया ये है की इस दुनिया के बाद कोई दुनिया होनी ही नहीं है कि जिसमे अच्छों को उनकी अच्छाई का बदला दिया जाए और बुरों को उनकी बुराई पर सजा दी जाए। तो इसका लाजिमन नतीजा यही निकलता है कि इस दुनिया में किए गए आमाल [कर्म] उसके इस दुनिया में ही खत्म हो जाने है। और अगर अल्लाह आख़िरत का इनकार करने वालों के हिसाब किताब के दिन सब आमाल [कर्म] बर्बाद कर दे तो इसपर इनकार करने वालों को कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए क्योंकि जब उन्होंने आख़िरत को माना ही नहीं तो उसमे इनाम के भी हकदार नहीं ठहरते है।
आख़िरत का इनकार करने वालों के बारे में अल्लाह ने कहा है कि:
"ये वो लोग हैं जिन्होंने अपने रब की आयतों को मानने से इनकार किया और उसके सामने पेशी का यक़ीन न किया। इसलिये उनके सारे आमाल बर्बाद हो गए। क़ियामत के दिन हम उन्हें कोई वज़न न देंगे।"
[कुरआन 18:105]
यानी आख़िरत का इनकार करने वाले लोगों ने दुनिया में चाहे कितने ही बड़े कारनामे किये हों, बहरहाल वो दुनिया के ख़त्म होने के साथ ही ख़त्म हो जाएँगे। अपने शानदार घर और महल, अपनी यूनीवरसिटियाँ और लाइब्रेरियाँ, अपने कारख़ाने और वर्कशॉप, अपनी सड़कें और रेलें, अपनी ईजादें (आविष्कार) और पेशे, अपने इल्म और फ़न और अपनी आर्ट गैलरियाँ, और दूसरी वो चीज़ें जिनपर वो गर्व करते हैं, उनमें से तो कोई चीज़ भी अपने साथ लिये हुए वो ख़ुदा के यहाँ न पहुँचेंगे कि ख़ुदा के तराज़ू में उसको रख सकें। वहाँ जो चीज़ बाक़ी रहनेवाली है, वो सिर्फ़ अमल के मक़सद और अमल के नतीजे हैं।
अब अगर किसी के सारे मक़सद दुनिया तक महदूद थे और नतीजे भी उसको दुनिया ही में चाहिये थे और दुनिया में वो अपने कामों के नतीजे देख भी चुका है तो उसका सब किया-कराया मिट जानेवाली दुनिया के साथ ही मिट गया। आख़िरत में जो कुछ पेश करके वो कोई वज़न पा सकता है, वो तो लाज़िमी तौर पर कोई ऐसा ही कारनामा होना चाहिये जो उसने ख़ुदा को राज़ी और ख़ुश करने के लिये किया हो उसके हुक्मों की पाबन्दी करते हुए किया हो और उन नतीजों को मक़सद बनाकर किया हो जो आख़िरत में निकलनेवाले हैं। ऐसा कोई कारनामा अगर उसके हिसाब में नहीं है तो वो सारी दौड़-धूप बेशक अकारथ गई जो उसने दुनिया में की थी।
"हमारी निशानियों को जिस किसी ने झुठलाया और आख़िरत की पेशी का इनकार किया, उसके सारे आमाल [कर्म] अकारथ हो गए। क्या लोग इसके सिवा कुछ और बदला पा सकते हैं कि जैसा करें वैसा भरें?”
[कुरआन 7:147]
आख़िरत का इनकार करने वालों के आमाल [कर्म] बरबाद हो गए यानी, बेफ़ायदा और बेकार निकले। इसलिये कि ख़ुदा के यहाँ इन्सानी कोशिश व अमल के कामयाब होने का दारोमदार बिलकुल दो बातों पर है-
- वो कोशिश व अमल ख़ुदा के शरई क़ानून की पाबन्दी में हो।
- इस कोशिश व अमल में दुनिया के बजाए आख़िरत की कामयाबी मक़सद हो।
ये दो शर्तें जहाँ पूरी न होंगी वहाँ लाज़िमी तौर पर किया-धरा अकारथ जाएगा।
जिसने ख़ुदा से हिदायत लिये बग़ैर बल्कि उससे मुँह मोड़कर बग़ावती अन्दाज़ में दुनिया में काम किया, ज़ाहिर है कि वो ख़ुदा से किसी अज्र की उम्मीद रखने का किसी तरह हक़दार नहीं हो सकता। और जिसने सब कुछ दुनिया ही के लिये किया, और आख़िरत के लिये कुछ न किया, खुली बात है कि आख़िरत में उसे कोई फल पाने की उम्मीद न रखनी चाहिए और कोई वजह नहीं कि वहाँ वो किसी तरह का फल पाए।
अगर मेरी अपनी ज़मीन को (जिसका मैं मालिक हूँ) कोई शख़्स मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करता रहा है तो वो मुझसे सज़ा पाने के सिवा आख़िर और क्या पाने का हक़दार हो सकता है? और अगर उस ज़मीन पर अपने ग़ासिबाना (अनाधिकृत) क़ब्ज़े के ज़माने में उसने सारा काम ख़ुद ही इस इरादे से किया हो कि जब तक अस्ल मालिक उसकी बेजा जुर्रत और हरकत (दुस्साहस) की अनदेखी कर रहा है, उसी वक़्त तक वो उससे फ़ायदा उठाएगा और मालिक के क़ब्ज़े में ज़मीन वापस चली जाने के बाद वो ख़ुद भी किसी फ़ायदे की उम्मीद नहीं रखता है, तो आख़िर क्या वजह है कि मैं उस नाजाइज़ क़ब्ज़ा करनेवाले से अपनी ज़मीन वापस लेने के बाद ज़मीन की पैदावार में से कोई हिस्सा ख़ाहमख़ाह उसे दूँ?
ऐ नबी! इनसे कहो : क्या हम तुम्हें बताएँ कि अपने कामों में सबसे ज़्यादा नाकाम व नामुराद कौन लोग हैं? वो कि दुनिया की ज़िन्दगी में जिनकी सारी भाग-दौड़ और कोशिश सीधे रास्ते से भटकी रही और वो समझते रहे कि वो सब कुछ ठीक कर रहे हैं।
[कुरआन 18:103-104]
इस आयत के दो मतलब हो सकते हैं। एक वो जो हमने तर्जमे में अपनाया है और दूसरा ये कि जिनकी सारी भाग-दौड़ और जिद्दोजुहुद दुनिया की ज़िन्दगी ही में गुम होकर रह गई। यानी उन्होंने जो कुछ भी किया ख़ुदा से बेपरवाह और आख़िरत से बेफ़िक्र होकर सिर्फ़ दुनिया के लिये किया। दुनिया की ज़िन्दगी ही को असल ज़िन्दगी समझा। दुनिया की कामयाबियों और ख़ुशहालियों ही को अपना मक़सद बनाया। ख़ुदा के वुजूद को अगर माना भी तो इस बात की कभी फ़िक्र न की कि उसकी मर्ज़ी क्या है और हमें कभी उसके सामने जाकर अपने आमाल का हिसाब भी देना है। अपने आपको सिर्फ़ अपनी मर्ज़ी का मालिक और ग़ैर-ज़िम्मेदार अक़लमन्द जानवर समझते रहे, जिसके लिये दुनिया की इस चरागाह से फ़ायदा उठाने के सिवा और कोई काम नहीं है।
2. आख़िरत के इनकारी को अल्लाह गुमराहियों में भटकने के लिए छोड़ देगा।
जो लोग भी आख़िरत का इनकार करते है अल्लाह उन्हे गुमराहियों में भटकने के लिए छोड़ देता है। वो लोग गुमराहियों में भटकते रहते है और खुद ये समझते है कि हम जो कर रहे है बिल्कुल ठीक कर रहे है। अल्लाह उनके लिए उनके आमाल को लुभावना बना देता है। और वह अपनी गुमराहियों में भटकते रहते है। जैसाकि कुरआन में आया है कि:
وَ لَوۡ یُعَجِّلُ اللّٰہُ لِلنَّاسِ الشَّرَّ اسۡتِعۡجَالَہُمۡ بِالۡخَیۡرِ لَقُضِیَ اِلَیۡہِمۡ اَجَلُہُمۡ ؕ فَنَذَرُ الَّذِیۡنَ لَا یَرۡجُوۡنَ لِقَآءَنَا فِیۡ طُغۡیَانِہِمۡ یَعۡمَہُوۡنَ
"अगर कहीं अल्लाह लोगों के साथ बुरा मामला करने में भी उतनी ही जल्दी करता जितनी वो दुनिया की भलाई माँगने में जल्दी करते हैं, तो उनके काम की मोहलत कभी की ख़त्म कर दी गई होती। (मगर हमारा ये तरीक़ा नहीं है) इसलिये हम उन लोगों को जो हमसे मिलने की उम्मीद नहीं रखते, उनकी सरकशी में भटकने के लिये छूट दे देते हैं।"
[कुरआन 10:11]
"हक़ीक़त ये है कि जो लोग आख़िरत को नहीं मानते उनके लिये हमने उनके करतूतों को लुभावना बना दिया है, इसलिये वो भटकते फिरते हैं। ये वो हैं जिनके लिये बुरी सज़ा है और आख़िरत में यही सबसे ज़्यादा घाटे में रहनेवाले हैं।"
[कुरआन 27:4-5]
यानी ख़ुदा का क़ानूने-फ़ितरत ये है कि इन्सानी नफ़सियात (मनोविज्ञान) की फ़ितरी मन्तिक़ (तार्किकता) यही है कि जब आदमी ज़िन्दगी और उसकी कोशिश और अमल के नतीजों को सिर्फ़ इसी दुनिया तक महदूद समझेगा, जब वो किसी ऐसी अदालत को मानता न होगा जहाँ इन्सान की पूरी ज़िन्दगी के कामों की जाँच-पड़ताल करके उसके अच्छे-बुरे होने का आख़िरी फ़ैसला किया जानेवाला हो और जब वो मौत के बाद किसी ऐसी ज़िन्दगी का माननेवाला न होगा जिसमें दुनिया की ज़िन्दगी के आमाल की हक़ीक़ी क़द्रो-क़ीमत के मुताबिक़ ठीक-ठीक इनाम या सज़ा दी जानेवाली हो, तो लाज़िमन उसके अन्दर एक माद्दापरस्ताना (भौतिकवादी) सोच परवान चढ़ेगी। उसे हक़ और बातिल, शिर्क और तौहीद, भलाई और बुराई, अख़लाक़ और बद-अख़लाक़ी की सारी बहसें सरासर बेमतलब नज़र आएँगी। जो कुछ उसे इस दुनिया में ऐशो-आराम और माद्दी ख़ुशहाली और ताक़त और इक़तिदार दे, वही उसके नज़दीक भलाई होगी, ये देखे बग़ैर कि वो इक़तिदार ज़िन्दगी का कोई फ़लसफ़ा (जीवन-दर्शन), कोई तर्ज़े-ज़िन्दगी (जीवन-शैली) और कोई निज़ामे-अख़लाक़ (नैतिक व्यवस्था) हो।
उसको हक़ीक़त और सच्चाई से कोई सरोकार ही न होगा। उसको असल में जो कुछ चाहिये वो दुनिया की ज़िन्दगी की सुख-सुविधाएँ और कामयाबियाँ होंगी जिनको पाने की फ़िक्र उसे हर घाटी में लिये भटकती फिरेगी और इस मक़सद के लिये जो कुछ भी वो करेगा, उसे अपने नज़दीक बड़ी ख़ूबी की बात समझेगा और उलटा उन लोगों को बेवक़ूफ़ समझेगा जो उसकी तरह दुनिया की तलब में नहीं लगे हैं और अख़लाक़ और बद-अख़लाक़ी से बे-परवाह होकर हर काम कर गुज़रने में निडर नहीं हैं।
3. आख़िरत के इनकारी के दिल पर ताले लग जाते है।
जो शख्स भी आख़िरत का इनकार करता है तो अल्लाह के कानून ए फितरत के मुताबिक उसके दिल पर ताले लग जाते है। और उसका दिल हिदायत के लिए बंद हो जाते है।
अल्लाह कुरआन में कहता है:
"जब तुम क़ुरआन पढ़ते हो तो हम तुम्हारे और आख़िरत पर ईमान न लानेवालों के बीच एक परदा डाल देते हैं, और उनके दिलों पर ऐसा ग़िलाफ़ चढ़ा देते हैं कि वो कुछ नहीं समझते और उनके कानों में बोझ पैदा कर देते हैं। और जब तुम क़ुरआन में अपने एक ही रब का ज़िक्र करते हो तो वो नफ़रत से मुँह मोड़ लेते हैं।"
[कुरआन 17:45-46]
यानी आख़िरत पर ईमान न लाने का ये क़ुदरती नतीजा है कि आदमी के दिल पर ताले लग जाएँ और उसके कान उस दावत के लिये बन्द हो जाएँ जो क़ुरआन पेश करता है। ज़ाहिर है कि क़ुरआन की तो दावत ही इस बुनियाद पर है कि दुनियावी ज़िन्दगी के ज़ाहिरी पहलू से धोखा न खाओ। यहाँ अगर कोई हिसाब लेनेवाला और तलब करनेवाला नज़र नहीं आता तो ये न समझो कि तुम किसी के सामने ज़िम्मेदार और जवाबदेह हो ही नहीं। यहाँ अगर शिर्क, दुनियापरस्ती, कुफ़्र, तौहीद सब ही नज़रिये आज़ादी से अपनाए जा सकते हैं, और दुनियावी लिहाज़ से कोई ख़ास फ़र्क़ पड़ता नज़र नहीं आता तो ये न समझो कि उनके कोई अलग-अलग नतीजे हैं ही नहीं जो सामने आनेवाले हैं। यहाँ अगर गुनाह और नाफ़रमानी और परहेज़गारी और फ़रमाँबरदारी, हर तरह के रवैये अपनाए जा सकते हैं और अमली तौर पर उनमें से किसी रवैये का कोई एक लाज़िमी नतीजा सामने नहीं आता तो ये न समझो कि कोई अटल अख़लाक़ी क़ानून सिरे से है ही नहीं।
दरअस्ल हिसाब माँगा जाना और जवाब दिया जाना सब कुछ है, मगर वो मरने के बाद दूसरी ज़िन्दगी में होगा। तौहीद का नज़रिया सच और बाक़ी सब नज़रिये झूठ हैं, मगर उनके असली और पूरे नतीजे मौत के बाद की ज़िन्दगी में ज़ाहिर होंगे और वहीं वो हक़ीक़त खुलेगी जो इस ज़ाहिरी परदे के पीछे छिपी हुई है। एक अटल अख़लाक़ी क़ानून ज़रूर है जिसके लिहाज़ से नाफ़रमानी नुक़सानदेह और फ़रमाँबरदारी फ़ायदेमंद है, मगर इस क़ानून के मुताबिक़ आख़िरी और अटल फ़ैसले भी बाद की ज़िन्दगी ही में होंगे। इसलिये तुम दुनिया की इस कुछ दिनों की ज़िन्दगी पर फ़िदा न हो और उसके शक से भरे नतीजों पर भरोसा न करो, बल्कि उस जवाबदेही पर निगाह रखो जो तुम्हें आख़िरकार अपने ख़ुदा के सामने करनी होगी, और वो सही एतिक़ादी और अख़लाक़ी रवैया अपनाओ जो तुम्हें आख़िरत के इम्तिहान में कामयाब करे। ये है – क़ुरआन की दावत।
अब ये बिलकुल एक नफ़्सियाती (मनोवैज्ञानिक) हक़ीक़त है कि जो शख़्स सिरे से आख़िरत ही को मानने के लिये तैयार नहीं है और जिसका सारा भरोसा इसी दुनिया की दिखाई देने और महसूस होनेवाली चीज़ों पर और यहीं के तजरिबों पर है, वो कभी क़ुरआन की इस दावत को ध्यान देने के क़ाबिल नहीं समझ सकता। उसके कान के परदे से तो ये आवाज़ टकरा-टकरा कर हमेशा उचटती ही रहेगी, कभी दिल तक पहुँचने का रास्ता न पाएगी। इसी नफ़्सियाती हक़ीक़त को अल्लाह इन अलफ़ाज़ में बयान करता है कि जो आख़िरत को नहीं मानता, हम उसके दिल और उसके कान क़ुरआन की दावत के लिये बन्द कर देते हैं। यानी ये हमारा फ़ितरी क़ानून है जो उसपर यूँ लागू होता है। ये भी ध्यान रहे कि ये मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की अपनी कही हुई बात थी जिसे अल्लाह ने उनपर उलट दिया है। सूरह-14 हामीम-सजदा, आयत-5, में उनकी ये बात नक़ल की गई है कि वो कहते हैं कि ऐ मुहम्मद, तू जिस चीज़ की तरफ़ हमें बुलाता है उसके लिये हमारे दिल बन्द हैं और हमारे कान बहरे हैं और हमारे और तेरे बीच परदा रुकावट बन गया है। तो तू अपना काम कर, हम अपना काम किये जा रहे हैं। यहाँ उनकी इसी बात को दोहराकर अल्लाह ये बता रहा है कि ये कैफ़ियत जिसे तुम अपनी ख़ूबी समझकर बयान कर रहे हो, ये असल में एक फिटकार है जो तुम्हारे आख़िरत के इनकार की बदौलत ठीक फ़ितरत के क़ानून के मुताबिक़ तुम पर पड़ी है।
4. आख़िरत के इनकारी के दिल में इनकार ही बस जाता है।
अल्लाह फरमाता है:-
"तुम्हारा ख़ुदा बस एक ही ख़ुदा है। मगर जो लोग आख़िरत को नहीं मानते उनके दिलों में इनकार बसकर रह गया है और वो घमंड में पड़ गए हैं।"
[कुरआन 16:22]
यानी आख़िरत के इनकार ने उनको इतना ज़्यादा ग़ैर-ज़िम्मेदार, बेफ़िक्र और दुनिया की ज़िन्दगी में मस्त बना दिया है कि अब उन्हें किसी हक़ीक़त का इनकार कर देने में डर नहीं रहा, किसी सच्चाई की उनके दिल में क़द्र बाक़ी नहीं रही, किसी अख़लाक़ी बन्दिश को अपने मन पर बरदाश्त करने के लिये वो तैयार नहीं रहे, और उन्हें ये पता लगाने की परवाह ही नहीं रही कि जिस तरीक़े पर वो चल रहे हैं वो सही है या नहीं।
5. आख़िरत के इनकार की वजह से इंसान गैर जिम्मेदार हो जाता है।
जो लोग सख़्त गुमराहियों में पड़े हुए हैं, इसकी वजह ये नहीं है कि सोच-विचार करने के बाद ये किसी दलील से इस नतीजे पर पहुँचे थे कि ख़ुदाई में हक़ीक़त में कुछ दूसरी हस्तियाँ अल्लाह की शरीक हैं, बल्कि इसकी असल वजह ये है कि इन्होंने कभी संजीदगी के साथ ग़ौर ही नहीं किया है। चूँकि ये लोग आख़िरत से बेख़बर हैं, या उसकी तरफ़ से शक में हैं, या उससे अन्धे बने हुए हैं, इसलिये अंजाम की फ़िक्र से बेपरवाही ने इनके अन्दर सरासर एक ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैया पैदा कर दिया है। ये कायनात और ख़ुद अपनी ज़िन्दगी के हक़ीक़ी मसलों के बारे में सिरे से कोई संजीदगी रखते ही नहीं। इनको इसकी परवाह ही नहीं है कि हक़ीक़त क्या है और इनकी ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा उस हक़ीक़त से मेल खाता है या नहीं क्योंकि इनके नज़दीक आख़िरकार मुशरिक और नास्तिक और एक अल्लाह को माननेवाले और शक में पड़े हुए सबको मरकर मिट्टी हो जाना है और किसी चीज़ का भी कोई नतीजा निकलना नहीं है।
"बल्कि आख़िरत का तो इल्म ही इन लोगों से गुम हो गया है, बल्कि ये उसकी तरफ़ से शक में हैं, बल्कि ये उससे अन्धे हैं।"
[कुरआन 27:66]
اَلَاۤ اِنَّہُمۡ فِیۡ مِرۡیَۃٍ مِّنۡ لِّقَآءِ رَبِّہِمۡ ؕ اَلَاۤ اِنَّہٗ بِکُلِّ شَیۡءٍ مُّحِیۡطٌ
"आगाह रहो, ये लोग अपने रब की मुलाक़ात में शक रखते हैं। सुन रखो, वो हर चीज़ को अपने घेरे में लिये हुए है।"
[कुरआन 41:54]
یَسۡتَعۡجِلُ بِہَا الَّذِیۡنَ لَا یُؤۡمِنُوۡنَ بِہَا ۚ وَ الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا مُشۡفِقُوۡنَ مِنۡہَا ۙ وَ یَعۡلَمُوۡنَ اَنَّہَا الۡحَقُّ ؕ اَلَاۤ اِنَّ الَّذِیۡنَ یُمَارُوۡنَ فِی السَّاعَۃِ لَفِیۡ ضَلٰلٍۢ بَعِیۡدٍ
"जो लोग उसके आने पर ईमान नहीं रखते वो तो उसके लिये जल्दी मचाते हैं, मगर जो उसपर ईमान रखते हैं, वो उससे डरते हैं और जानते हैं कि यक़ीनन वो आनेवाली है। ख़ूब सुन लो, जो लोग उस घड़ी के आने में शक डालनेवाली बहसें करते हैं, वो गुमराही में बहुत दूर निकल गए हैं।"
[कुरआन 42:18]
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