Hayza aurat ke ramazan mein chhoote hue rozon ki qaza

Hayza aurat ke ramazan mein chhoote hue rozon ki qaza

हायज़ा औरत के रमज़ान में छूटे हुए रोज़ों की क़ज़ा

अगर रमज़ान के रोज़े छूट जाएं, तो लगातार रोज़ों की क़ज़ा देना बेहतर है। हालांकि अगर कोई शख़्स धीरे-धीरे करके अगले रमज़ान से पहले क़ज़ा मुकम्मल कर ले, तो भी जायज़ है। अगर कोई शख़्स रमज़ान के छूटे रोज़ों की क़ज़ा देने से पहले शव्वाल के छह रोज़े रख ले, तो भी कोई हरज नहीं।

अल्लाह तआला का फ़रमान है:

فَعِدَّةٌ مِّنْ أَيَّامٍ أُخَرَ (البقرة : ١٨٥)

"तो फिर दूसरे दिनों में (रमज़ान के रोज़ों की गिनती पूरी कर लो)।


अल्लामा उबैदुल्लाह मुबारकपुरी रहिमहुल्लाह (1414H) इस आयत की तफ़्सीर में फरमाते हैं:

إِنَّهُ أُمِرَ بِالْقَضَاءِ مُطْلَقًا عَنْ وَقْتٍ مُّعَيَّنٍ فَلَا يَجُوزُ تَقْبِيدُهُ بِبَعْضِ الْأَوْقَاتِ إِلَّا بِدَلِيلٍ

"रोज़े की क़ज़ा का हुक्म किसी तयशुदा वक़्त से बंधा नहीं है, इसलिए बिना किसी दलील के उसे किसी खास वक़्त से बांधना जायज़ नहीं।" (मिरआत अल-मफातिह : 23/7)


हज़रत आयशा रज़ि. बयान करती हैं:

كَانَ يَكُونُ عَلَيَّ الصَّوْمُ مِنْ رَمَضَانَ، فَمَا أَسْتَطِيعُ أَنْ أَقْضِيَ إِلَّا فِي شَعْبَانَ

"मेरे ऊपर रमज़ान के रोज़े बाक़ी रह जाते, तो मैं उन्हें सिर्फ शाबान में ही क़ज़ा कर पाती थी।" [बुख़ारी 1950]


हाफ़िज़ इब्न अब्दिल बर्र रहिमहुल्लाह (463H) फरमाते हैं:

فِي تَأْخِيرٍ عَائِشَةَ قَضَاءَ مَا عَلَيْهَا مِنْ صِيَامٍ رَمَضَانَ دَلِيلٌ عَلَى التَّوْسِعَةِ وَالرُّخْصَةِ فِي تَأْخِيرِ ذَلِكَ وَذَلِكَ دَلِيلٌ عَلَى أَنَّ شَعْبَانَ أَقْصَى الْغَايَةِ فِي ذَلِكَ

"हज़रत आयशा रज़ि. का रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा में देर करना इस बात की दलील है कि क़ज़ा में गुंजाइश और सहूलत है। और यह बात भी साफ़ होती है कि शाबान इसका आख़िरी वक़्त हो सकता है।"


हाफ़िज़ इब्न हजर रहिमहुल्लाह (852H) फरमाते हैं:

(अत-तम्हीद: 19/23)

فِي الْحَدِيثِ دَلَالَةٌ عَلَى جَوَازِ تَأْخِيرِ قَضَاءِ رَمَضَانَ مُطْلَقًا سَوَاءٌ كَانَ لِعُذْرٍ أَوْ لِغَيْرِ عُذْرٍ

"इस हदीस से साबित होता है कि रमज़ान की क़ज़ा को बिना किसी खास वजह के भी देर से करना जायज़ है—चाहे कोई उज्र (मजबूरी) हो या न हो।"

और आप आगे फरमाते हैं:

(फ़त्ह अल-बारी: 4/191)

ظَاهِرُ صَنِيعِ الْبُخَارِيِّ يَقْتَضِي جَوَازَ التَّرَاخِي وَالتَّفْرِيقِ لِمَا أَوْدَعَهُ فِي التَّرْجَمَةِ مِنَ الْآثَارِ كَعَادَتِهِ وَهُوَ قَولُ الْجُمْهُورِ

"इमाम बुख़ारी रहिमहुल्लाह के ज़ाहिरी अमल से ये मालूम होता है कि आप रोज़ों की क़ज़ा में देरी और अलग-अलग दिनों में रखने को जायज़ समझते थे। आपने अपने मामूल के मुताबिक बाब के तहत सहाबा के अक़वाल को भी बयान किया है, और यही जमहूर (अधिकतर उलमा) का मसलक है।"


हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ि. भी फरमाते हैं:

لَا يَضُرَّكَ كَيْفَ قَضَيْتَهَا إِنَّمَا هِيَ عِدَّةٌ مِنْ أَيَّامٍ أُخَرَ فَأَحْصِهِ

"तुझे कोई नुकसान नहीं होगा कि कैसे क़ज़ा रखे, बस यह जरूरी है कि उन दिनों की गिनती पूरी की जाए।"

(तालीक अल-तालीक लि इब्न हजर: 186/3, और इसकी सनद सहीह है)


हज़रत अबू हुरैरा और हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ि. फरमाते हैं:

فَرِّقْهُ إِذَا أَحْصَيْتَهُ

"जब तू गिनती पूरी कर ले, तो अलग-अलग रख ले—कोई हरज नहीं।"

(सुन्नन अद-दारक़ुतनी: 193/2, और इसकी सनद हसन है)


हज़रत अबू हुरैरा रज़ि. फरमाते हैं:

يُوَاتِرُهُ إِنْ شَاءَ

"अगर चाहे तो अलग-अलग रोज़े रख सकता है।"

(मुसन्नफ़ इब्न अबी शैबा: 34/3, और इसकी सनद सहीह है)


हज़रत अबू उबैदा बिन अल-जऱ्ाह से रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने फरमाया:

إِنَّ اللَّهَ لَمْ يُرَخِّصُ لَكُمْ فِي فِطْرِهِ وَهُوَ لَا يُرِيدُ أَنْ يَشُقَّ عَلَيْكُمْ فِي قَضَائِهِ فَأَحْصِ الْعِدَّةَ وَاصْنَعْ مَا شِئْتَ

"अल्लाह तआला ने रोज़ा छोड़ने की रियायत दी है, तो वो ये नहीं चाहता कि क़ज़ा में तुम पर कोई मुश्किल डाली जाए। बस गिनती पूरी करो, फिर जैसे चाहो, क़ज़ा रखो।"

(सुन्नन अद-दारक़ुतनी: 191/2, अस-सुनन अल-कुबरा लिल बैहकी: 258/4, और सनद हसन है)


खुलासा:

"क़ज़ा सिर्फ गिनती पूरी करना है। ना तो लगातार रखना ज़रूरी है, ना ही किसी खास तरीके से। सहाबा किराम का अमल और उनके क़ौल इस बात को साबित करते हैं कि इंसान अपनी सहूलत से रोज़े रख सकता है—चाहे लगातार, चाहे अलग-अलग। शरीअत ने इसमें रियायत दी है, सख्ती नहीं।"


गुलाम मुस्तफा ज़हीर हाफ़िज़हुल्लाह
ट्रांसलेशन: मोहम्मद रज़ा स़लफी

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