Namaz behayai aur burai se rokti hai

 

Namaz behayai aur burai se rokti hai

नमाज़ बुराई और बेहयाई से रोकती है

नमाज़ के मुताल्लिक हमनें (अलहमदुलिलाह) गुज़िश्ता किश्तों में जाना। इस किश्त में ये जानेंगे कि नमाज़ बेहयाई से रोकती है। (इंशा अल्लाह)

अगर हम अपने उनवान (topic) को सवालों में बदल दे तो;

  • अगर नमाज़ बेहयाई से रोकती है तो नमाज़ी गुनाह क्यों करते हैं?
  • नमाज़ कैसे बेहयाई से रोकती है?
  • नमाज़ किसे बेहयाई से रोकती है?
  • किस तरह की नमाज़ बेहयाई से रोकती है?


अब इन सवालों के जवाब तलाश करते हैं-

इस बारें में पहले ये वाज़ेह होना चाहिए के रोकने से क्या मुराद हैं?

अरबी में लफ्ज़ تنھی जिसका सादा का माना रोकना ही है लेकिन अरबी और उर्दू दोनों ज़ुबानो में रोकने का वो माना लाज़मी नहीं है जो कि मुलहिद (Atheist ) अख़्ज़ (निकालते हैं) करते हैं تنھی के लफ्ज़ का रुट वर्ड نھی हैं और इस लफ्ज़ की ज़िद (opposite) अरबी में अम्र (हुक्म) आता है।


1. पहला जवाब

क़ुरआन पाक में हमें امر بالمعروف (नेकी का हुक्म दो) और نھی عن المنکر (बुराई से रोको) का हुक्म दिया गया है। इसका मतलब यह है कि मुसलमान दूसरों को अच्छाई का हुकुम दे और बुराई से रोके अब यहां रोकने से मुराद ये तो नहीं हैं कि हम उस बात के मुकल्लफ़ हो कि कोई दूसरा बुराई करे ही नहीं बल्कि इसका मतलब यह है कि इंफीरादी (individual) तौर पर हम अपने कोल व फेल से यह कोशिश करें कि दूसरे बुराई से बच जायें और इज्तीमाई (Groups) तौर पर ऐसा निज़ाम कायम करें जहां पर अच्छाई करना आसान हो और बुराई करना मुश्किल हो ऐसी कोशिश के नतीजे में बुराइयां कम जरूर होंगी लेकिन बुराइयों का मुकम्मल ख़ात्मा नहीं होगा।

 इस किस्म के ऐतराज़ से नास्तिक यह समझता है। कि تنھی यानि रोकने का मतलब ये कि एक बटन हैं जिसको दबाते ही एक बंदा फहश और मुंकिर के तमाम दावो और उकसावे से बच जाता है। अगर ऐसा होता तो फिर यह दुनिया आज़माईश की जगह ही ना होती और ना ही क़ुरान का मकसद यह है।

नमाज़ एक फर्द के अंदर बुराइयों के खिलाफ मज़ाहमतो को ताकतवर करती है। बिल्कुल उसी तरह के जैसे एक बा असर वाज़ (बातें ) फर्द के अंदर बुराइयों के खिलाफ मज़ाहमत पैदा करता है। और नेकी का जज़्बा पैदा करता है। इसका मतलब यह नहीं कि किसी मशीनी बटन की तरह वो फर्द बुराइयों से बिल्कुल पाक हो जाए।


2. दूसरा जवाब

नमाज़ का बुराई से रोकना ऐसी कोई करामती चीज़ नहीं है अगर कोई ये समझता है कि नमाज़ पढ़ते ही कुछ ऐसा होता है कि बंदा ज़बरदस्ती फहश और मुंकर से रोक दिया जाता है तो यह इस्लाम की बुनियादों से ही उल्ट हैं इस्लामी नुक्ते नज़र से इंसान को दुनिया में ख़ैर व शर का इख़्तियार दिया गया हैं और ऐसा कुछ नहीं है कि नमाज़ पढ़ने से वह इख़्तियार ख़त्म हो जाते हैं।

नमाज़ का बुराइयों से रोकना बिल्कुल सामने की चीज़ है और इसका ताल्लुक इंसानी नफ़सियात से हैं एक शख़्स जब अल्लाह के सामने रोज़ाना पांच वक्त झुकता है और इसका झुकना हक़ीक़ी हैं और वो पूरी रगबत से झुकता है तो क्या इसे अल्लाह कि ना फरमानी करते हुए उसका ज़मीर उसको मलामत नहीं करेगा? ये तो बिलकुल एक नफ़सियाती चीज़ है जिसके लिए दलील पूछने की भी ज़रूरत नहीं।

इस इश्कॉल का असल जवाब ये है कि इस आयत में यह फरमाया है कि नमाज़ बे हयाई और बुरे कामों से नमाज़ी को रोकती है और मना करती है ये नहीं फरमाया के नमाज़ी के रोकने और मना करने नमाज़ी उन कामो से रुक जाता हैं। 

यहाँ तो बन्दे को नमाज़े के बुराइयों से रोकने और मना करने का ज़िक्र हैं खुद अल्लाह तआला भी तो बन्दों को बे हयाई और बुराई से मना करता हैं तो जब अल्लाह के मना करने से अगर तमाम बन्दे बुराइयों से ना रुकें तो नमाज़ के मना करने से अगर बन्दे बुराइयों से ना रुके तो क्या ऐतराज़ की बात हैं और क्या इश्कॉल है?

अल्लाह तआला फरमाता हैं:-

"बेशक़ अल्लाह अदल करने और नेकी करने और और क़राबत दारों को देने का हुक्म देता हैं और बे हयाई और बुराई और ज़्यादती करने से मना करता हैं वो तुम को खुद नसीहत फरमाता हैं ताकि तुम नसीहत क़ुबूल करो।"
[सूरह नहल 90]


इस आयत में अल्लाह बता रहा हैं कि अल्लाह तआला बे हयाई और बुराई के कामों से रोकता हैं तो अगर कुछ बन्दे बे हयाई और बुरे कामों से नहीं रुकते तो ये अल्लाह तआला के बे हयाई और बुरे कामों से रोकने के खिलाफ़ नहीं हैं। इसी तरह नमाज़ बे हयाई और बुराई के कामों से रोकती हैं तो अगर कुछ नमाज़ी बे हयाई और बुराई के कामों से नहीं रुकते तो ये नमाज़ के बे हयाई और बुरे कामों से रोकने के खिलाफ़ नहीं हैं।


3. तीसरा जवाब

ये भी मुमकिन हैं कि बंदा सिर्फ़ नमाज़ में बुराई से और बे हयाई से बचा रहता है यानी 24 घंटे वो बुराई करता है लेकिन जब नमाज़ को उसके वक्तो पर पढ़ता है तो वो नमाज़ उसे गुनाह करने से बचा लेती हैं कम से कम वो बंदा नमाज़ के वक़्त गुनाहों से बच जाता है।


नमाज़ कैसे बेहयाई से रोकती है?

ज़ाहिरी तौर पर अगर हम नमाज़ को देखें तो नमाज़ पढ़ते ही तब हैं जब हम कुफ्र कि ग़लाज़त से पाक साफ़ हो कर इस्लाम में दाख़िल होते हैं। तो यहीं पर एक बहुत बड़े ज़ुल्म से इंकार हुआ दूसरा ये कि नमाज़ के लिए वुज़ू करना (पाक होने के साथ वुज़ू करना यानि मुकम्मल पाकी इख्तियार करना) फिर नमाज़ के लिए खुद को पुरा ढकना।(यहां ज़ाहिरी बेहयाई का इंकार किया) 

"मैं ही अल्लाह हूँ, मेरे सिवा कोई ख़ुदा नहीं है, इसलिये तू मेरी बन्दगी कर और मेरी याद के लिये नमाज़ क़ायम कर।"
[कुरान 20:14]


अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ख़ुद फरमा रहा है मेरी याद के लिए नमाज़ क़ायम कर। नमाज़ अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का ज़िक्र भी है नमाज़ के ज़रिए हम उसकी हम्दो सना बयान करते हैं। नमाज़ हमारे लिए याद दिहानी है कि हमें किसी ने पैदा किया जिसे हमें अपने हर अमल हिसाब देना है। 


नमाज़ किसे बेहयाई से रोकती है?

(किस तरह के नमाज़ी को)

"ऐ नबी (ﷺ)! तिलावत करो उस किताब की जो तुम्हारी तरफ़ वही,के ज़रिए से भेजी गई है और नमाज़ क़ायम करो, यक़ीनन नमाज़ बेहयाई और बुरे कामों से रोकती है और अल्लाह का ज़िक्र इससे भी ज़्यादा बड़ी चीज़ है। अल्लाह जानता है जो कुछ तुम करते हो।
[कुरान 29:45]


क़ुरआन की जिस भी आयत में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त नबी करीम ﷺ को मुखातिब करके कोई हुक्म देते हैं तो इसका मतलब ये नहीं होता कि वो सिर्फ़ आप ﷺ के लिए है या उनके वक्त के लिए था। नबी करीम ﷺ ने तो ज़ाहिरी तो क्या उनके बातिन में भी कोई बुराई पोशीदा नहीं थी। जब इस्लाम आया उस वक्त अरब में हर किस्म की बुराई (अख्लाकी:- यानि झूठ बोलना, फहश बातें करना, शराब पीना, जुआ खेलना और समाजी:- धोखा धडी, नाप तौल में कमी, कत्ल ओ ग़ारत, बच्चियों को ज़िंदा दरगोर कर देना और दुश्मनी का नस्लों में परवान चढ़ाना) थी। उस वक्त जो इस्लाम में आते गए वो ख़ुद में से इन बुराइयों को नमाज़ के ज़रिए निकालने में कामयाब हुए। और आज भी दुनिया गवाह है इस बात की अरब ममालिक (gulf countries) अलहमदुलिलाह अब तक किसी हद तक इन बुराइयों से पाक है।


नमाज़ के ज़रिये बेहयाई को रोकना कैसे मुमकिन है?

अब सवाल ये है कि नमाज़ से कैसे मुमकिन है?

वो लोग अपनी नमाज़ में जो पढ़ते हैं उसे समझते भी हैं। 

जैसे:- 

(i) रुकू से उठते वक्त कहते हैं! 

سمع الله لمن حمده

समीअल्लाहु लिमन हमिदा

तर्जुमा:- "अल्लाह ने उसकी सुन ली जिसने उसकी तारीफ की।"

उन्हें ये पता है कि उनका रब दिलों के भेद भी जानता है जिससे वो खुद को बा आसानी बुराई और फहाशी से महफूज़ रख पाते हैं।


(ii) दोनों सजदों के दरमियान की दुआ

رَبِّ اغْفِرْلِيْ، رَبِّ اغْفِرْلِي

तर्जुमा:- "ऐ मेरे रब! मुझे माफ़ कर दे।"

उन्हें ये इल्म है कि वो अपनी हर नमाज़ बहुत बार माफ़ी मांग रहें हैं। और जब बंदा गुनाहों से तौबा करता है तो उससे बचने की भी कोशिश करता है।

[अबु दाऊद: 874; इब्ने माजा: 897]

और बाक़ी अपने रब से क्या क्या सरगोशियां कर रहे हैं उन्हें उसका भी माना मतलब भी पता है। 


दीन में पांच बार ये सदा (अज़ान) दी जाती है आओ कामयाबी की तरफ़

  • क्या किसी इंसान की कामयाबी इस बात में नहीं कि वो ख़ुद को अख्लाकी बुराई से बचा सके?
  • क्या किसी समाज की कामयाबी इस बात में नहीं कि वो अपने समाज को समाजी बुराई से बचाने में कामयाब हो?


किस तरह की नमाज़ बेहयाई रोकती है?

▪️जो नमाज़ ख़ालिस अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के लिए और नबी करीम ﷺ के बताए हुए तरीक़े पर अदा की जाए।

▪️ नमाज़ अदा करने का सही माना, मतलब और मक़सद पता हो।

▪️ नमाज़ उसके वक्त पर अदा किया जाए।

▪️ नमाज़ बा जमाअत अदा की जाए।


हमारी नमाज़ हमें बुराई और बेहयाई से क्यों नहीं रोकती है?

▪️ हमें ये पता ही नहीं होता है हम अपनी नमाज़ में क्या पढ़ रहे बस जो बचपन में रटाया गया उसे ही पढ़ते चले आ रहे हैं। 

▪️ नमाज़ के लिए दी जा रही सदा सिर्फ़ एक मुअज्जिन की सदा लगती है। 

▪️नमाज़ में कोई खुशू और खुजू (concentration) नहीं होता है एक मख्खी या मच्छर भी बैठ जाए तो हम उसे जानते ही नहीं बल्कि हमने उसे भगाना भी होता है। 

▪️जमाअत और वक्त पे अदाएगी का कोई ख्याल नहीं रखते हैं।

▪️ कोई दुसरी मसरूफियात हो तो नमाज़ का ख्याल ही नहीं आता।

▪️ नमाज़ इस तरह पढ़ते हैं जैसे कोई क़र्ज़ लिया हो उसे बस जल्द अज़ जल्द अदा करना हो।


जुड़े रहें इंशाअल्लाह आगे नमाज़ जहन्नम से नजात है पर बात होगी।


आपका दीनी भाई
मुहम्मद


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