Janaze ki namaz aur kuch behis log

Janaze ki namaz aur kuch behis log


जनाज़े की नमाज़ और कुछ बेहिस लोग

 कुछ लोग इतने बेहिस हो गए हैं कि जनाज़े की नमाज़ को कोई अहमियत नहीं देते। मय्यत को देख कर भी मौत याद नहीं आती। जनाज़े के साथ साथ जाते हैं। जब जनाज़ा मस्जिद में ले जाया जाता है कि उस पर नमाज़ पढ़ी जाय तो एक सफ़ के बराबर लोग बाहर खड़े हो जाते हैं, और जब नमाज़ के बाद जनाज़ा बाहर निकलता है तो वह लोग (जिन्होंने जनाज़े की नमाज़ को कोई अहमियत नहीं दी थी) मय्यत के पीछे पीछे क़ब्रिस्तान तक जाते हैं। मिट्टी डालते हैं, कुछ देर क़ब्रिस्तान पर खड़े होते हैं और वापिस आ जाते हैं।

 ऐसा अमल देखकर कुछ बातें ज़हन में आती हैं;

(1) आखिर उन लोगों ने नमाज़े जनाज़ा क्यों नहीं पढ़ी?

(2) क्या नमाज़े जनाज़ा पढ़ना कोई भारी अमल है?

(3) क्या नमाज़े जनाज़ा में शामिल होने से सवाब कम मिलता है?

(4) क्या नमाज़े जनाज़ा में लोग इसलिए शरीक नहीं हुए कि उसमें दुआ सिर्फ़ मय्यत के लिए होती है, अपना कोई फ़ायदा नहीं होता?

यह सवाल ज़हन में आते ही एक बार मैंने सोचा ज़रा जनाज़े की नमाज़ की दुआ का अध्धयन किया जाय चुनांचे आप भी देखें:

اللَّهُمَّ اغْفِرْ لِحَيِّنَا وَمَيِّتِنَا وَشَاهِدِنَا وَغَائِبِنَا وَصَغِيرِنَا وَكَبِيرِنَا وَذَكَرِنَا وَأُنْثَانَا اللَّهُمَّ مَنْ أَحْيَيْتَهُ مِنَّا فَأَحْيِهِ عَلَى الْإِسْلَامِ وَمَنْ تَوَفَّيْتَهُ مِنَّا فَتَوَفَّهُ عَلَى الْإِيمَانِ اللَّهُمَّ لَا تَحْرِمْنَا أَجْرَهُ وَلَا تُضِلَّنَا بَعْدَهُ

(سنن ابن ماجة، رقم الحديث 1498/ ما جاء في الجنائز » ما جاء في الدعاء في الصلاة على الجنازة)

"अल्लाहुम्मग़ फ़िर लि हय्येना व मैय्यतिना व शाहिदिना व ग़ायबिना व सग़ीरिना व कबीरिना व ज़करिना व उन्साना। अल्लाहुम्मा मन अहय्यतहु मिन्ना फ़ अहयिहि अलल इस्लाम व मन तवफ्फ़ैतहु मिन्ना फ़ त वफ्फ़हु अलल ईमान, अल्लाहुम्मा ला तहरिमना अजरहु व ला तुज़िल्लुना बअदहु"

"या अल्लाह, तू बख़्श दे हमारे ज़िन्दों को, हमारे मुर्दों को, जनाज़े में शामिल होने वालों को और किसी कारण अनुपस्थित (ग़ैर हाज़िर) रह जाने वालों को, हमारे छोटों को और हमारे बड़ों को, मर्दों को और औरतों को। या अल्लाह, हम को जबतक जीवित रख इस्लाम पर जीवित रख और जब मौत दे तो ईमान पर मौत दे। ऐ अल्लाह हमें अपने अज्र से महरूम न रख और इसके बाद गुमराह न करना।"

 इस दुआ पर ग़ौर करने से कुछ बातें समझ में आती हैं-

(1) यह एक बहुत ही जामेअ दुआ है। इस दुआ में किसी को छोड़ा ही नहीं गया है जिसके लिए मग़फ़िरत की दुआ न की गई हो।

(2) यह दुआ ख़ुद से शुरू हो कर हर अहले ईमान तक पहुंचती है।

(3) इसमें पूरी ज़िंदगी इस्लाम पर साबित रहने और ईमान पर मर मिटने की ख़्वाहिश की गई है।

(4) दुआ के आख़िर के दो जुमले "अल्लाहुम्मा ला तहरिमना अजरहु व ला तुज़िल्लुना बअदहु" बहुत ही अहम हैं और इस पूरी दुआ का हासिल है जिन्हें हमारे यहां दुआओं की किताबों में न जाने किस मसलिहत के तहत छोड़ दिया गया है।


दो कीरात सवाब:

एक हदीस की तरफ़ भी ध्यान जाता है जिसमें कहा गया है कि जनाज़े में मुकम्मल शिरकत करने का सवाब दो क़ीरात है लेकिन उसमें नमाज़ मुक़द्दम है यानी नमाज़ के बग़ैर सवाब का कोई तसव्वुर नहीं। हदीस देखें:

مَنْ صَلَّى عَلَى جَنَازَةٍ وَلَمْ يَتْبَعْهَا فَلَهُ قِيرَاطٌ فَإِنْ تَبِعَهَا فَلَهُ قِيرَاطَانِ قِيلَ وَمَا الْقِيرَاطَانِ قَالَ أَصْغَرُهُمَا مِثْلُ أُحُدٍ

(صحيح مسلم, رقم الحديث 2192/ کتاب الجنائز » فضل الصلاة على الجنازة واتباعها)

"जिसने जनाज़े पर सिर्फ़ नमाज़ भी पढ़ी और उसके पीछे क़ब्रिस्तान नहीं गया उसके लिए एक क़ीरात है और जिसने नमाज़ पढ़ी और तदफ़ीन तक शरीक रहा उनके लिए दो क़ीरात है। सवाल किया गया कि यह क़ीरात कितना होगा? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया उन दोनों में छोटा उहद पहाड़ के बराबर।"

(सही मुस्लिम 2192/ किताबुल जनाएज़, जनाज़े की नमाज़ की अहमियत और मय्यत के पीछे चलने का बयान)

इसका मतलब यह हुआ कि, 

(1) जिसने जनाज़े की नमाज़ पढ़ी और मय्यत के पीछे क़ब्रिस्तान नही गया उसका सवाब एक क़ीरात है।

(2) जिसने जनाज़े की नमाज़ भी पढ़ी और मय्यत के पीछे क़ब्रिस्तान भी गया उसका सवाब दो क़ीरात है।

(3) जिसने नमाज़ नहीं पढ़ी और सिर्फ क़ब्रिस्तान गया उसकी कोई वज़ाहत नहीं यानी उसने सिर्फ़ रस्म अदा की है।


अब ज़रा ग़ौर कीजिए:

अगर कोई पांच वक़्त की फ़र्ज़ नमाज़ न पढ़े और पूरे दिन नफ़्ल पर नफ़्ल पढ़ता रहे तो क्या उसे नफ़्ल का सवाब मिलेगा। अगर कोई रमज़ान के फ़र्ज़ रोज़े ताक़त के बावजूद न रखे और बराबर नफ़्ल रोज़े रखता रहे तो क्या उसे नफ़्ल रोज़े का सवाब मिलेगा। अगर कोई मालदार ज़कात न दे (जो कि उसपर फ़र्ज़ है) और पूरे साल सदक़ा देता रहे तो क्या उस मालदार को सदके का सवाब मिलेगा। अगर कोई ताक़त रखने के बावजूद हज्ज न करे और उमरे पर उमरा करता रहे तो क्या उसे उमरे का सवाब मिलेगा।


दिखावा शिर्क है:

जो लोग जनाज़े की नमाज़ नहीं पढ़ते और मय्यत के पीछे क़ब्रिस्तान तक जाते हैं उनका मक़सद दरअसल मय्यत के घर वालों को अपनी शक्ल दिखाने के इलावा कुछ नहीं होता और यह अच्छी तरह जान लेना चाहिए कि दिखावे के अमल शिर्क है। एक हदीस में है:

مَنْ صَلَّى يُرَائِي، فَقَدْ أَشْرَكَ، وَمَنْ صَامَ يُرَائِي فَقَدْ أَشْرَكَ، وَمَنْ تَصَدَّقَ يُرائِي فَقَدْ أَشْرَكَ

जिसने दिखाने के लिए नमाज़ पढ़ी उसने शिर्क किया, जिसने दिखाने के लिए रोज़ा रखा उसने शिर्क किया, जिसने दिखाने के लिए सदक़ा किया उसने शिर्क किया। 

(मुसनद अहमद 9709/ मुसनद अस शामेईन, शददाद बिन ओस रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस/ मिशकातुल मसाबीह 5331)

الراوي : شداد بن أوس | المحدث : ابن كثير | المصدر : جامع المسانيد والسنن

الصفحة أو الرقم: 5149 | خلاصة حكم المحدث : إسناده حسن


नमाज़े जनाज़ा न पढ़ने का असल कारण:

जो लोग नमाज़े जनाज़ा नहीं पढ़ते और बाहर या मस्जिद के अंदर ही खड़े बातों में मशग़ूल रहते हैं उनसे वजह जानने की कोशिश की गई तो निम्नलिखित जवाबात सामने आए।

(1) वुज़ु नहीं था

(2) कपड़े साफ़ न थे

(3) नापाक था

(4) जूते उतारने पड़ते

(5) तबियत कुछ ठीक नहीं थी

अब उनसे कौन पूछे कि वुज़ु नही था तो वुज़ु में कितनी देर लगती है, कपड़े साफ़ न थे तो बदल लेते आख़िर दावतों में जाने के लिए भी कपड़े बदले जाते हैं, एक मुसलमान जिसके यहाँ पाकी आधा ईमान हो वह नापाक होकर बाहर कैसे निकल पड़ता है क्या उसे इस बात का यक़ीन नहीं कि उसे भी मौत आएगी और अगर नापाकी में ही आगयी तो...... जूता इतना भारी हो रहा है कि उसे ज़नाज़े की नमाज़ के लिए नहीं उतार सकते अभी दूल्हे के साथ स्टेज पर बैठना हो तो ....... तबियत ठीक नहीं थी तो जनाज़े के साथ आये ही क्यों? नमाज़ के लिए तबियत ठीक नहीं है और मय्यत के साथ जाने के लिए ठीक है।


क्या यह बेहिस लोग अपने माँ बाप और घर वालों के साथ भी ऐसा ही करेंगे:

जो लोग नमाज़े जनाज़ा नहीं पढ़ते और बाहर या मस्जिद के अंदर ही खड़े बातों में मशग़ूल रहते हैं क्या वह अपने माता पिता भाई बहन और घर वालों के साथ भी ऐसा ही करेंगे या अगर कोई उनकी मय्यत के साथ ऐसा करे तो उनके बारे में वह कैसा ख़्याल करेंगे।


By आसिम अकरम अबु अदीम फ़लाही 

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