Islam mein Mother's day ki haqeeqat

Islam mein Mother's day ki haqeeqat


इस्लाम में मदर्स डे की हक़ीक़त

इस साल 14 मई को अमेरिका समेत दुनिया भर में मदर डे मनाया गया। तारीख के हिसाब से इस दिन का आगाज़ सन 1870 में हुआ जब जूलिया वार्ड नामी औरत ने अपनी मां की याद में इस दिन को शुरू किया जूलिया वार्ड अपने पद की एक मुमताज़ मुस्लिहा (reformer) शायरा इंसानी हुक़ूक कि करकिन (Worker) थी। इसके बाद 1877 को अमेरिका में पहला मदर डे मनाया गया। 

1960 में अमेरिकी रियासत Philadelphia में ऐना ऍम जार्विस नानी स्कूल टीचर ने बाकायदा तौर पर उस दिन को मनाने कि रस्म का आगाज़ किया। उसने अपनी मां ऐन मारिया की याद में यह दिन मनाने कि तहरीक को क़ौमी सतह पर उजागर किया, यूँ इनकी माँ की याद में बा-क़ायदा तौर पर अमेरिका में इस दिन का आगाज हुआ। 

यह तकरीबअमेरिका के एक चर्च में हुई इस मौके पर उसने अपनी माँ के पसंदीदा फूल तक़रीब में पेश किये। उस तहरीक पर उस वक़्त के अमरीकी सदर Wood Rowlson (वुड रोलसन) ने माओं के एतराम में मई के दूसरे इतवार को क़ौमी दिन के तोर पर मनाने का ऐलान किया। उसके बाद यह दिन हर साल मई के दूसरे इतवार को मनाया जाता है। 

इसके चलते ब्रिटेन में इस दिन को संडे मदरिंग भी कहा जाता है। मगरीबी दुनिया में लोग अपनी मदर्स को तोहफे देते हैं और उनसे मुलाकात करते हैं। यूँ साल भर में बूढ़े मां बाप से मिलने को इस दिन का इंतजार रहता है। अमेरिका समेत यूरोप भर में पेरेंट्स को घरों की बजाय ओल्ड होम्स में रखा जाता है इसलिए लोग इस दिन ओल्ड होम में अपनी मांओ से मुलाकात करते हैं और इनको सुर्ख फूलों के तोहफे पेश करते हैं। 

जिन लोगों की मदर्स इस दुनिया में नहीं वह सफेद फूलों के साथ अपनी मदर्स की कब्रों पर जाते हैं और वहां यह गुलदस्ते सजाते हैं। हर देश में मदर डे को मनाने के लिए अलग दिन तय हैं अमेरिका, डेनमार्क, फिनलैंड, तुर्की, इजरायल और बेल्जियम में यह दिन मई के दूसरे इतवार को ही मनाया जाता है। 

सोचने की बात यह है कि इस मदर्स डे से यूरोप खुद को तरक्की याफ्ता सामाजिक हाल करता है क्या यूरोपी दुनिया साल में 1 दिन मां और 1 दिन बाप के लिए खास करके खुद को आलमी इंसानी हुक़ूक का खुद गढ़ा चैंपियन होना दिखाती है?

क्या मां-बाप का हक सिर्फ 1 दिन का प्यार सुर्ख फूल और कुछ शफ़क़त भरे लम्हे ही हैं?

सचमुच ये वो सुवाल है जो आज भी जवाब की तलाश में है। तस्वीर के दूसरे रूख़ के तौर पर अब हमारे समाज में भी फादर्स डे और मदर्स डे मनाए जा रहे हैं और हमारे समाज में भी ओल्ड हाउस बनाने की कोशिश हो रही है। वह समाज जहां मां के कदमों तले जन्नत और बाप की रज़ा में अल्लाह की रज़ा हुआ करती थी। आज वही समाज उस जन्नत और उस रज़ा ए इलाही से दामन बचाता फिरता है। 

अंधविश्वास दीन में हो या दुनिया में महलक हुआ करती हैं। वेस्ट कल्चर की पैरवी हमें कहां लेकर आ गई जिससे हमारी कदर बेकार हो रही है और सामाज की बुनियादी इकाई यानी खानदान की चोली ढीली हो रही है। 

इस इकाई की बुनियाद और जड़ यानी मां-बाप को घरों से उखाड़कर ओल्ड होम्स में फेंका जा रहा है फिर साल के बाद दिन का 1 दिन मना कर हक़ अदा कर दिया जाता है। 


पहला सवाल यह है कि इस्लाम के नजदीक मदर्स डे का क्या कॉन्सेप्ट है?

इसका छोटा सा जवाब यह है कि इस्लाम में तो हर लम्हा और हर दिन मदर डे और फादर डे हैं। इस कांसेप्ट को ज्यादा समझने के लिए मां बाप की इज़्ज़त, एतराम और ख़िदमत के पस मंज़र में क़ुरआन की एक आयत पेश हैं-

तेरे रब ने फ़ैसला कर दिया है कि तुम लोग किसी की इबादत न करो, मगर सिर्फ़(अल्लाह) की। और माँ-बाप के साथ अच्छा सुलूक करो। अगर तुम्हारे पास इनमें से कोई एक या दोनों, बूढ़े होकर रहें तो उन्हें उफ़ तक न कहो, न उन्हें झिड़ककर जवाब दो, बल्कि उनसे एहतिराम के साथ बात करो, और नरमी और रहम के साथ उनके सामने झुककर रहो और दुआ किया करो कि “पालनहार! इनपर रहम कर जिस तरह इन्होंने रहमत और महब्बत के साथ मुझे बचपन में पाला था।"
[कुरान 17: 23-24]

इस्लामी समाज के उम्र रशीदा लोगो को किस कदर अहमियत देता है और इनके साथ हुस्ने सुलूक और नरमी बरतने की बहुत ज्यादा ताकीद करता है खासकर बूढ़े मां बाप के साथ निहायत शफक़त के साथ पेश आने का हुकुम देता है क़ुरआन में हैं:

"हमने इंसान को हिदायत की कि वो अपने माँ-बाप के साथ अच्छा सुलूक करे। उसकी माँ ने तकलीफ़ उठा कर उसे पेट में रखा और तकलीफ़ उठाकर ही उसको जन्म दिया..."
[कुरान 46:15]


दूसरा सवाल यह है की दीन-ए-इस्लाम में मदर्स डे मनाने की मनाही क्यों है?

दीन-ए-इस्लाम में मदर्स डे को न रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मनाया न सहाबा किराम ने बल्कि वो क़ुरान की आयतों पर अमल करते थे और अपने वालिदैन का ख़्याल उनकी वफ़ात तक रखा करते थे। अगर माँ जैसी नेमत के लिए कोई एक दिन रखना दुरुस्त होता तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ज़रूर इस बात का ज़िक्र सहाबा किराम से किया होता है उन्हें इस अमल को करने की हिदायत दी होती।

इस दिन को मानना यानि दूसरे मज़हब की मुशाबीहत (नक़ल) इख़्तियार करना उनमे शामिल होना है उनकी पैरवी करना है। रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: 

"जिस ने किसी क़ौम की मुशाबीहत इख़्तियार की तो वो उन में से है।" 
[अबू दाऊद 4031]

दीन-ए-इस्लाम में जिन कामों से हमें मना किया गया है वो गुनाह में शामिल हैं इसलिए हमें चाहिए कि हम ऐसे कामों, रस्मों, त्यौहारों से दूर रहे।


मदर्स डे का कड़वा सच 

अगर हम कहें कि ये दींन का हिस्सा है, ये बिदअत है इसलिए इसे रद्द करना चाहिए तो ये गलत होगा इसका दींन से कोई ताल्लुक़ नहीं है। पर हम इसे इसलिए रद्द करते हैं क्यूंकि ये क़ुरान के खिलाफ है। क़ुरान वाज़ेह तौर पर हुक्म देता है "माँ-बाप के साथ अच्छा सुलूक करो।" जबकि इस एक दिन को खास बना कर वालिदैन से दूर शहरों में रहने वाले मॉडर्न मुस्लिम इस दिन माँ से मिलने आते है, माँ के साथ फोटो क्लिक करते है और सोशल मीडिया पर पोस्ट करके दिखाते है की हम अपनी माँ से कितना प्यार करते हैं। हकीकत में वो मायें साल भर अपनी नाफरमान औलाद की आवाज़ सुनने को भी तरस जाती है। 

माँ ज़िंदा है या मर गई, उसकी देखभाल को कोई है या नहीं इस बात से बेखबर ये नई नस्ल इस दिन का इंतज़ार करती है और माँ तो फिर माँ होती है अपनी औलाद की इस एक दिन की खिदमत को देख कर उसका दिल पिघल जाता है। 

और तो और कुछ औरतें जिन्हे कभी किसी नामहरम ने बेपर्दा न देखा होगा, ऐसी बापर्दा बा-हया  ख़ातून की औलादें इस मगरिबी फैशन के चक्कर में मदर्स डे, बर्थडे, ईद, बक़रह ईद पर अपनी माँ की घर में खींची हुई बिना हिजाब की फोटो को अपने व्हाट्सप्प स्टेटस, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर शेयर करते हैं और उनके परदे को, उनकी मेहनत बर्बाद देते है।  

कुरान की आयत और बहुत सारी हदीस उसे पता चलता है कि मां-बाप की कितनी इज़्ज़त इस्लाम ने दी है यह इज़्ज़त सिर्फ 1 दिन की नहीं बल्कि पूरी जिंदगी हमको करनी है। हमें अपने वालिदैन के साथ उम्र भर इज़्ज़त और मोहब्बत से पेश आना है, उनकी खिदमत करनी है और दीन के दायरे में रह कर उनकी फरमाबरदारी भी करनी है। माँ के क़दमों के नीचे जन्नत है और वालिद जन्नत का दरवाज़ा तो अगर हमें जन्नत में दाखिल होना है तो दोनों को उनका हक़्क़ अदा करना होगा। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया,

"कोई भी ऐसे फ़रबारदारी जिस में गुनाह शमिल हो वो दुरूस्त नहीं है। काम सिर्फ़ वही क़बूल है जो सही और दरूस्त हो।"
[सहीह बुख़ारी 7257]
 


आपका दीनी भाई 
मुहम्मद 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

क्या आपको कोई संदेह/doubt/शक है? हमारे साथ व्हाट्सएप पर चैट करें।
अस्सलामु अलैकुम, हम आपकी किस तरह से मदद कर सकते हैं? ...
चैट शुरू करने के लिए यहाँ क्लिक करें।...