🌙 रमज़ान के मसाइल-6: हैज़, निफास, इस्तेहाज़ा और रोज़े की क़ज़ा
हैज़: वो फितरी वा ताबई खून जो औरत के रहम से बालुगत के बाद मख़सूस अय्याम में औरत की शर्मगाह के रास्ते से हर माह बाहर आती है। इसकी मुद्दत आम तौर पर 6 से 7 दिन है।
निफास: ऐसा खून जो बच्चों की पैदाइश से कुछ पहले या साथ में या बाद में औरत के सामने की शर्मगाह से ख़ारिज हो। इसकी मुद्दत आम तौर पर 40 दिन, या 40 दिन से ज्यादा भी हो सकती है।
नहीं, हैज़ और निफास वाली औरतें पर रोज़ा हलाल नहीं है। उन्हें रोज़े की काज़ा करनी चाहिए यानी रमज़ान बाद उन रोज़ों को रखना चाहिए।
रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने फ़रमाया, "क्या जब औरत हैज़ा होती है तो नमाज़ और रोज़े नहीं छोड़ देती? यही उसके दीन का नुक्सान है।"
[बुखारी 1951]
आयशा (रज़ि०) ने फरमाया, "हमें भी हैज़ आता था तो हमें रोज़ों की क़ज़ा देने का हुक्म दिया जाता था, नमाज़ की क़ज़ा का हुक्म नहीं दिया जाता था।"
[मुस्लिम 335]
ऐसी सूरत में वह रोज़ा नहीं रखेगी उसे रोज़े की कजा़ करनी होगी और दूसरे दिन फज्र से पहले गुस्ल करके वो रोजा रखेगी।
शेख उसेमीन फरमाते हैं, "जब एक औरत दिन के दरमियान में ( अपने हैज़ के दौर से) साफ-सुथरी हो जाए तो उसे उस रोजे का क़ज़ा करना होगा और खाने पीने से बाकी दिन नहीं रुकना होगा।"
[सराह अल मुमती vol 6]
शेख इब्न बाज़ (रहीमुल्लाह) फरमाते है, “अगर हैजा़ औरत को इल्म हो जाता है कि फज्र से पहले उसका हैज़ खत्म हो गया है तब रोजा रखना है। अगर वो फज्र का वक्त खत्म होने से पहले गुस्ल कर ले रही है तो इस तरह की गुस्ल की देरी में कोई हराज नहीं है। लेकिन उसे इतनी देर नहीं करनी चाहिए के सूरज निकल आए। यही कानून जूनुबी (जिमा के बाद नापाकी की) के लिए भी है। ग़ुस्ल में इतनी देरी नहीं करनी चाहिए के सूरज निकल आए और मर्दो को चाहिए के वो जल्दी ग़ुस्ल करे तकी वो फ़ज्र की नमाज़ जमात से पढ़ सके।
[फतवा अल-शेख इब्न बाज़]
इस्तेहाज़ा: हैज़ और निफास के अय्याम के अलावा बैगर वक्त के मसल्सल (regularly) खून आना। इस्तेहाज़ा का खून रहम के किनारे हिस्से में मौजूद एक रग से निकालता है। इस्तेहाज़ा के खून का रंग सुरख पीला यानि लाल रंग होता है और इस खून में बदबू नहीं होती और ये पतला होता है।
हां, इस सूरत में रोज़ा रख सकते है। इस्तेहाज़ा वाली औरत हैज़ का खून बंद होने पर ग़ुस्ल करे और हर नमाज़ के लिए अलहदा वुज़ू करें इस्तिंजा के बाद शर्मगाह पर कपड़ा रखे।
मुस्तहजा की 4 हालतें है-
1. हैज़ की मुद्दत मालूम हो तो उस मुद्दत में नमाज़ छोड़ दे और मुद्दत गुज़र जाने के बाद गुस्ल करे और नमाज़ पढ़े।
2. अगर हैज़ की मुद्दत न मालूम हो तो अंदाज़ से 6 या 7 दिन नमाज़ छोड़ दे इसलिये की आम तौर पर इसकी मुद्दत यही होती है और जब ये मुद्दत गुज़र जाए तो गुस्ल करे या नमाज़ पढ़े।
3. अगर उसकी आदत अभी मुकर्रर नहीं हुई हो लेकिन वो हैज़ के खून या बगैर हैज़ के खून में फर्क मालूम कर सकती हैं तो मालूम करके उन्हीं अय्यम में और उन मुद्दत में नमाज न पढ़े और वो मुद्दत गुजरे के बाद नमाज पढ़े।
4. अगर इसकी आदत अभी मुकर्रर नहीं हुई हो या वो हैज़ के खून में और गैर हैज़ के खून में फ़र्क नहीं कर पा रही है तो 6 या 7 दिन रुकी रहे और फिर गुस्ल करके नमाज़ शुरू करे।
फ़ातिमा-बिन्ते-अबी-हबीश (रज़ि०) ने नबी करीम (सल्ल०) से पूछा कि मुझे इस्तिहाज़े का ख़ून आता है और मैं पाक नहीं हो पाती तू क्या मैं नमाज़ छोड़ दिया करूँ?आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, नहीं। ये तो एक नस का ख़ून है हाँ इतने दिनों में नमाज़ ज़रूर छोड़ दिया कर जिनमें इस बीमारी से पहले तुम्हें हैज़ आया करता था। फिर ग़ुस्ल करके नमाज़ पढ़ा करो।[बुखारी 325, मुस्लिम 333]
शेख उसेमीन फरमाते हैं, "ये वो खून है जो औरत से निकालता है और वो हैज़ या निफास नहीं है और ये खून रोज़े को बातिल नहीं करता।"
[लिक़ाह अल बाब मफतूह 51-61, पेज 151]
0 टिप्पणियाँ
कृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।