Kya Insan Paigambar Nahi Ho Sakta?

Kya Insan Paigambar Nahi Ho Sakta?


क्या इंसान पैगम्बर नहीं हो सकता है?

अल्लाह ने इंसानों तक अपना पैगाम पहुंचाने के लिए इंसानों में से ही अपने पैग़म्बर चुने और उन पैग़म्बरो के जरिए से ही इंसानों को हिदायत का रास्ता बताया। लेकिन हर ज़माने के जाहिल लोग इसी ग़लतफ़हमी में मुब्तला रहे हैं कि इन्सान कभी पैग़म्बर नहीं हो सकता। इसलिए उन्होंने अल्लाह की हिदायत को मानने से सिर्फ इसलिए इनकार कर दिया कहा कि, क्या इंसान अब हमे हिदायत देंगे? 

इसी बात को अल्लाह कुरआन में कुछ इस तरह फरमाता है:


وَ مَا مَنَعَ النَّاسَ اَنۡ یُّؤۡمِنُوۡۤا اِذۡ جَآءَہُمُ الۡہُدٰۤی اِلَّاۤ  اَنۡ قَالُوۡۤا اَبَعَثَ اللّٰہُ   بَشَرًا  رَّسُوۡلًا
लोगों के सामने जब कभी हिदायत आई तो उसपर ईमान लाने से उनको किसी चीज़ ने नहीं रोका मगर उनकी इसी बात ने कि “क्या अल्लाह ने इन्सान को पैग़म्बर बनाकर भेज दिया?”
[कुरआन 17:94]


यानी हर ज़माने के जाहिल लोग इसी ग़लतफ़हमी में मुब्तला रहे हैं कि इन्सान कभी पैग़म्बर नहीं हो सकता। इसी लिये जब कोई रसूल आया तो उन्होंने ये देखकर कि खाता है, पीता है, बीवी-बच्चे रखता है, हाड़-मांस का बना हुआ है, फ़ैसला कर दिया कि पैग़म्बर नहीं है, क्योंकि इन्सान है। और जब वो गुज़र गया तो एक मुद्दत के बाद उसके अक़ीदतमंदों (Followers) में ऐसे लोग पैदा होने शुरू हो गए जो कहने लगे कि वो इन्सान नहीं था, क्योंकि पैग़म्बर था। चुनाँचे किसी ने उसको ख़ुदा बनाया, किसी ने उसे ख़ुदा का बेटा कहा, और किसी ने कहा कि ख़ुदा उसमें समा गया था। मतलब ये कि इन्सान होना और पैग़म्बर होना ये दोनों बातें एक वुजूद में जमा होना जाहिलों के लिये हमेशा एक पहेली ही बना रहा। 

इतिहास में भी ऐसा होता रहा है कि जाहिल लोग कभी इंसान को पैगम्बर मानने के लिए तैयार नहीं हुए है और इतिहास ही इसी बात को अल्लाह ने कुरआन में बयान किया है कि:


وَ اضۡرِبۡ لَہُمۡ مَّثَلًا  اَصۡحٰبَ الۡقَرۡیَۃِ ۘ اِذۡ جَآءَہَا  الۡمُرۡسَلُوۡنَ
"इन्हें मिसाल के तौर पर उस बस्तीवालों का क़िस्सा सुनाओ जबकि उसमें रसूल आए थे।"
[कुरआन 36:13]


اِذۡ  اَرۡسَلۡنَاۤ  اِلَیۡہِمُ  اثۡنَیۡنِ  فَکَذَّبُوۡہُمَا فَعَزَّزۡنَا بِثَالِثٍ فَقَالُوۡۤا اِنَّاۤ  اِلَیۡکُمۡ مُّرۡسَلُوۡنَ
हमने उनकी तरफ़ दो रसूल भेजे और उन्होंने दोनों को झुठला दिया। फिर हमने तीसरा मदद के लिये भेजा और उन सबने कहा, “हम तुम्हारी तरफ़ रसूल की हैसियत से भेजे गए हैं।”
[कुरआन 36:14]


قَالُوۡا مَاۤ  اَنۡتُمۡ  اِلَّا بَشَرٌ مِّثۡلُنَا ۙ وَ مَاۤ اَنۡزَلَ  الرَّحۡمٰنُ  مِنۡ شَیۡءٍ ۙ اِنۡ  اَنۡتُمۡ  اِلَّا تَکۡذِبُوۡنَ
बस्तीवालों ने कहा, “तुम कुछ नहीं हो, मगर हम जैसे कुछ इन्सान, और रहमान ख़ुदा ने हरगिज़ कोई चीज़ नहीं उतारी है, तुम सिर्फ़ झूठ बोलते हो।”
[कुरआन 36:15]


दूसरे अलफ़ाज़ में उन जाहिल लोगों का कहना ये था कि तुम चूँकि इन्सान हो, इसलिये ख़ुदा के भेजे हुए रसूल नहीं हो सकते। यही ख़याल मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों का भी था। और आज के दौर के गैर मुस्लिमों का भी यही ख्याल है। वो कहते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) रसूल नहीं हैं, क्योंकि वो इन्सान हैं-


وَقَالُوا۟ مَالِ هَـٰذَا ٱلرَّسُولِ يَأْكُلُ ٱلطَّعَامَ وَيَمْشِى فِى ٱلْأَسْوَاقِ ۙ
"वो कहते हैं कि ये कैसा रसूल है जो खाना खाता है और बाज़ारों में चलता-फिरता है।"
 [क़ुरआन 25:7]

 

قُلُوبُهُمْ ۗ وَأَسَرُّوا۟ ٱلنَّجْوَى ٱلَّذِينَ ظَلَمُوا۟ هَلْ هَـٰذَآ إِلَّا بَشَرٌۭ مِّثْلُكُمْ ۖ أَفَتَأْتُونَ ٱلسِّحْرَ وَأَنتُمْ تُبْصِرُونَ
"और ये ज़ालिम लोग आपस में सरगोशियाँ करते हैं कि ये आदमी (यानी मुहम्मद सल्ल०) तुम जैसे एक इन्सान के सिवा आख़िर और क्या है, फिर क्या तुम आँखों देखते इस जादू के शिकार हो जाओगे?"
 [क़ुरआन 21:3]

 

क़ुरआन मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों के इस जाहिलाना ख़याल को ग़लत बताते हुए कहता है कि ये कोई नई जहालत नहीं है जो आज पहली बार इन लोगों से ज़ाहिर हो रही हो, बल्कि बहुत पुराने ज़माने से तमाम जाहिल लोग इसी ग़लतफ़हमी में मुब्तला रहे हैं कि जो इन्सान है, वो रसूल नहीं हो सकता और जो रसूल है, वो इन्सान नहीं हो सकता। नूह (अलैहि०) की क़ौम के सरदारों ने जब हज़रत नूह (अलैहि०) की पैग़म्बरी का इनकार किया था तो यही कहा था-


فَقَالَ ٱلْمَلَؤُا۟ ٱلَّذِينَ كَفَرُوا۟ مِن قَوْمِهِۦ مَا هَـٰذَآ إِلَّا بَشَرٌۭ مِّثْلُكُمْ يُرِيدُ أَن يَتَفَضَّلَ عَلَيْكُمْ وَلَوْ شَآءَ ٱللَّهُ لَأَنزَلَ مَلَـٰٓئِكَةًۭ مَّا سَمِعْنَا بِهَـٰذَا فِىٓ ءَابَآئِنَا ٱلْأَوَّلِينَ
"ये आदमी इसके सिवा कुछ नहीं है कि एक इन्सान है तुम्हीं जैसा और चाहता है कि तुमपर अपनी बड़ाई जमाए। हालाँकि अगर अल्लाह चाहता तो फ़रिश्ते उतारता। हमने तो ये बात कभी अपने बाप-दादा से नहीं सुनी (कि इन्सान रसूल बनकर आए)।"
[क़ुरआन 23:24]


आद की क़ौम ने यही बात हज़रत हूद (अलैहि०) के बारे में कही थी-


هَـٰذَآ إِلَّا بَشَرٌۭ مِّثْلُكُمْ يَأْكُلُ مِمَّا تَأْكُلُونَ مِنْهُ وَيَشْرَبُ مِمَّا تَشْرَبُونَ
"ये शख़्स कुछ नहीं है मगर एक इन्सान तुम्हीं जैसा। खाता है वही कुछ जो तुम खाते हो और पीता है वही कुछ जो तुम पीते हो। अब अगर तुमने अपने ही जैसे एक इन्सान की फ़रमाँबरदारी कर ली तो तुम बड़े घाटे में रहे।"
[क़ुरआन 23:33, 34]


समूद की क़ौम ने हज़रत सॉलेह (अलैहि०) के बारे में भी यही कहा था-


أَبَشَرًۭا مِّنَّا وَٰحِدًۭا نَّتَّبِعُهُۥٓ
"क्या हम अपने में से एक इन्सान की पैरवी अपना लें।"
[क़ुरआन 54:24]


قَالُوٓا۟ إِنْ أَنتُمْ إِلَّا بَشَرٌۭ مِّثْلُنَا - قَالَتْ لَهُمْ رُسُلُهُمْ إِن نَّحْنُ إِلَّا بَشَرٌۭ مِّثْلُكُمْ وَلَـٰكِنَّ ٱللَّهَ يَمُنُّ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنْ عِبَادِهِۦ ۖ
"और यही मामला क़रीब-क़रीब तमाम नबियों के साथ पेश आया कि इस्लाम-मुख़ालिफ़ों ने कहा,  तुम कुछ नहीं हो, मगर हम जैसे एक इन्सान।  और पैग़म्बरों ने उनको जवाब दिया कि: सचमुच हम तुम्हारी तरह इन्सान के सिवा कुछ नहीं हैं, मगर अल्लाह अपने बन्दों में से जिसपर चाहता है मेहरबानी करता है।"
[क़ुरआन 14:10-11]


इसके बाद क़ुरआन मजीद कहता है कि यही जाहिलों वाला ख़याल हर ज़माने में लोगों को हिदायत क़बूल करने से रोकता रहा है और इसी वजह से क़ौमों की शामत आई है-


أَلَمْ يَأْتِكُمْ نَبَؤُا۟ ٱلَّذِينَ كَفَرُوا۟ مِن قَبْلُ فَذَاقُوا۟ وَبَالَ أَمْرِهِمْ وَلَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌۭ ٥ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُۥ كَانَت تَّأْتِيهِمْ رُسُلُهُم بِٱلْبَيِّنَـٰتِ فَقَالُوٓا۟ أَبَشَرٌۭ يَهْدُونَنَا فَكَفَرُوا۟ وَتَوَلَّوا۟ ۚ
"क्या इन्हें उन लोगों की ख़बर नहीं पहुँची जिन्होंने इससे पहले कुफ़्र (हक़ का इनकार) किया था और फिर अपने किये का मज़ा चख लिया और आगे उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है? ये सब कुछ इसलिये हुआ कि उनके पास उनके रसूल खुली-खुली दलीलें लेकर आते रहे, मगर उन्होंने कहा,  क्या अब इन्सान हमारी रहनुमाई करेंगे? इसी वजह से उन्होंने कुफ़्र (हक़ का इनकार) किया और मुँह फेर गए।"
[क़ुरआन 64:5-6] 



وَمَا مَنَعَ ٱلنَّاسَ أَن يُؤْمِنُوٓا۟ إِذْ جَآءَهُمُ ٱلْهُدَىٰٓ إِلَّآ أَن قَالُوٓا۟ أَبَعَثَ ٱللَّهُ بَشَرًۭا رَّسُولًۭا
"लोगों के पास जब हिदायत आई तो कोई चीज़ उन्हें ईमान लाने से रोकने वाली इसके सिवा न थी कि उन्होंने कहा  क्या अल्लाह ने बशर (इंसान) को रसूल बना कर भेज दिया?" 
[क़ुरआन 17:94]


फिर क़ुरआन पूरी तरह साफ़-साफ़ कहता है कि अल्लाह ने हमेशा इन्सानों ही को रसूल बनाकर भेजा है और इन्सान की हिदायत के लिये इन्सान ही रसूल हो सकता है, न कि कोई फ़रिश्ता या इन्सानी ख़ासियत से बढ़कर कोई हस्ती-


وَمَآ أَرْسَلْنَا قَبْلَكَ إِلَّا رِجَالًۭا نُّوحِىٓ إِلَيْهِمْ ۖ فَسْـَٔلُوٓا۟ أَهْلَ ٱلذِّكْرِ إِن كُنتُمْ لَا تَعْلَمُونَ - وَمَا جَعَلْنَـٰهُمْ جَسَدًۭا لَّا يَأْكُلُونَ ٱلطَّعَامَ وَمَا كَانُوا۟ خَـٰلِدِينَ
"हमने तुमसे पहले इन्सानों ही को रसूल बनाकर भेजा है, जिनपर हम वही करते थे। अगर तुम नहीं जानते तो इल्म रखनेवालों से पूछ लो और हमने उनको ऐसे जिस्म नहीं बनाया था कि वो खाना न खाएँ और न वो हमेशा जीनेवाले थे।"
[क़ुरआन 21:7- 8]


وَمَآ أَرْسَلْنَا قَبْلَكَ مِنَ ٱلْمُرْسَلِينَ إِلَّآ إِنَّهُمْ لَيَأْكُلُونَ ٱلطَّعَامَ وَيَمْشُونَ فِى ٱلْأَسْوَاقِ ۗ
"हमने तुमसे पहले जो रसूल भी भेजे थे वो सब खाना खाते थे और बाज़ारों में चलते फिरते थे।"
[क़ुरआन 25:20]


قُل لَّوْ كَانَ فِى ٱلْأَرْضِ مَلَـٰٓئِكَةٌۭ يَمْشُونَ مُطْمَئِنِّينَ لَنَزَّلْنَا عَلَيْهِم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ مَلَكًۭا رَّسُولًۭا
ऐ नबी, "इनसे कहो कि अगर ज़मीन में फ़रिश्ते इत्मीनान से चल-फिर रहे होते तो हम उनपर फ़रिश्ते ही रसूल बनाकर उतारते।"
[क़ुरआन 17:95]


जाहिल लोगों का ये भी मानना है कि ख़ुदा ने इंसानों की हिदायत के लिए कोई पैगम्बर नहीं भेजे है ये सब झूठ है। ये एक और जहालत है जिसमें मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ भी मुब्तला थे, आज के नाम-निहाद सिर्फ़ अक़ल की बुनियाद पर चीज़ों को माननेवाले लोग भी मुब्तला हैं और पुराने ज़माने से लेकर हर ज़माने के वही (revelation) और पैग़म्बरी का इनकार करने वाले इसमें मुब्तला रहे हैं। इन सब लोगों का हमेशा से ये ख़याल रहा है कि अल्ल्लाह सिरे से इन्सानी हिदायत के लिये कोई वही नहीं उतारता। उसको सिर्फ़ ऊपरी दुनिया के मामलों से दिलचस्पी है। इन्सानों का मामला उसने ख़ुद इन्सानों ही पर छोड़ रखा है।

अल्लाह की तरफ से जब कोई पैगम्बर अल्लाह का पैगाम लेकर आता तो अल्लाह उनको खुली खुली निशानियां देकर भेजते है ताकि लोगों पर साफ साफ जाहिर हो जाए की ये सच में अल्लाह के पैगम्बर है जैसाकि कुरआन में कहा गया है:


ذٰلِکَ  بِاَنَّہٗ  کَانَتۡ  تَّاۡتِیۡہِمۡ  رُسُلُہُمۡ بِالۡبَیِّنٰتِ فَقَالُوۡۤا  اَبَشَرٌ یَّہۡدُوۡنَنَا ۫ فَکَفَرُوۡا وَ تَوَلَّوۡا وَّ اسۡتَغۡنَی اللّٰہُ ؕ وَ اللّٰہُ  غَنِیٌّ  حَمِیۡدٌ 
"इस अंजाम के मुस्तहिक़ वो इसलिये हुए कि उनके पास उनके रसूल खुली-खुली दलीलें और निशानियाँ लेकर आते रहे, मगर उन्होंने कहा "क्या इन्सान हमें हिदायत देंगे?" इस तरह उन्होंने मानने से इनकार कर दिया और मुँह फेर लिया, तब अल्लाह भी उनसे बेपरवाह हो गया और अल्लाह तो है ही बेनियाज़ और अपनी ज़ात में आप महमूद (बहुत तारीफ़ों वाला)।"
[कुरआन 64:6]


अस्ल अरबी में लफ़्ज़  "बय्यिनात" इस्तेमाल हुआ है, जो अपने अन्दर बहुत से मतलब और मानी रखता है। बय्यिन  अरबी ज़बान में ऐसी चीज़ को कहते हैं जो बिल्कुल ज़ाहिर और वाज़ेह हो। पैग़म्बरों (अलैहि०) के बारे में यह कहना कि, 

1. वे बय्यिनात लेकर आते रहे, यह मानी रखता है कि एक तो वह ऐसी साफ़ अलामतें और निशानियां लेकर आते थे जो इस बात की खुली गवाही देती थीं कि वे अल्लाह की तरफ़ से भेजे गए हैं। 

2. वे जो बात भी पेश करते थे बिल्कुल अक़्ल के मुताबिक़ और रौशन दलीलों के साथ पेश करते थे । 

3. उनकी तालीम में कोई उलझाव न था, बल्कि वह साफ़-साफ़ बताते थे कि हक़ क्या है और बातिल क्या, जाइज़ क्या है और नाजाइज़ क्या, किस राह पर इनसान को चलना चाहिए और किस राह पर न चलना चाहिए।

लेकिन पैगम्बर खुली-खुली दलीलें और निशानियाँ लेकर आते रहे, मगर लोगों ने कहा "क्या इन्सान हमें हिदायत देंगे?" 

लोगों का यही कहना कि क्या इंसान हमे हिदायत देंगे? 

उनकी तबाही की सबसे पहली और बुनियादी वजह है। इनसानों को दुनिया में अमल की सही राह इसके बिना मालूम नहीं हो सकती थी कि उसका पैदा करने वाला (ख़ुदा) उसे सही इल्म दे, और पैदा करने वाले की तरफ़ से इल्म दिए जाने की असली सूरत इसके सिवा कुछ न हो सकती थी कि वह इनसानों ही में से कुछ लोगों को इल्म देकर दूसरों तक उसे पहुँचाने का काम सुपुर्द करे। इसके लिए उसने पैगम्बरों को  बय्यिनात (खुली खुली निशानियां) के साथ भेजा, ताकि लोगों के लिए उनके हक़ पर होने में शक करने की कोई मुनासिब वजह न रहे। मगर उन्होंने सिरे से यही बात मानने से इनकार कर दिया कि बशर (इनसान) ख़ुदा का रसूल हो सकता है। इसके बाद उनके लिए हिदायत पाने की कोई सूरत बाक़ी न रही।

इस मामले में गुमराह इनसानों की जहालत और नादानी का यह अजीब करिश्मा हमारे सामने आता है कि, बशर (इनसान) की रहनुमाई क़बूल करने में तो उन्होंने कभी झिझक नहीं महसूस की, यहाँ तक कि उन ही की रहनुमाई में लकड़ी और पत्थर के बूतों तक को माबूद (खुदा) बनाया, ख़ुद इनसानों को ख़ुदा और ख़ुदा का अवतार और ख़ुदा का बेटा तक मान लिया, और गुमराह करने वाले लीडरों की अन्धी पैरवी में ऐसे ऐसे अजीब रास्ते अख़्तियार कर लिए जिन्होंने इंसानी तहज़ीब और तमददुन और अख़लाक़ को तलपट करके रख दिया। मगर जब ख़ुदा के रसूल उनके पास हक़ लेकर आए और उन्होंने हर निजी ग़रज़ से ऊपर उठकर बेलाग सच्चाई उनके सामने पेश की तो उन्होंने कहा,  

क्या अब बशर (इनसान) हमें हिदायत देंगे?  

इसका मतलब यह था कि बशर  (इंसान) अगर गुमराह करे तो सिर-आँखों पर, लेकिन अगर वह सीधी राह दिखाता है तो उसकी रहनुमाई क़बूल करने के क़ाबिल नहीं है।


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