Hijab- Libaas Wo Jo Allah Ko Pasand Ho

Hijab- Libaas Wo Jo Allah Ko Pasand Ho


लिबास ऐसा हो जो अल्लाह को पसंद हो 

मेरी हिजाब की कहानी, समझ नहीं आता कहां से  शुरुआत करूँ जब मेंने हिजाब किया तब से. या तब से जब मुझे हिजाब करना चाहिए था और मेंने नहीं किया। 

दरअसल बात वहीँ से शुरू करना ठीक रहेगा।

मैं उस दौर मे बड़ी हो रही थी जब हिजाब को छोड़ने में लोग माडर्न होने की और ब्रॉड  माइंड होने की निशानी मान रहे थे। मैं मध्यप्रदेश की राजधानी में रहने वाली थी। और यहाँ मुस्लिम आबादी बहुत थी मगर मुस्लिम अपनी इल्म की निस्बत दुनिया की चकाचौंध में गुम होने लगे थे। 

उस वक्त मैं अपनी आंटीयों को बात करते सुनती थी, मेंने तो छोड़ दिया तुम भी छोड़ दो थोड़े दिन अजीब लगेगा फिर कुछ नहीं लगता इस टाइप की तमाम बातें।

ज़ाहिर है ऐसे में  न मुझ से किसी ने कहा हिजाब लेने को न मैंने कभी सोचा इस बारे में। 

मेरे कॉलेज का सफ़र शुरू हो चुका था. यहाँ एक बात और कहना ज़रूरी है के ये वो दौर था जब वो generation का end हो रहा था जो अल्लाह के डर से पर्दा करते थे बल्कि अब पर्दा माँ बाप और भाईयों के डर से पहनने वाला हो गया था।

मुझे आज भी याद है लड़कियां कॉलेज  आती थी हिजाब में और वहां हिजाब उतार के निकल जाती  थी घूमने बिना हिजाब के।

हाँ मैं मानती हू के वो  दौर गर्ल्फ्रेंड, बॉय फ्रेंड से पाक था अल्हम्दुलिल्लाह। 

मगर हिजाब अपनी आख़री साँसें ले रहा  था।

गर्ज के, वक़्त बीता, और मैं एक एसी मॉडर्न फॅमिली में ब्याह दी गई जहाँ हिजाब तो छोड़िए रमजान वाले मुसलमान भी कम थे. अब शुरू हुआ सोच बदलने का वक़्त मुझे बुरी लगती थी ये बात। मैं सोचती थी कैसे मुस्लमान है रमजान में  भी..

वक्त बीतता रहा। बच्चे बड़े हो रहे थे फिर अचानक एक एसी फैमली से मिलना जुलना आना जाना शुरू हुआ जहां तबलीग  होती थी।

मुझे अच्छा लगने लगा वहाँ जाना दीन की बातें सुनना।

और फ़िर वो दिन आया जिस के जरिए हिजाब मेरी जिंदगी  में आया. बॉम्बे की जमात आइ हुई थी और मैं पहुंचीं। साल 2009 या 2010 की बात है। काफी औरतें थीं उनमें एक मुझसे काफ़ी छोटी ल़डकि, तकरीबन 10 साल छोटी होगी, उसका बयान सुना मैंने। अल्लाह फरमाता है- 

और याद दिलाते रहो, क्योंकि याद दिलाना ईमानवालों को फ़ायदा पहुँचाता है। 

क़ुरआन 51:55


उनका बयान मेरे दिल में उतर गया उस के वो अल्फाज़ आज भी मेरे कानो में गूंजते है, उसने कहा “ जब हम सड़क पर चलते  है तो हममें और गैरों में क्या फर्क़ नज़र आता है कोई पहचान सकता है कि इस में एक मोमिन औरत कौन है।"

पता नहीं इन अल्फाज़ बाद जब में घर वापस होने के लिए सड़क पर निकली तो मुझे बड़ा अजीब लगा वो एहसास भी मुझे याद हैं। मैं बाहर निकलती तो मुझे लगता के मैंने कुछ नहीं पहना है और में दुपट्टे से अपने आपको छुपाने की कोशिश करती।

उस के बाद हिजाब शुरू करना भी एक मुश्किल मशगला था। 

हम जहां रहते है वहाँ कोई हिजाब वाला दिखता ही नहीं था। फिर मैंने एक बड़े दुपट्टे से शुरुआत की पर जल्दी ही अल्लाह  ने बुर्के का ख़याल दिल में डाला।

और मैं बुर्का पहनना शुरु किया और मेरे  आस पास के लोगों में तो भूचाल ही आ गया।

सबने अपने अपने टाइप की अलग अलग negative  बातें की. बहुत  समझाया मुझे उम्र की दुहाई दी कुछ लोगों ने तो कहा अभी उम्र ही क्या है।

मैंने सोचा उम्र ही तो है।

ग़रज़ उन मुश्किल हालात से लड़ते हुए मेरी हिजाब का सफर शुरू हुआ। 

अल्हम्दुलिल्लाह। 

जो आज तक जारी है। 

अल्लाह तबारकल्लाह तआला से दुआ है मौत तक कायम रखे। 

आमीन। 

आपकी दीनी बहन 

-शहनाज़ खान 


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जज़कल्लाह खैरुन कसीरा 

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