Ilm Ka FItna, Confusion Aur Dajjaliyat

इल्म का फ़ितना और दज्जाल (पार्ट-2) | इल्म का फ़ितना, कन्फ्यूज़न और दज्जालियात


इस क़िस्से में कुफ्र (इंकार) करने वालों और ईमान लाने वालों दोनों को ख़बरदार कर दिया गया है; ईमान वाले ज़ालिमो को फलता-फूलता देखकर और खुद पर परेशानी आने पर ग़म करने लगते हैं और उनके अक्सर ये शिकवे होते हैं कि,

  • अल्लाह ने हमारे साथ ही ऐसा क्यो किया?
  • अल्लाह ज़ालिमो पर अज़ाब क्यो नही नाज़िल करता?
  • अल्लाह की मदद क्यो नहीं आती?

असल में बेसब्री, मायूसी और नाशुक्री से शिकवा पैदा होता है। अल्लाह ने ईमान के तक़ाज़े, ईमान लाने वालों के लिए क़ुरआन में बयान किये हैं और इन वाकियात के ज़रिए भी बताया जा रहा है कि अल्लाह की मसलेहत पर भी सब्र करना है।

इस क़िस्से में हम ग़ौर करें तो पाएंगे कि नेक लोगों पर मुश्किलें आईं और नेक लोगों की मदद, उनका मक़सद भी और हिफ़ाज़त भी अल्लाह उनकी ज़िंदगी में भी और मौत के बाद भी अपने बंदों से पूरा कर देने पर कादिर है और इंसान ये फिकर करता है कि मेरे बाद मेरे बच्चों की परवरिश कौन करेगा।

बेशक! अल्लाह ही पालने वाला है वो रब्बुल आलमीन है।

कैसे नेक होंगे वो सब जिनका ज़िक्र अल्लाह ने इन वाकियात में किया। सुबहान अल्लाह।

जैसा कि कश्ती हड़पने वाला बादशाह तो है लेकिन ज़ालिम और लालची भी है। लेकिन ज़ालिम को ढील दी गई ।क़ुरआन से भी साबित है कि अल्लाह एक दम पकड़ नहीं करता, एक मुद्दत तक ढील देता रहता है और कश्ती को ऐबदार करने में तदबीर का इशारा दिया गया कि सफ़र या कोई कारोबारी सफ़र में अपनी सेफ्टी का ख्याल भी करके चले।

सारे वाकियात में अल्लाह की हिकमत जानने के बाद हज़रत मूसा (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) ने फिर कोई सवाल नहीं किये, ये भी हमारे लिए सबक है।

Ilm Ka FItna, Confusion Aur Dajjaliyat


हमारा छोटा-सा दिमाग़ अल्लाह की हिक्मत तब तक नहीं समझ सकता जब तक अल्लाह न चाहे। अपने सारे मामलात हमें अल्लाह के सुपुर्द कर देने में ही हमारे लिए ख़ैर है। वैसे तो हज़रत मूसा (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) का समुंद्र और पानी से जुड़े बहुत वाकियात क़ुरआन मजीद में मौजूद हैं, और इन वाकियात में भी हज़रत मूसा (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) की ज़िंदगी से मिलते -जुलते वाकियात भी हैं। जो कुछ इस तरह है-

1.अल्लाह ने अपनी रहमत से जिस तरह कश्ती के ऐबदार होने पर भी कश्ती को डूबने नहीं दिया उसी तरह मूसा अ.स.जब नन्हे बच्चे थे उनकी बहते सदूंक के अंदर हिफ़ाज़त की। ये अल्लाह के हुक्म थे और अल्लाह अपने बंदों को मशक्कत मे नहीं डालता।

2.हज़रत मूसा (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) से एक पंच मारने पर ग़ैर इरादातन एक आदमी मारा गया, जिस पर उन्हें नदामत हुई, वहां से दुआएं मांगते हुए निकले, फिर जानवरों को पानी पिलाकर खिदमत ए ख़ल्क़ के बाद उन्होंने फिर ख़ैर की दुआ की उसके बाद उनकी ज़िंदगी में ख़ैर ही ख़ैर आई। अल्लाह के हुक्म से इरादतन हज़रत ख़िज़्र (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) ने उस बच्चे को क़त्ल किया (शायद गर्दन मरोड़कर वल्लाहोआलम, इस तरह तकलीफ कम होती है) उस बच्चे के लिए भी खैर हुई अल्लाह ने उसे मजीद गुनाह में बढ़ने से पहले बुला लिया और वालिदैन के लिए भी ख़ैर बना दिया।बच्चे की मुहब्बत में वो मोमिन वालिदैन अल्लाह के इकांरी और नाफ़रमान हो सकते थे।

3.हजरत मूसा (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) ने भी लोगों की पानी पिलाने में खिदमत की और कोई उजरत भी नहीं ली। (क़ुरआन 28: 23-25) और उनकी मेहमाननवाजी भी हुई साथ ही निकाह भी हुआ। अंजाने में गुनाह के बाद नेकी करके खैर बांटकर उनकी ज़िंदगी में ख़ैर आई।

हदीस पाक में है कि,

जहां भी रहो, अल्लाह का तक़वा इख्तियार करो,गुनाह हो जाने पर फ़ौरन कोई नेकी करने पर गुनाह मिट जाता है। लोगों के साथ हुस्ने अख़लाक़ से पेश आओ।
(तिरमीज़ी :1987)

और हज़रत ख़िज़्र (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) ने अल्लाह के हुक्म से यतीम बच्चों के ख़ज़ाने की हिफ़ाज़त का इंतज़ाम किया जब तक वो अपनी जवानी तक पहुंचे। (बालिग़ होते ही कोई यतीम नहीं रहता।) यहां اَشُدَّهُمَا लफ़्ज़ आया है। (आयत 18:25) ऐसी जवानी की उम्र जब क़ुव्वत फैसला आ जाये। इसी उम्र में नबियों को भी हिकमत अता की जाती है।


दज्जालियात


दज्जाल का इस क़िस्से से ताल्लुक़ हम पार्ट 1 में भी बता चुके हैं, दजल का मायने 'धोखा' है और एक मोमिन भी इस धोखे में आ सकता है, इसलिये इस धोखे को समझना बहुत ज़रूरी है। जैसे ग्लैमर के नाम पर बेहयाई, चकाचौंध भरी दुनिया के पीछे अंधेरी दुनिया और फिर उन पेशों को इज्ज़त वाले नाम दिया जाना, उनके भी लाखो फालोवर्स और फैन होते हैं। ढकी हुई औरत से नफ़रत वो regressive और अधूरे, छोटे कपड़े वाली की अपनी मर्ज़ी, वो progressive है।

अब इसी से समझे कि दज्जाल के पास आग जो होगी वो पानी और पानी आग होगी। (सहीह बुखारी:7130) वो आग ये कुछ उसी तरह के फितने हैं। इसके अलावा 3 डी, 7डी ग्राफिक्स, होलोग्राम, लिकेबल टीवी, आर्टिफिशियल रेन, ये आज सब मुमकिन हो रहा है और सब धोखा है, भ्रम ( illusion) है।


इल्म की तलाश में सब्र


हज़रत मूसा (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) को मालूम नहीं था कि किस तरह का इल्म वो हासिल करने वाले हैं लेकिन इल्म की अहमियत का इल्म भी रखते थे, यही तो मोमिन की सिफत है ‌और फिर पैदल सफ़र भी आसान नहीं होता।धूप, गर्मी, थकान, मौसम की तब्दीली सब कुछ बर्दाश्त करना पड़ता है। अपनी मंज़िल से आगे निकल जाने पर थकान और भूख के बावजूद सब्र के साथ अपने कदमों के निशान पर पलट कर गए।

  • हमे रोज़ाना चैक करना होगा कि हम अपना वक़्त कहां लगा रहे हैं।
  • आज हम लोग किन चीज़ों में अपनी ताक़त और सलाहियत लगातें है?
  • इल्म से, किताबों से नौजवानो का कितना ताल्लुक है?
  • हमारे सफ़र का मक़सद क्या होता है?
  • हमारे गैजेट्स भी फहाशी में या ख़ैर के कामों में इस्तेमाल होते हैं?

आज सहूलियत होने के बावजूद हर इंसान online class मे घर बैठे इल्म हासिल कर सकता है, यूं ट्यूब पर इस्लामिक बयान से भी फ़ायदा उठा सकता है मगर कितने लोग ऐसा करते हैं? हक़ीक़त तो ये है कि मसरुफ़ियात की एक वजह फ़िज़ूलयात में मसरूफियत भी होती है।


अपने मामलात में अल्लाह को शामिल करना


हज़रत मूसा (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) ने सब्र करने के लिए इन्शा अल्लाह कहा, मगर फ़रमाबरदारी पर इंशा अल्लाह कहना भूल गए। क्योंकि नबियों की बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है अल्लाह उन्हें हर बात पर अलर्ट करता है। मुफ़स्सिरीन नबी (ﷺ) के इन्शा अल्लाह कहना भूल जाने पर भी इस भूल को जोड़ कर बताते हैं। इसी सबब सूरह कहफ़ के नुज़ूल में वक़्त लगा। (इस सूरत का पसमंज़र अपने क़ुरआन में भी पढ़ें।) और तकवीनी अमवूर (cosmogonic matters) शरिअत से अलग मामला है जिसमें हमें सब्र की अहमियत समझाई गई। बस इसलिए एक मोमिन को अपने मामलात अल्लाह के हवाले करने का हुक्म है और अल्लाह पर तवक्कल करने वाला कभी अल्लाह के फैसले पर शक में नहीं पड़ता।


इल्म का कन्फ्यूज़न


इल्म हासिल करने में भी इंसान कन्फ्यूज़ रहता है कि किस से हासिल करें, किस से नहीं। इसके लिए यक़ीन के साथ अल्लाह से हमेशा दुआ भी करते रहें कि अल्लाह सही दीन की समझ और नेक लोगों का साथ अता फ़रमाए और ग़लत अकीदे से हमारी हिफ़ाज़त फ़रमाये। इंशा अल्लाह, सही दीन की तरफ़ ही रहनुमाई होगी क्योंकि अल्लाह को जो इल्म और अमल क़ुबूल हैं वहीं बाक़ी रहने वाला है।

ये ऐसा कन्फ्यूज़न का दौर है कि इंसान क़ुरआन व नबी की सीरत, हदीसों से कुछ नहीं पढ़ता और न ही चैक करना ज़रूरी समझता है बस जो सुन लिया उसी को अमल में ले आता है। अफसोस की बात ये है कि लोग उस पर अड़ भी जाते है। क्या ये दज्जालियत नहीं है? कि जो हक़ है उसे छिपा कर या मुंह मोड़ कर बातिल को परोसा जाता है।

सोशल मीडिया पर भी सभी तरह के अक़ीदे और इल्म की भरमार है कुछ हक़ और कुछ ग़लत भी है जो क़ुरआन और नबी की ज़िंदगी से ही साबित नहीं।

रसूल अल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया: "अनक़रीब मेरी उम्मत में दज्जाल और झूठे लोग पैदा होंगे, वो तुम को ऐसी नई नई अहादीस बयान करेंगे,जो न तुमने सुनी होगी और न तुम्हारे आबाओ व अजदाद ने,पस तुम उनसे बच कर रहना कहीं ऐसा न हो कि वो तुम को फ़ितने में डाल दें।" (मसनद अहमद 306)

क़ुरआन ही से हमें हिदायत मिलती है और हम ये भी जानते हैं कि नबी (ﷺ) का अमल क़ुरआन से अलग नहीं है। अल्लाह ने आप नबी (ﷺ) को बेहतरीन नमूना कहा है हर उस शख़्स के लिए जो अल्लाह से मुलाक़ात और आख़िरत पर यक़ीन रखता हो और कसरत से अल्लाह का ज़िक्र करता हो। (सूरह अहज़ाब :21)

ये तीनों शर्तें पूरी करने वाले क़ुरआन से दूर नहीं होते, नबी (ﷺ) के किरदार पर कोई सवाल करे तो वो क़ुरआन में जवाब तलाशते हैं। ये भी इल्म का फ़ितना है, दज्जालियत है कि अल्लाह और रसूल से आगे बढ़ कर सही को ग़लत और ग़लत को सही बताने पर अड़ जाते हैं।

अल्लाह हमें सही दीन की समझ अता फरमाए और नेक लोगों का साथ नसीब फ़रमाए।

आमीन या रब्बुल आलामीन।



मुसन्निफ़ा (लेखिका): तबस्सुम शहज़ाद 



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