इल्म का फ़ितना और दज्जाल (पार्ट-1)
हज़रत मूसा और हज़रत खिज्र (علیہ السلام) की मुलाक़ात और सफ़र के इस क़िस्से में भी तीन ऐसे वाक़ियात है। जो अल्लाह की हिक़मत और मसलेहत के राज़ हम पर खोलते हैं।
इंसान क्योंकि कमज़ोर पैदा किया गया है, कुछ भी अपनी मर्ज़ी के खिलाफ होता देखकर बेसब्रा हो जाता है। लेकिन हुक्म तो सब्र करने का है, सब्र से अल्लाह की मदद आती है और वो किसी भी ख़ैर के काम में हो।
कितनी गहरी आयत है कि "सब्र करने वालों के साथ अल्लाह है।"
मिसाल के तौर पर एक बड़ा ऑफिसर किसी इंसान के साथ हो तो वो इंसान फख़्र करने लगता है और सोचने लगता है कि अब मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता या मेरा काम तो बन ही जाएगा। लेकिन जिसका साथ अल्लाह ने देने का वादा किया है वो सब्र करने की क्वालिटी रखने वाला इंसान है। क्या ऐसा इंसान नाकाम हो जाएगा?
अल्लाह हमें भी अपने साबिर और शाकिर बंदों में शामिल फ़रमाये। आमीन
सूरह कहफ़ की आयत 60 से आयत 82 तक और हदीस (सहीह बुख़ारी:3401) की रोशनी में भी हम इस क़िस्से से सबक़ हासिल करेंगे।
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के सफ़र की वजह बनी इसराइल के एक शख़्स का सवाल करना है जिसके जवाब पर मूसा (علیہ السلام) ने उस वक़्त खुद को ज़मीन पर सबसे ज़्यादा इल्म वाला बताया, उन्हें अल्लाह की तरफ़ इल्म की निसबत करनी थी। अल्लाह ने उनको अ़ताब (admonish) किया और उनकी तरबियत के लिए अपने उस बंदे (हज़रत ख़िज़्र علیہ السلام) के बारे में बताया जिसको अल्लाह ने ख़ास इल्म अता किया था।
मूसा अलैहिस्सलाम ने उनसे मुलाकात की ख़्वाहिश की। और फिर अल्लाह ने उनको कुछ निशानियां बताई।
इल्म हासिल करने का पक्का इरादा और मेहनत
मूसा अलेहिस्सलाम अपने नौजवान शागिर्द हज़रत यूशा बिन नौंन के साथ इस अज़्म के साथ सफर पर निकले कि दो दरियां के मिलने तक चलते रहेंगे, चाहे बरसों चलना पड़े।
हज़रत ख़िज़्र कौन थे?
अल्लाह ने आयत 65 में हज़रत ख़िज़्र (علیہ السلام) का तआरूफ़ इस तरह कराया है।
"فَوَجَدَا عَبۡدًا مِّنۡ عِبَادِنَاۤ اٰتَيۡنٰهُ رَحۡمَةً مِّنۡ عِنۡدِنَا وَعَلَّمۡنٰهُ مِنۡ لَّدُنَّا عِلۡمًا"
आयत का मफ़हूम है कि हज़रत ख़िज़्र (علیہ السلام) को अल्लाह ने अपनी रहमत से भी नवाज़ा हुआ था और अपने पास से 'खास' इल्म भी अता किया था। ख़ास इल्म से मुराद तकवीनी इल्म (cosmogonic matters) है, आइंदा होने वाले वाक़ियात का अल्लाह की तरफ़ से कोई इलहाम हो जाना।
(इस आयत की रोशनी में हमें इस क़िस्से से भी ज़्यादा से ज़्यादा सबक हासिल करने पर ज़ोर देना चाहिए न कि इस बात पर कि हज़रत ख़िज़्र (علیہ السلام) वली या नबी थे। हां, वो खास बन्दे ज़रूर थे क्योंकि इस बारे में क़ुरआन ख़ामोश है और हदीस में उनके नाम की वज़ाहत हुई है कि एक जगह उनके बैठने पर ज़मीन हरी भरी हो गई तो उनका नाम हज़रत ख़िज़्र पड़ा।
और हम ये भी जानते हैं कि क़ुरआन तारीख़ी किताब नहीं, अल्लाह ने हमारी हिदायत के लिए ज़रूरी 22 आयतें हक़ के साथ नाज़िल की और ख़ज़ाने इतने है कि तफ़सीरें बन जाती है। जैसा कि अल्लाह ने फ़रमाया है कि, "अल्लाह की बातें कभी ख़त्म नहीं होगी।" (सूरह कहफ:109 और सूरह लुकमान:27)
दो इल्म के दरिया
हज़रत मूसा (علیہ السلام) और हज़रत ख़िज़्र (علیہ السلام) दोनो ही अल्लाह के चुने हुए बंदे थे। अल्लाह ही ने दो इल्म वालों की मुलाक़ात की जगह भी दो दरिया का सगंम (junction) चुना। अल्लाह ने मूसा (علیہ السلام) को शरियत का इल्म (Islamic knowledge) दिया था और हज़रत खिज्र (علیہ السلام) को तकवीनी अमवूर (cosmogonic matters) का इल्म दिया था।
यानि अल्लाह जितना इल्म जिसको दे उतना ही उसके पास होता है लेकिन मूसा (علیہ السلام) का रुतबा भी अपनी जगह यक़ीनी है कि वो नबी और रसूल हैं। उनका ज़िक्र भी क़ुरआन में बार-बार आया है।
इल्म के रास्ते में शैतान का दख़ल और मछली का निशानी बनना
दरिया का संगम जहां उन्हें अल्लाह के ख़ास बंदे से मिलना था, उसका पता बताने के लिए अल्लाह ने एक भुनी मछली, जो कुछ बड़े साइज़ की थी, अपने साथ रखने का हुक्म दिया था। ये मछली सफर में उनका खाना भी थी।(इस तरह अल्लाह हमें सेहतमंद (healthy) खाने की भी तरगीब देता है कि दिन की शुरुआत भी हैल्दी खाने से हो)
लंबे सफर से जब अगली सुबह थकान हुई तब हज़रत मूसा (علیہ السلام) ने अपने शागिर्द को सुबह का खाना लाने को कहा। इस वक़्त हज़रत यूशा बिन नौन को याद आया कि आराम के वक़्त चट्टान के पास ही मछली जिंदा होकर अजीब तरह सुरंग बनाकर दरिया में चली गई थी।
शैतान ने उन्हें इसका ज़िक्र करना ही भुला दिया क्योकि एक हैरतअंगेज वाकिया का भूल जाना मामूली बात नहीं। इस तरह शैतान ने इल्म के रास्ते में रूकावट और परेशानी पैदा करनी चाही। मछली का ज़िन्दा हो जाना भी अल्लाह की निशानी है कि पके, भुने, तले हुए खाने को भी अल्लाह जिंदगी दे देता है।
पानी में सुरंग बनने का अजीब वाकिया
हदीस में मिलता है कि अल्लाह ने मछली पर पानी रोक दिया था और फिर वो महराब (arch) की तरह बन गई थी।वो दोनों हज़रात भी ऐसे वली से मिलने वाले थे, जिनसे मिलने के बाद और भी अजीब वाक़ियात पेश आने थे।
(कभी- कभी हम इंसानों को भी कुछ इशारे अल्लाह की तरफ़ से मिलते हैं। कुछ रूकावटे भी होती हैं। जिन्हें हम समझ नहीं पाते। इसलिए हमें दुआ करनी चाहिए या कशमकश पर इस्तिख़ारे की दुआ यानि अल्लाह के मशवरे से काम करने का हुक्म है।)
हजरत खिज्र अलै से मुलाक़ात
जब हज़रत मूसा (علیہ السلام) ने हज़रत ख़िज़्र (علیہ السلام) से उनके साथ कुछ वक़्त रहकर अल्लाह का अता ख़ास इल्म सीखने की ख़्वाहिश की तो सब्र करने की शर्त के साथ सफर शुरू हुआ कि मूसा (علیہ السلام) खुद कोई सवाल नहीं करेंगे जब तक वो खुद उनको नहीं बताये।
खास बात:
- यहां हमारे सीखने की बात ये है कि इल्म हासिल करने के लिए सब्र और आजिज़ी पहली शर्त है। अल्लाह वालों की सोहबत मिलना अल्लाह की नेअमत है चाहे दूर तक सफ़र करना पड़े और उस्ताद की इज्ज़त और फ़रमाबरदारी भी फ़र्ज़ है। हदीस में मिलता है कि "जो इल्म सीखने के लिए कोई राह इख़्तियार करता है अल्लाह उसके लिए जन्नत की राह आसान कर देता है।"
- दूसरी बात सफ़र करने से भी इंसान को बहुत तजुर्बे हासिल होते हैं और इल्म की नीयत से किया सफ़र तो फिर इबादत बन जाता है। (और दीन सीखने के लिए चीन तक जाने वाली हदीस तो मनघड़ंत ही बताई जाती है।)
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम का इम्तेहान
1. हजरत खिज्र (علیہ السلام) जिस कश्ती में सवार हुए उसमे छेद कर दिया या तख़्ता उखाड़ दिया। ये ऐसा ख़तरनाक काम था कि सब लोग पानी में डूब सकते थे। जिस पर मूसा (علیہ السلام) ने شَيۡـئًـا اِمۡرًا यानि बड़ी भारी ख़तरनाक ग़लती के साथ ऐतराज़ किया तो हज़रत खिज्र (علیہ السلام) ने उन्हें सफ़र की शर्त याद दिलाई । मूसा (علیہ السلام) ने अपनी भूल पर दरगुज़र की दरख्वास्त की। फिर वो आगे निकले।
2. आगे सफ़र में हज़रत ख़िज़्र (علیہ السلام) ने एक नाबालिग बच्चे को बिना किसी ग़लती के क़त्ल कर दिया।मूसा (علیہ السلام) का इम्तिहान और सख़्त हो चला था। उन्हें शरियत का इल्म था और एक नबी क़त्ल होता देखकर कैसे ख़ामोश हो सकते थे? इस बार वो बोले आपने बड़ा नापसंदीदा काम किया (شَيۡـئًـا نُّـكۡرًا) क्योंकि अब तो जान ही चली गई थी। फिर हज़रत ख़िज़्र (علیہ السلام) ने दोहराया कि आपको बताया था कि सब्र नहीं कर सकोगे। फिर से हज़रत मूसा (علیہ السلام) ने आख़िरी मौके देने की दरख्वास्त की।
قَالَ هٰذَا فِرَاقُ بَيۡنِىۡ وَبَيۡنِكَ ۚ سَاُنَـبِّئُكَ بِتَاۡوِيۡلِ مَا لَمۡ تَسۡتَطِعْ عَّلَيۡهِ صَبۡرًا
उसने कहा, “बस मेरा-तुम्हारा साथ ख़त्म हुआ। अब मैं तुम्हें उन बातों की हक़ीक़त बताता हूँ जिनपर तुम सब्र न कर सके।"
हज़रत ख़िज़्र (علیہ السلام) ने उन्हें अल्लाह की हिकमत समझाई , कि जो कुछ उन्होंने किया, अपनी मर्ज़ी से नहीं किया बल्कि अल्लाह के हुक्म से किया।
1. ऐबदार कश्ती ज़ालिम बादशाह से बची..जो सही दुरुस्त कश्ती ज़बरदस्ती हड़प रहा था।
2. लड़के में बदकिरदार होने के असरात मौजूद थे जैसे नबी ﷺ ने औलाद की पैदाइश के इरादे के लिए भी शैतान से हिफ़ाज़त की दुआ बताई हैं। नेक वालिदैन वक़्ती तौर पर रंज तो करेंगे, लेकिन अल्लाह उनको सब्र का बदला भी देगा और नेक औलाद से नवाज़ेगा।
3. दीवार की मरम्मत होने पर नेक बाप की औलाद के बच्चे जो अभी यतीम थे, बालिग़ होकर अपना खज़ाना निकाल लेंगे दीवार गिरने पर वो ख़ज़ाना उन लोगों के हाथ लग जाता जिनकी कंजूसी भी आजमाई जा चुकी।
इन वाकियात पर नबी करीम (ﷺ) की हदीस पाक है "अल्लाह ताअला मूसा (अलै) पर रहम करे, अगर उन्होंने सब्र किया होता तो उनके मज़ीद वाकियात हमें मालूम होते।"
क़िस्से का हासिल
हमारे लिए सीखने की बात ये है कि अल्लाह की मसलेहत और हिकमत हमें समझ आए या न आए हमें सब्र भी करना है और अल्लाह से ख़ैर की दुआ भी करते रहना है। एक हदीस पाक का मफ़हूम भी है कि "तक़दीर लिखी जा चुकी है लेकिन नेक अमल करते रहना चाहिए।"
तौहीद पर ईमान लाने के बाद अच्छी-बुरी तक़दीर पर भी ईमान लाने का हुक्म है और हर हालात पर शुक्र और सब्र करने का भी हुक्म है कई बार इंसान की जिंदगी में ऐसे हादसे होते हैं कि इंसान का ईमान डगमगा जाता है तब सब्र की ज़रूरत होती है। सूरह असर भी एक-दूसरे को सब्र की तलक़ीन का हुक्म देती है।
रिवायतो में है कि "मोमिन का मामला भी अजीब है कि शुक्र करने पर सवाब और सब्र करने पर भी अल्लाह दरजे बुलंद करता है।" और एक हदीस का ये मफ़हूम भी है कि "अगर कोई नुक्सान पहुंचे तो ये ना कहो काश! मैं ऐसा करता तो ऐसा ऐसा होता बल्कि ये कहो ये अल्लाह की तकदीर है, वो जो चाहता है करता है" इसलिए काश कहना शैतान के अमल (के दरवाज़े) खोल देता है।
दुआ की अहमियत और तक़दीर
हमें हर मोड़ पर अल्लाह चाहिए। रसूल अल्लाह (ﷺ) ने फरमाया,
"दुआ के सिवा तक़दीर को कोई चीज़ लौटा नही सकती, और नेकी के सिवा कोई चीज़ उमर में इज़ाफ़ा नही कर सकती।"
[अल-सिलसिला सहिहा-2992, हसन; तबरानी दुआ-हदीस 26,हसन]
इसलिए मायूस भी नहीं होना है। क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है कि,
"अल्लाह जो चाहता है मिटा देता है और जिस चीज़ को चाहता है, क़ायम रखता है, उम्मुल किताब (लोहे महफ़ूज) उसी के पास है।"
[सूरह रअद :39]
हदीस में ये भी मिलता है कि "हर चीज अल्लाह की मुकर्रर करदा मिक़दार से है, यहां तक कि किसी काम को न कर सकना भी, या कर देखना भी।"
अक्सर हम ये भी देखते हैं कि लोग दूसरो के साथ बुरा होते देख कर या किसी का नुक्सान होते देखकर भी उसे उसके गुनाहो की सज़ा समझने लगते हैं... या कोई दुश्मनी या बुगज़ की वजह से खुश होते हैं। ये रूह कंपकंपा देने वाली हदीस है जिसे भूलना नहीं चाहिए कि "इंसान एक मुद्दत तक अहले जन्नत के से अमल करता रहता है फिर उसके अमल का खातमा अहले जहन्नुम के से अमल पर होता है।" क्योंकि हम किसी चीज़ के ज़ाहिरी पहलू को ही देख सकते हैं। जो शर है उसमें ख़ैर हो सकती है और किसी चीज़ को हम अच्छा समझ रहे हो और वो हमारे लिए बुरी है ये भी अल्लाह ही जानता है।
दज्जाल का इस क़िस्से से ताल्लुक
दज्जाल को अल्लाह ऐसा इल्म देगा जो ईमान वालों की आज़माईश होगा। उसके पास जो जन्नत होगी वो जहान्नुम होगी और वो जहान्नुम दिखायेगा तो वो जन्नत होगी। उसके पास उझाने वाला (confuse) झूठा इल्म होगा। आज हम देखें कि दज्जाल के एजेंट उसके आने से पहले ही कितना झूठ और मनघड़ंत इल्म फैला रहे हैं और उनमें शयातीन भी शामिल हैं।
सच तो ये है कि हम झूठी दुनिया (Fake World) में रह रहें हैं। जहां हर जगह धोखा (deception) है। जो दिखाई देता है हक़ीक़त उससे अलग होती है। ग्लैमर,ज़ाहिरी चमक दमक में इंसान हक़ीक़त और अल्लाह से दूर हो गया है। ये फ़ितनो का दौर है।
इसी क़िस्से के आर्टिकल 2 में हम इंशा अल्लाह दज्जालियत के साथ तक़दीर और सब्र से जुड़ी कुछ ज़रूरी बातें साझा करेंगे।
अल्लाह हमें नफ़ा देने वाला इल्म, नेक आमाल पर इसतिक़ामत अता फरमाए और मुश्किल हालात में हिम्मत और सब्र अता फ़रमाये। आमीन या रब्बुल आलामीन।
मुसन्निफ़ा (लेखिका): तबस्सुम शहज़ाद
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