ज्यादा बोलना कैसा हैं? इस्लाम में काम बोलने के फायदे
ज्यादा बोलना जहां कई तरह की परेशानियों की वजह बन जाता है, वहीं चुप्पी, मौन और खामोशी हमें कई मुसीबतों से बचाती है। इस्लामी शिक्षा में मौन या कहें कि खामोशी को अहमियत दी गई है। इंसान का खामोश रहना उसे इबादत का सवाब दिलाता है। किसी बात पर बिना सोचे-समझे बोलने से अच्छा होता है खामोश रहना।
खामोशी से कलह मिटती है। अक्सर चुप या ख़ामोश रहने से हमारे आपसी रिश्ते की आबरू बच जाती है, वहीं ज्यादा बोलना रिश्तों में खराबी पैदा कर देती है इसी लिए इस्लाम कहता है कि बोलो तो अच्छा बोलो वरना, खामोशी बेहतर है। रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमायाः
"जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है वो बेहतर बात कहें या ख़ामोश रहें।" [सहीह बुखारी-6019]
पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) ने फरमाया कि सबसे ज्यादा नुकसानदेह चीज ज़ुबान है। अच्छी बात खामोशी से बेहतर है और बुरी बात से खामोशी बेहतर है। खामोश रहने से इंसान चिंतन की ओर बढ़ता है।
आज हम देखते है कि सोशल मीडिया से लेकर आम जिंदगी में क्या हम और आप इस तरफ ध्यान दे रहे हैं कि कही हम ज्यादा तो नहीं बोलते हैं?
अक्सर देखा जाता कि सोशल मीडिया से लेकर आम जिंदगी में हमारे भाई-बहन कुछ ज्यादा ही बोलते हैं और ज़रा-ज़रा सी बात को बहुत बड़ा बना देते हैं। जिन बातों का कोई मतलब ही नहीं उन को बे-वजह बोलते रहते हैं।और कभी कभी ऐसा भी देखा जाता है की अच्छी बातों से शुरू होने वाली गुफ्तगू लड़ाई झगड़े में बदल जाती है, हम समझ नहीं पते बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई। इस दौरान हम एक दूसरे की कितनी बुराई कर जाते है, कुछ लोग तो गली-गलौच और मरने-मारने पर भी उतारू हो जाते है। शैतान जम कर इस बात का फ़ायदा उठता है और मज़ीद इस लड़ाई को बढ़ा के किनारे खिसक जाता है।
अक्सर घरों में देखा जाता है आपस में भाई-बहन आपस में खूब हसते बोलते हैं और खुशनुमा माहौल बन जाता है जिससे आपसी मोहब्बत बढ़ती है, एक दूसरे को समझने और जानने का अच्छा मौका मिलता है पर बात अपने खुद के परिवार की नहीं बल्कि उनकी है जिनसे हमारा दुनियावी ताल्लुक़ है।
इसी तरह हमारे पड़ोसियों से हमारे ताल्लुकात उम्दह होने चाहिए पर इसका मतलब ये नहीं के हम उनसे हर वक़्त बातें करते रहें बल्कि उनके साथ हुस्न ए सुलूक करें। ज़्यादह बोलना अक्सर रिश्तों को बिगड़ देता है। शैतान हर उस काम में शमिल होता है जिन कामो से हमें मना किया गया है।
हद तो यह हो गई की कुछ दीनदार लोग भी इस तरह की बातो में मशरूफ हैं। इल्म होते हुए भी ऐसी वाहियात गुफ्तगू में शामिल हो जाते हैं जिनका कोई मतलब नहीं। हसी मज़ाक, दूसरों की बुराई, खुद की बढ़ाई वग़ैरह मामूली सी बात होती जा रही है।
मेरे प्यारे भाई-बहनों कुछ दिनो की यह जिंदगी हैं इस को फिजूल बातों में न गुजारों बल्कि फरमान-ए-इलाही के मुताबिक गुजारों। आपकी ज़ुबान से निकला हर अल्फाज अच्छा हो या बुरा फरिश्ते लिख रहे हैं और उन्हे कयामत के दिन अल्लाह की अदालत में पेश किया जाएगा। लेहाजा कोशिश यह करें कि जब हमारा नामा ए आमाल पेश हो तो शर्मिन्दा न होना पड़े।
"कहा जायेगा कि लो पढ़ लो अपना आमाल नामा आज तुम खुद अपना हिसाब लेने के लिए काफी हो।" [क़ुरान 17:14]
मेरे प्यारे भाई-बहनों अपनी जिंदगी के हर लम्हे को गनीमत जानो सोशल मीडिया से लेकर आम जिंदगी में ज्यादा मत बोलों जरुरत के मुताबिक ही बात करो। सोशल मीडिया से लेकर आम जिंदगी में गैरमहरम लड़का-लड़की आपस में जितना हो सके उतना ही दूर रहे, यह आपके हक में बेहतर होगा वरना शैतान को बहकाने में देर नहीं लगती।
अफ़सोस कुछ दीनी भाई-बहन जो दिन-रात दीन का काम करते हैं मगर इसके साथ-साथ फालतू बाते भी करते हैं हद से ज्यादा हँसी-मजाक भी करते हैं। ऐसा क्यू? क्या का दीनदार होना सिर्फ दिखावा है? क्या इस्लाम ऐसी गुफ्तगू की इजाज़त देता है?
नहीं, बिलकुल भी नहीं। इस्लाम सबके लिए एक जैसा नियम रखता है,जो आम लोगों के लिए मना किया गया है वो खास के लिए भी फिर चाहे वो आलीम हो, मौलवी हो या मस्जिद का इमाम। मेरे प्यारे दीनी भाई-बहनों अगर आप लोग ही इस तरह फिजूल बातें और बेहुदा हरकरते करेगें तो फिर उम्म्त की इस्लाह कौन करेगा?
अक्सर देखा जाता है लड़कियां फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम वगैरह पर दीनी अकाउंट बनाती है और बाकायदगी से अपना नाम लिखती है, अपनी पहचान बताती है के वो लड़की हैं। पहले पहल तो वो लड़कों को मुँह नहीं लगाती फिर धीरे धीरे लड़के उनसे दीन से मुत्तालिक बात पूछने की गरज़ से उनको इनबॉक्स में बुलाते है फिर वही से बातों का सिलसिला शुरू हो जाता है। बड़ा मुश्किल होता है खुद की नफ़्स पे काबू पाना। बस यही लड़कियां अपने मकसद को पूरा करने के बजाये शैतान के बहकावे में आ जाती है और सही से गलत राह में भटक जाती हैं।
पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) ने फरमाया कि सबसे ज्यादा नुकसानदेह चीज ज़ुबान है। अच्छी बात खामोशी से बेहतर है और बुरी बात से खामोशी बेहतर है। खामोश रहने से इंसान चिंतन की ओर बढ़ता है।
आज हम देखते है कि सोशल मीडिया से लेकर आम जिंदगी में क्या हम और आप इस तरफ ध्यान दे रहे हैं कि कही हम ज्यादा तो नहीं बोलते हैं?
अक्सर देखा जाता कि सोशल मीडिया से लेकर आम जिंदगी में हमारे भाई-बहन कुछ ज्यादा ही बोलते हैं और ज़रा-ज़रा सी बात को बहुत बड़ा बना देते हैं। जिन बातों का कोई मतलब ही नहीं उन को बे-वजह बोलते रहते हैं।और कभी कभी ऐसा भी देखा जाता है की अच्छी बातों से शुरू होने वाली गुफ्तगू लड़ाई झगड़े में बदल जाती है, हम समझ नहीं पते बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई। इस दौरान हम एक दूसरे की कितनी बुराई कर जाते है, कुछ लोग तो गली-गलौच और मरने-मारने पर भी उतारू हो जाते है। शैतान जम कर इस बात का फ़ायदा उठता है और मज़ीद इस लड़ाई को बढ़ा के किनारे खिसक जाता है।
अक्सर घरों में देखा जाता है आपस में भाई-बहन आपस में खूब हसते बोलते हैं और खुशनुमा माहौल बन जाता है जिससे आपसी मोहब्बत बढ़ती है, एक दूसरे को समझने और जानने का अच्छा मौका मिलता है पर बात अपने खुद के परिवार की नहीं बल्कि उनकी है जिनसे हमारा दुनियावी ताल्लुक़ है।
इसी तरह हमारे पड़ोसियों से हमारे ताल्लुकात उम्दह होने चाहिए पर इसका मतलब ये नहीं के हम उनसे हर वक़्त बातें करते रहें बल्कि उनके साथ हुस्न ए सुलूक करें। ज़्यादह बोलना अक्सर रिश्तों को बिगड़ देता है। शैतान हर उस काम में शमिल होता है जिन कामो से हमें मना किया गया है।
हद तो यह हो गई की कुछ दीनदार लोग भी इस तरह की बातो में मशरूफ हैं। इल्म होते हुए भी ऐसी वाहियात गुफ्तगू में शामिल हो जाते हैं जिनका कोई मतलब नहीं। हसी मज़ाक, दूसरों की बुराई, खुद की बढ़ाई वग़ैरह मामूली सी बात होती जा रही है।
मेरे प्यारे भाई-बहनों कुछ दिनो की यह जिंदगी हैं इस को फिजूल बातों में न गुजारों बल्कि फरमान-ए-इलाही के मुताबिक गुजारों। आपकी ज़ुबान से निकला हर अल्फाज अच्छा हो या बुरा फरिश्ते लिख रहे हैं और उन्हे कयामत के दिन अल्लाह की अदालत में पेश किया जाएगा। लेहाजा कोशिश यह करें कि जब हमारा नामा ए आमाल पेश हो तो शर्मिन्दा न होना पड़े।
"कहा जायेगा कि लो पढ़ लो अपना आमाल नामा आज तुम खुद अपना हिसाब लेने के लिए काफी हो।" [क़ुरान 17:14]
मेरे प्यारे भाई-बहनों अपनी जिंदगी के हर लम्हे को गनीमत जानो सोशल मीडिया से लेकर आम जिंदगी में ज्यादा मत बोलों जरुरत के मुताबिक ही बात करो। सोशल मीडिया से लेकर आम जिंदगी में गैरमहरम लड़का-लड़की आपस में जितना हो सके उतना ही दूर रहे, यह आपके हक में बेहतर होगा वरना शैतान को बहकाने में देर नहीं लगती।
अफ़सोस कुछ दीनी भाई-बहन जो दिन-रात दीन का काम करते हैं मगर इसके साथ-साथ फालतू बाते भी करते हैं हद से ज्यादा हँसी-मजाक भी करते हैं। ऐसा क्यू? क्या का दीनदार होना सिर्फ दिखावा है? क्या इस्लाम ऐसी गुफ्तगू की इजाज़त देता है?
नहीं, बिलकुल भी नहीं। इस्लाम सबके लिए एक जैसा नियम रखता है,जो आम लोगों के लिए मना किया गया है वो खास के लिए भी फिर चाहे वो आलीम हो, मौलवी हो या मस्जिद का इमाम। मेरे प्यारे दीनी भाई-बहनों अगर आप लोग ही इस तरह फिजूल बातें और बेहुदा हरकरते करेगें तो फिर उम्म्त की इस्लाह कौन करेगा?
अक्सर देखा जाता है लड़कियां फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम वगैरह पर दीनी अकाउंट बनाती है और बाकायदगी से अपना नाम लिखती है, अपनी पहचान बताती है के वो लड़की हैं। पहले पहल तो वो लड़कों को मुँह नहीं लगाती फिर धीरे धीरे लड़के उनसे दीन से मुत्तालिक बात पूछने की गरज़ से उनको इनबॉक्स में बुलाते है फिर वही से बातों का सिलसिला शुरू हो जाता है। बड़ा मुश्किल होता है खुद की नफ़्स पे काबू पाना। बस यही लड़कियां अपने मकसद को पूरा करने के बजाये शैतान के बहकावे में आ जाती है और सही से गलत राह में भटक जाती हैं।
औरत की आवाज़ फितना है फिर उसका नाम और उसके सोशल मीडिया पर सरे आम होना, गैर मेहरम से बातें करना कैसे सही हो सकता है? अल्लाह ताला फरमाता है:
"लग़्वियात (बेकार की बातों) से दूर रहते हैं।" [क़ुरान 23:3]
हर वह काम जो काम जो बेफिज़ूल , ला-हासिल और ला-इल्मी हो उन्हें लग़्वियात वाली बातें कहते हैं। जिन कामों का कोई फायदा ना हो, जिससे कोई नतीजा न निकले, जिसकी कोई हक़ीकी जरूरत ना हो, जिनसे कोई अच्छा मकसद हासिल ना हो उन सारी बातें पुख्ता ईमान वाले तवज्जो नहीं करते। उनकी तरफ रुख नहीं करते, उनमें कोई दिलचस्पी नहीं लेते, जहां ऐसी बातें हो रही हो या ऐसे काम हो रहे हो वहां जाने से परहेज करते हैं, ऐसी बातों में हिस्सा लेने से परहेज़ करते हैं, और अगर कहीं ऐसी बातें पेश आ ही जाए तो टाल जाते हैं, कतरा के निकल जाते हैं। मोमिन वो शख्स वह होता है जिसे हर वक्त अपनी जिम्मेदारी का एहसास रहता है सोचता है कि दुनिया दरअसल एक इम्तिहान गाह है और जिस चीज को जिंदगी, उम्र और वक्त के मुख्तलिफ नामों से याद किया जाता है वह दर हकीकत एक नपी तुली मुद्दत है जो इसे इम्तिहान के लिए दी गई है।
"लग़्वियात (बेकार की बातों) से दूर रहते हैं।" [क़ुरान 23:3]
हर वह काम जो काम जो बेफिज़ूल , ला-हासिल और ला-इल्मी हो उन्हें लग़्वियात वाली बातें कहते हैं। जिन कामों का कोई फायदा ना हो, जिससे कोई नतीजा न निकले, जिसकी कोई हक़ीकी जरूरत ना हो, जिनसे कोई अच्छा मकसद हासिल ना हो उन सारी बातें पुख्ता ईमान वाले तवज्जो नहीं करते। उनकी तरफ रुख नहीं करते, उनमें कोई दिलचस्पी नहीं लेते, जहां ऐसी बातें हो रही हो या ऐसे काम हो रहे हो वहां जाने से परहेज करते हैं, ऐसी बातों में हिस्सा लेने से परहेज़ करते हैं, और अगर कहीं ऐसी बातें पेश आ ही जाए तो टाल जाते हैं, कतरा के निकल जाते हैं। मोमिन वो शख्स वह होता है जिसे हर वक्त अपनी जिम्मेदारी का एहसास रहता है सोचता है कि दुनिया दरअसल एक इम्तिहान गाह है और जिस चीज को जिंदगी, उम्र और वक्त के मुख्तलिफ नामों से याद किया जाता है वह दर हकीकत एक नपी तुली मुद्दत है जो इसे इम्तिहान के लिए दी गई है।
हम तमाम अहले ईमान भाई-बहनों को चाहिए कि हम और आप काफी अहतियात से बात करें और ज्यादा बात न करें, जरूरत के मुताबिक ही बात करें और बेहतर बात करें वरना खामोश रहें। ज्यादा बोलने वाले और फिजूल बाते करने वाले लोग अल्लाह को पसंद नहीं। आइए हम और आप जाने कि ज्यादा बोलने के ताल्लुक से कुरान - हदीस हमें क्या रहनुमाई करती हैं। फरमान ए इलाही :
"किसी ऐसी चीज के पीछे न लगो जिसका तुम्हे इल्म न हो यकीनन आँख , कान और दिल सब की पूछ होनी हैं।" [क़ुरान 17:36]
सोशल मीडिया से लेकर आम जिंदगी में जो लोग ज्यादा बोलते रहते हैं, फिजूल बातें करते रहते हैं, लोगों को ताना देते रहते हैं, लोगों को अपनी जुबान से तकलीफ देते रहते हैं वह जरा इस हदीस ए नबवी पर गौर फरमाए। रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया:
"जुबान को काबू में रखो अपने घर को काफी जानों और अपनी खताओं पर रोते रहो यही निजात हैं।" [तिर्मिज़ी -2406]
अब हम सोशल मीडिया से बहार निकल कर हम खुद के घर में देखे तो हमारे घर की औरतें अक्सर फ़ोन पर घंटो मसरूफ रहती है। कभी मायके से फ़ोन तो कभी ससुराली रिश्तेदारों के फ़ोन और बात न करें तो भी कई तरह की बातें सुनने को मिलती है कभी घमंडी कहा जाता है तो कभी बद्तमीज़। इन फ़ोन कॉल्स की वजह से औरतें इतनी मसरूफ हो जाती हैं के बच्चो पर ध्यान नहीं देती। घंटों होने वाली बातें ग़ीबत जैसे अज़ीम गुनाह को दावत देती हैं। याद रखें ग़ीबत करने वाले को फ़लाह नही मिलती, वह बुरा बनता है, आख़िर मे इंसानो की नज़र मे, फ़रिश्तों की नज़र मे और सब से बढ़ कर अपने रब की नज़र मे। आपसी लड़ाई भी बहुत ज़्यादह बोलने की वजह से हो जाती है।
मैं ये तो नहीं कहती कि आप आपस में बात न करें बल्कि थोड़ा बोले जितने की ज़रूरत है। आपसी मोहब्बत को सिर्फ बातों से नहीं बल्कि अपने कामो से ज़ाहिर करें, अपनों को खुश और करीब रखने के और भी बेहतर तरीके हैं तो क्यों न हम उन तरीकों को इस्तेमाल करें जो आपसी ताल-मेल को बेहतरीन बनाये न के बिगाड़ पैदा करने का सबब बने।
बेशक कम बोले पर जितना बोले दिल को खुश करने वाली बातें बोले, लोगों से खुश अख़्लाक़ी से पेश आएं। खुश रहे और दूसरों को भी खुश रखें।
जज़ाक अल्लाह खैरन कसिरा!
मुसन्निफ़ा (लेखिका): फ़िरोज़ा खान
2 टिप्पणियाँ
Beshak,Islam ki khoobi yhi hai k fizool baton ko chhodh diya jaye.
जवाब देंहटाएंBeshaq
जवाब देंहटाएंकृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।