फरियाद से फतह तक
हर दौर में इंसानियत की सरज़मीं पर दो क़ौमें पाई गईं हैं,
- एक ज़ालिम,
- दूसरी मजलूम।
लेकिन इतिहास गवाह है कि ज़ालिम हमेशा नहीं जीता, और मजलूम हमेशा नहीं हारा। जब भी मजलूम ने अपने जोश, अपने इल्म और अपने ईमान को हथियार बनाया है, तब तक़दीर का नक्शा बदला है। आज का मुसलमान अगर किसी दबाव, ज़ुल्म या बेइंसाफी से गुज़र रहा है, तो सबसे पहले उसे ये समझना होगा कि शिकवा करने से कभी भी कफस (क़ैद) नहीं टूटा करता। फरियादों से न ज़ालिम का दिल पिघलता है, न उसकी जंजीरें ढीली होती हैं।
इस दुनिया की तारीख गवाह है कि जब-जब ज़ुल्म बढ़ा है, तब-तब मजलूमों ने सब्र और हिम्मत से उसके सामने खड़े होकर जालिम का मुकाबला किया है। आज भी हालात कुछ अलग नहीं हैं। जगह-जगह, मुल्क-दर-मुल्क, ज़ुल्म की सियासत अपने चरम पर है। कहीं पहचान के नाम पर, कहीं मज़हब के नाम पर, कहीं लिबास और कहीं लहज़े के नाम पर मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है।
मगर सवाल ये है:
क्या हम सिर्फ शिकवा करके, फरियाद करके, बेबसी के आँसू बहाकर इस क़ैद से निकल सकते हैं?क्या ज़ालिम से रहम की उम्मीद रखकर परवाज़ मुमकिन है?
कुरआन कहता है: "ला तक़नतू मिर रहमतिल्लाह" अल्लाह की रहमत से मायूस मत हो।
जालिम चाहे कितना भी ताक़तवर हो, वो अल्लाह से बड़ा नहीं। इसलिए ज़ालिम की ताक़त देखकर अपने इरादों को कमज़ोर मत पड़ने दो। वो जो आज ऊँचा नजर आ रहा है, कल मिट्टी में मिल जाएगा, लेकिन तुम अगर आज सब्र के साथ हिम्मत दिखाओगे, तो तुम्हारा नाम तारीख में लिखा जाएगा।
मुसलमान! तुझे मायूस होने का कोई हक़ नहीं। तू उस उम्मत का हिस्सा है जिसने बद्र में तादाद से नहीं, ईमान और हौसले से फतह हासिल की। तू उस क़ौम से है जिन्होंने हालात से नहीं, अपने इरादों से इतिहास बदला। अगर तू आज बेबस है, तो इसका कारण दूसरों की ताक़त नहीं, बल्कि तेरा खुद पर से उठा हुआ यकीन है। याद रख, जो कौम खुद को हार मान लेती है, उसे दुनिया भी कभी जीतने नहीं देती।
अगर कोई परिंदा शिकारी से रहम की भीख मांगेगा, तो शिकारी उसे कभी पर नहीं फैलाने देगा। शिकवा करना कमजोरी की निशानी है, हमें शिकवा नहीं, बल्कि तदबीर की ज़रूरत है। हमें अपनी आवाज़ उठानी है, लेकिन फरियाद की तरह नहीं, बल्कि हक़ की आवाज़ बनकर।
शिकवा एक ग़ुलाम की जुबान है। फरियाद करने वाला हमेशा किसी और की रहमत का मोहताज रहता है। और इस्लाम ने हमें मोहताज बनने नहीं, सर उठाकर जीने का पैग़ाम दिया है। हमें अब ये समझना होगा कि आवाज़ उठाने से पहले, आवाज़ की ताक़त पैदा करनी होती है। और वो ताक़त इल्म से आती है, हुनर से आती है, इत्तेहाद से आती है।
हमें अब फरियाद नहीं, तदबीर की ज़रूरत है।हर उस रास्ते पर चलना होगा जो हमें मज़बूत बनाए। शिकवा छोड़िए, सोचना शुरू कीजिए,तदबीर बनाइए और फिर अमल में लाइए।
मुसलमानों! आज वक़्त आ गया है कि हम मस्जिदों में सिर झुकाने के साथ-साथ दुनिया में सिर उठाकर चलने का हुनर भी सीखें। इल्म हमारा असल हथियार है, हुनर हमारी असली ताक़त है, और इत्तेहाद (एकता) हमारी सबसे बड़ी ढाल।
हमारी सबसे बड़ी कमज़ोरी हमारी बिखरी हुई हालत है। मस्लक, फिरके, ज़ात, तहज़ीब — सब में हम इस क़दर बंट गए हैं कि ज़ालिम आराम से हम पर हुकूमत करता है।
याद रखो, ज़ुल्म हमेशा वहीं फलता है जहाँ इत्तेहाद नहीं होता।
इसलिए अब जरूरी है कि हम अपने मसाइल को भूलकर, एक क़ौम, एक उम्मत की शक्ल में खड़े हों।ज़ालिम का सबसे बड़ा डर ये है कि मजलूम एक हो जाएं। हमारी सबसे बड़ी ताक़त, हमारी एकता है। अगर हम एक हो जाएं, दिलों से, सोच से, मक़सद से तो ज़ुल्म की दीवारें खुद-ब-खुद गिरने लगेंगी।
अब हर मजलूम को मुजाहिद बनना होगा, हर खामोश लब को अल्लाह के नाम पर बोलना होगा।
✍🏻 डॉक्टर शाहनवाज़ अंसारी (मुताला-ए-कुरआन एकेडमी)
1 टिप्पणियाँ
Bilkul sahi Baat hai bhai 🚻
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