उम्मत का दर्द: हालात, हक़ीकत और राह-ए-नजात
दुनियाभर में मुसलमानों की बुरी हालत एक ऐसी हकीकत है जिसे कोई भी इनकार नहीं कर सकता। हर कोने में मुसलमान कहीं मज़लूम हैं, कहीं कमज़ोर, और कहीं आपस में बंटे हुए। यह एक बहुत ही गंभीर और दर्दनाक हकीकत है कि आज दुनिया भर में मुसलमानों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। चाहे वो फिलिस्तीन हो, सीरिया, यमन, कश्मीर, उइगर मुसलमान, अफ्रीका या बर्मा हर जगह मुसलमान किसी न किसी रूप में जुल्म, अत्याचार, और अस्थिरता का शिकार हैं। इस हालत की कई वजहें हैं, जिनमें बाहरी साज़िशों के साथ-साथ हमारी अपनी कमज़ोरियाँ भी शामिल हैं।
हम इस दर्दनाक हालत की कुछ अहम वजहें और उसकी तस्वीर बयान कर रहे हैं — दीन और दुनियावी दोनों नजरियों से:
1. मज़लूमियत और ज़ुल्म का शिकार मुसलमान
फ़िलिस्तीन: दशकों से इज़रायल के ज़ुल्म और कब्ज़े में हैं। मासूम बच्चों और बेगुनाहों की जानें जा रही हैं।
सीरिया: गृहयुद्ध, बमबारी, लाखों शरणार्थी।
कश्मीर: हक़ की आवाज़ को कुचला जा रहा है।
चीन (उइगर मुसलमान): धार्मिक आज़ादी छीनी गई, मस्जिदें ढहाई गईं, क़ुरआन पढ़ना जुर्म बन गया।
भारत, म्यांमार, फ्रांस, यूरोप: इस्लामोफ़ोबिया, हिजाब बैन, गालियाँ, मॉब लिंचिंग, और पहचान पर हमला।
2. मुसलमानों की आपसी कमजोरी
i. आपसी तफरक़ा और इत्तिहाद की कमी: मुसलमान आज फिरकों, नस्लों, भाषाओं और मसलकों में बंट चुके हैं। हर एक अपने आपको सबसे बेहतर और दूसरे को कमतर समझता है। इस तफरक़े की वजह से हमारी ताक़त बिखर गई है और हम एक-दूसरे के खिलाफ ही खड़े हो गए हैं। कुरआन बार-बार इत्तिहाद की बात करता है:"और सब मिलकर अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से थाम लो और आपस में मत बिखरो।" [सूरह आले इमरान 3:103]
ii. दुनियावी मोहब्बत और आख़िरत की फ़रामोशी: हमारी उम्मत ने दीन की बुनियादी तालीमात को छोड़कर दुनियावी ऐशो-आराम और मालो-दौलत को अपना मक़सद बना लिया है। आख़िरत की तैयारी की जगह हम दुनिया के पीछे भाग रहे हैं, जबकि नबी ﷺ ने पहले ही इशारा फरमाया था:
iii. दीन से दूरी और जहालत: मुसलमानों की बड़ी तादाद आज अपने दीन से नावाकिफ़ है। हमें ना कुरआन की तालीमात का इल्म है, ना सुन्नत का सही शुऊर। जब उम्मत इल्म से दूर होती है, तो गुमराही और कमज़ोरी आ जाती है।
"अल्लाह तआला उसी को बलंद करता है जिसे इल्म दिया गया हो..." [सूरह मुजादिला 58:11]
iv. बेताल्लुकी और बेहिसी: जब कहीं मुसलमानों पर जुल्म होता है, तो बाक़ी दुनिया खामोश रहती है। यहाँ तक की खुद मुसलमान भी बेहिसी दिखाते हैं। हमें दूसरों के दर्द से दर्द महसूस करना छोड़ दिया है।
v. सियासी अदूरदर्शिता और कमजोर क़ियादत: आज के मुसलमान मुल्कों की क़ियादतें या तो भ्रष्ट हैं या फिर बाहरी ताक़तों की कठपुतलियाँ बन चुकी हैं। उनमें उम्मत का दर्द नहीं, बल्के अपनी कुर्सी और हुकूमत की फिक्र है।
vi. बाहरी ताक़तों की साज़िशें: दुश्मन मुसलमानों की ताक़त को देखकर हमेशा साज़िशें करता रहा है—चाहे वो औपनिवेशिक दौर हो, या आज की आधुनिक जंग। तालीम, मीडिया, और अर्थव्यवस्था के ज़रिए हमारी सोच को कंट्रोल किया जा रहा है।
vii. मीडिया प्रोपेगेंडा और इस्लामोफोबिया: दुनिया भर में इस्लाम और मुसलमानों को आतंकवाद से जोड़कर पेश किया जाता है। इससे न केवल ग़ैर-मुस्लिमों में नफ़रत फैलती है, बल्कि मुसलमान खुद भी शर्मिंदगी का शिकार हो जाते हैं।
viii. फिरक़ापरस्ती: सुन्नी-शिया में तफरीक, बरेलवी-देवबंदी, अहले हदीस में तकरार, एक-दूसरे को काफिर, मुनाफिक, बिदअती कहना, यह सब आम होता जा रहा है। यह तफरीक़ें हमें तोड़ रही हैं।
ix. हुकूमतें कमज़ोर या करप्ट: ज़्यादातर मुस्लिम मुल्कों में सरकारें अपने फायदे के लिए चलती हैं, उम्मत के लिए नहीं। आज दुनिया के ज़्यादातर मुस्लिम मुल्कों में हुकूमतें करप्शन में डूबी हुई हैं, जनता के नहीं, बल्कि अपनी कुर्सी की फिक्र करती हैं, बाहरी ताक़तों की गुलामी करती हैं, उम्मत की तकलीफों पर खामोश रहती हैं, इन हुकूमतों के लिए न फिलिस्तीन मायने रखता है, न कश्मीर, न उइगर, न बर्मा जब तक उनके निजी फायदे को खतरा न हो।
3. रसूल अल्लाह ﷺ की बताई हुई वजह
रसूल अल्लाह ﷺ ने फरमाया, "करीब है कि दूसरी कौमें तुम पर ऐसे टूट पड़ेंगी जैसे भूखा खाने पर टूट पड़ता है"
किसी ने अर्ज़ किया: क्या हम उस वक़्त बहुत कम होंगे?
रसूल अल्लाह ﷺ ने फरमाया, "नहीं, बल्कि तुम उस दिन संख्या में बहुत ज़्यादा होगे, लेकिन तुम सैलाब के झाग की तरह हो जाओगे। अल्लाह तुम्हारे दुश्मनों के दिलों से तुम्हारा ख़ौफ़ निकाल देगा और तुम्हारे दिलों में 'वहन' डाल देगा।"
किसी ने पूछा: या रसूल अल्लाह ﷺ, 'वहन' क्या है?
तो आपने फ़रमाया, "दुनिया से मोहब्बत और मौत का डर।"
[अबू दाऊद: 4297]
"दुनिया की मोहब्बत और मौत का डर" यही असल बीमारी है।
- मुसलमानों ने दुनिया को मक़सद बना लिया है, और दीन को सिर्फ़ रस्म बना दिया है।
- हमारी लीडरशिप डरपोक और दुनियादार बन गई है।
- आम मुसलमान भी अब हक़ की बात से पीछे हटता है, बस किसी तरह आराम की ज़िंदगी चाहिए।
4. इसका इलाज क्या है?
"मुसलमानों की बर्बादी का इलाज" इस उम्मत को फिर से उठाने की कुंजी हैं।
i. तौबा और रुजू इलल्लाह (अल्लाह की तरफ़ लौटना):
तौबा का मतलब है अपनी ग़लतियों को पहचानकर सच्चे दिल से अल्लाह से माफ़ी माँगना।
रुजू इलल्लाह का मतलब है हर काम में अल्लाह की तरफ लौटना, उसी को अपना मालिक मानना, उसी से मदद माँगना।
- हर इंसान को खुद अपना जायज़ा लेना चाहिए, क्या मैं अल्लाह से जुड़ा हूँ?
- नमाज़, तिलावत, हया, झूठ, ग़ीबत, रिश्वत, नजरों की हिफ़ाज़त... इन सबमें हम कहाँ खड़े हैं?
- हमारा समाज कितनी बुराइयों में डूब चुका है। बेहयाई, रिवाजपरस्ती, शादियों में इसराफ, झगड़े, हसद, बिदअतें।
एक सामाजिक रुजू इलल्लाह चाहिए। मस्जिदें आबाद हों, नसीहतें हों, लीडरशिप ईमानदार हो।
"अल्लाह उस क़ौम की हालत नहीं बदलता, जो खुद अपनी हालत नहीं बदलती।" [सूरह रअद 13:11]
ii. क़ुरआन और सहीह सुन्नत को थामना: क़ुरआन और सुन्नत सिर्फ़ किताबें नहीं हैं, यह ज़िंदगी जीने का मुकम्मल रास्ता है।
सिर्फ़ तिलावत या सुनने के लिए नहीं बल्कि,
- समझकर पढ़ो,
- दिल में उतारो,
- अमल में लाओ,
- और अगर ज़िम्मेदार हो, तो हुकूमत और क़ानून का ज़रिया भी यही बनाओ।
रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया, "मैं तुम्हारे बीच दो चीज़ें छोड़कर जा रहा हूँ, जब तक तुम उन्हें थामे रहोगे, गुमराह नहीं होगे — क़ुरआन और मेरी सुन्नत।" (मुवत्ता इमाम मालिक)
iii. तालीम और तरबियत: मुसलमानों की हालत तब सुधरेगी जब अगली नस्ल मजबूत होगी। सिर्फ़ दिमाग़ से नहीं, ईमान और किरदार से भी।
क्या करें?
बच्चों को सिर्फ़ डॉक्टर, इंजीनियर, IAS बनाने का सपना न दिखाएँ बल्कि,
- उन्हें सच्चा मुसलमान भी बनाएं।
- स्कूलों में दीन की तालीम, घर में इस्लामी माहौल।
- माँ-बाप और उस्ताद खुद रोल मॉडल बनें।
हज़रत उमर (रज़ि.) कहते थे, "अपने बच्चों की तरबियत इस तरह करो कि वो तुम्हारे बाद उम्मत का काम संभाल सकें। अपने बच्चों को तैराकी, तीरंदाज़ी और घुड़सवारी सिखाओ।"
iv. इत्तेहाद (Unity of Ummah): उम्मत बंटी हुई है, यही सबसे बड़ा नुक़सान है।
क्यों टूटे हुए हैं हम?
- मज़हबी नामों पर - बरेलवी, देवबंदी, शिया, सलफी...
- नस्लों पर - अरब, अजम, अफ्रीकी, एशियाई...
- सियासत पर - मेरी जमात, तेरा लीडर...
इसका हल:
- फ़िर्कों को नफ़रत की वजह न बनाओ, इल्म और समझदारी से बातचीत करो।
- एक क़ौम, एक उम्मत बनो, जैसे सहाबा थे।
रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया, "मुसलमान आपस में एक जिस्म की तरह हैं..." [सहीह मुस्लिम 2586]
अगर एक हिस्सा तकलीफ में हो, बाकी हिस्सा भी बेचैन हो जाता है।
v. दुआ और अमल दोनों साथ: सिर्फ़ दुआ से कुछ नहीं होता, अमल ज़रूरी है।
आज का मुसलमान:
- मुसीबत में रोता है, दुआ करता है लेकिन अमल नहीं करता।
- नमाज़ पढ़ते नहीं, लेकिन कामयाबी की दुआ करते हैं।
- हालात बदलने की फरियाद करते हैं लेकिन खुद को बदलने की कोशिश नहीं करते।
सही तरीका ये है की दुआ करो लेकिन खुद भी नमाज़ पढ़ो, सच बोलो, जिहाद करो, सब्र करो, मेहनत करो।
"अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।" [सूरह अल-बक़रह 2:153]
5. नतीजा
जब तक हम अपनी हालत खुद नहीं बदलेंगे, कोई दूसरा नहीं बदलेगा। क़ुरआन कहता है:
"बेशक, अल्लाह किसी क़ौम की हालत नहीं बदलता जब तक वे खुद अपनी हालत को न बदलें।" [सूरह रअद 13:11]
जब हम इन पाँच इलाजों को अपनाएँगे तो अल्लाह हमारी हालत बदलेगा, दुश्मनों के दिलों में हमारा रोब लौटेगा, और उम्मत फिर से सर बुलंद होगी, इंशा अल्लाह।
By Islamic Theology
0 टिप्पणियाँ
कृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।