रमज़ान में रोज़े की हिफाज़त कैसे करें? (पार्ट-3)
अल्लाह तआला फरमाता है-
"ऐ ईमान वालो! तुम पर रोज़े फ़र्ज़ कर दिए गये हैं जैसा की तुमसे पहले लोगो पर फ़र्ज़ किए गये, ताकि तुम परहेज़गार (तक़वा वाले) बन जाओ।" [सूरह बकर आयत न. 183]
6. कान और सोच का रोज़ा
(i) चुगली सुनना
जैसा कि ज़ुबान के रोजे में हमने जाना की चुगली करना एक संगीन गुनाह है वैसे ही कान से किसी की चुगली सुनना भी उतना ही बड़ा गुनाह होगा।
अल्लाह सुबहानहू ताला का फ़रमान है-
“ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, बहुत गुमान करने से बचो कि बहुत-से गुमान गुनाह होते हैं।( तजस्सुस न करो, टोह में न लगो)और तुम में से कोई किसी की ग़ीबत न करे।" [सूरह हुजरात आयत न. 12]
(ii) गीबत सुनने वालों की सजा
गीबत सुनना भी उतना ही बड़ा गुनाह है जितना ज़ुबान से इसकी अदायगी, हम अक्सर देखते हैं कि गीबत में कोई एक इंसान नहीं होता अगर दो है तो तीसरे की गीबत हो रही है। इसी तरह तीसरा चौथे की और ये हर जगह हो रहा है। याद रखिए ये गुनाह है।
नबी करीम (ﷺ) ने फ़रमाया:
"जो शख़्स दूसरे लोगों की बात सुनने के लिये कान लगाए जो उसे पसन्द नहीं करते या उस से भागते हैं तो क़ियामत के दिन उसके कानों में सीसा पिघला कर डाला जाएगा।" [सहीह बुखारी 7042]
7. गाना और म्यूजिक सुनना
(Music) के समान (Instruments) रखना, उन यंत्र को ईस्तेमाल करना, इश्किया, अख़्लाक़ी, समाज में बुराई पैदा करने वाले, शिर्क व बेहयाई (अश्लील) युक्त अश'आर (शे'र, दोहे )
पर मबनी गाने गाना या बजाना इंतिहाई ख़तरनाक और शैतानी अमल में से है।
क़ुरआन मजीद में इर्शाद बारी तआला है :
وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَشْتَرِي لَهْوَ الْحَدِيثِ لِيُضِلَّ عَنْ سَبِيلِ اللَّهِ بِغَيْرِ عِلْمٍ وَيَتَّخِذَهَا هُزُوًا أُولَئِكَ لَهُمْ عَذَابٌ مُهِينٌ
"और लोगों में से कुछ ऐसे हैं, जो खेल की बाते खरीदते हैं ताकि बग़ैर समझे अल्लाह की राह से बहका दें और उन्हें हसी मज़ाक़ बना लें उनके लिए ज़िल्लत का अज़ाब है।" [सूरह लुकमान आयत न. 6]
कुछ लोग कहते हैं गाना गाने या सुनने से क्या होता है?
आप मुफ्ती लोग तो हर जगह फतवे लगाते हैं।
(i) गाने दिलों में निफ़ाक़ पैदा करते हैं-
आज कल के गाने कौवाली और नात ऐसे हैं जिसमें सिर्फ़ शीर्किया अल्फाज़ इस्तेमाल किए गए हैं आइए ऐसे ही कुछ गाने, कौवली और नात पर नज़र डालते हैं-
(1) कौवाली:
"हक़ीक़त में देखो तो ख़्वाजा ख़ुदा है,
ख़्वाजा के दर पर सजदा रवां है।"
अब यहां गौर करें ये मोइनुद्दीन चिश्ती की तरफ़ इशारा है।
ख़्वाजा को ख़ुदा कैसे बना लिया गया क्या उन्होंने के कभी ऐसा कहा, बल्कि नहीं!
लोगों ने मुहब्बत में ऐसा करना शुरु किया क्योंकि लोग पहले ख़्वाजा से प्रभावित हुए फ़िर उनकी इबादत से फ़िर उनके तक़वे से फ़िर उनसे मुहब्बत करने लगे फ़िर उनकी मुहब्बत अक़ीदत में बदलती गई और अक़ीदत शिर्क में बदल गया, इसका यह मतलब नहीं के किसी से मुहब्बत नहीं करनी चाहिए।
जहां अल्लाह की ख़ातिर की हुई मुहब्बत इंसान को अर्श ए इलाही के साये तले जगह देगी वही मुहब्बत में हद से बढ़ना, शिर्क है ।
(2) नात:
अब कुछ नात पर नज़र डालते हैं-
(i) या रसूलअल्लाही उंजूर हलाना (ऐ नबी हमारे हाल कि ख़बर लें)
(ii) भर दो झोली मेरी या मुहम्मद
(iii) ये सब है मेरे कमली वाले का सदका मुहम्मद न होते तो कुछ भी न होता
(iv) दया तनी कर दा ऐ तैबा वाले...तुम ही हमरे दीन धरम हो...
और भी हजारों नात हैं जिसमें शिर्किया अल्फाज़ इस्तमाल हुए है जिसका अंदाजा हमें नहीं और हम दिन रात इसे गुनगुनाते और सुनते रहते हैं।
हम ये नहीं कहते की नबी की नात नहीं सुननी चाहिए मगर ऐसी नात या गाने के बोल जो नबी को या किसी को भी अल्लाह की मुहब्बत से आगे कर दे शिर्क है।
इसका ये मतलब नहीं है कि किसी इंसान से मोहब्बत नहीं होनी चाहिए या ज़्यादा मोहब्बत नहीं होनी चाहिए। हम नबी करीम ﷺ से मुहब्बत करते हैं तो ये मुहब्बत ईमान का हिस्सा है।
हदीस का महफूम है,
"कोई शख़्स उस वक़्त तक मोमिन नहीं हो सकता है जब तक वो आप ﷺ को अपने वाल्दैन से, अपनी औलाद से, तमाम इंसानों से बढ़कर मुहब्बत ना करे।" [बुखारी 16]
लेकिन इस मुहब्बत की लिमिट क्या है ?
नबी करीम ﷺ से मुहब्बत दुनियां की तमाम चीज़ों से बढ़ कर तमाम इंसानों से, अपने माल और दौलत से अपनी जान से अपनी आल व औलाद से मगर अल्लाह के बराबर नहीं...
हम इश्क ए नबी का दावा ठोकते तो हैं मगर उनकी सुन्नतों और उसूलो को पीठ पिछे कर देते हैं।
- क्या नात सुन लेना इश्क ए नबी है?
- क्या नमाज़ को तर्क कर देना नबी से मुहब्बत है?
- क्या अपने भाई का माल हड़प लेना, अपने पड़ोसियों को तकलीफ़ देना नबी से मुहब्बत है?
- क्या रमज़ान के रोजे छोड़ देना नबी से मुहब्बत है?
- क्या जुलूस निकालना, लोगों को परेशानी में डालना, वक्त बर्बाद करना नबी से मुहब्बत है?
- सुन्नत के नाम पर काम की बातों को अपना लेना बाकी तर्क कर देना क्या नबी से मुहब्बत का हिस्सा है?
(3) आज के ज़माने के गाने और शिर्क:
आज हिंदी फिल्मों, हॉलीवुड और बॉलीवुड में सिर्फ फहासी और बेहयाई दिखाई जा रही है। हमारी नौजवान नस्ल जिसे दीनदारी की जगह मगरिबी कल्चर का सबक दिया जा रहा वो इन अश्लील फिल्मों को देख कर बर्बादी के कगार पर पहुंच रहे है। उसमें गाए जाने वाले गाने और म्यूजिक कहीं से भी आप के इमान को बाकी नहीं रहने देते फिर आप और हम सिर्फ़ कहने के मुस्लमान रह जाते हैं।
बहरहाल आइए आप को कुछ ऐसे ही गानों से रूबरू कराते हैं-
(i) तुझमें रब दिखता है यारा मैं क्या करूं...
सजदे सर झुकता है यारा मैं क्या करूं
(ii)आ धूप मलूँ मैं तेरे हाथों में
आ सजदा करूं मैं तेरे हाथों में
(iii) खुदा भी आसमाँ से जब ज़मीन पर देखता होगा
मेरे महबूब को किसने बनाया सोचता होगा
(iv)अगर आसमान तक मेरे हाथ जाते
तो कदमो में तेरे सितारे बिछाते
ऐसे बहुत से गानों में बेहुदा और शिर्किया अल्फाज़ आए हैं सबका ज़िक्र करना मुम्किन नहीं है।
अब देखें सज़दा तो सिर्फ़ अल्लाह के लिए ही है अब अल्लाह के बनाए किसी मख्लूक के लिए सजदा किया जाय तो इसे क्या कहेंगे?
बेशक अल्लाह से बढ़ कर किसी से मुहब्बत का दावा करना कुफर और शिर्क है।
8. सोच (दिमाग़ का रोज़ा)
कहते हैं बातों में जादू सा असर होता है तभी तो जब हम कोई बात अपनी कानों से सुनते हैं ख़्वाह वो अच्छे हों या बुरे पहले हमारा दिमाग़ उसे सोचता है फिर दिल महसूस करता है और फिर हम अच्छी बुरी चीज़ों की तरफ़ क़दम बढ़ा देते हैं ऐसे ही गाने और संगीत का असर हमारे दिल और दिमाग़ पर होता है, तभी तो उलेमा कहते हैं कि गाने दिलों में निफ़ाक़ पैदा करते हैं।
9. हांथ और पैर का रोज़ा
भूख प्यास बर्दाश्त करना मुश्किल नहीं हैं बल्कि अपनी नफ़्सानी ख़्वाहिशात को हराम तरीक़ो से पूरा न करना और अल्लाह की रज़ा के लिए, अजर व सवाब की उम्मीद रखते हुए ख़ुद को गुनाहों से बचाना और अल्लाह का तक़वा (डर) इख़्तियार करना ताकि हम फ़लाह पा सकें।
आज हांथ में mobile और सोशल मीडिया की ऐक्टिविटी ने तन्हाई के गुनाह को आसान बना दिया है आज हमारी नौजवान नस्ल हराम रिलेशनशिप में डूबती जा रही है एक एक साथ दस लोगों से चैटिंग चल रही है ये हाथों और उंगलियों का ज़िना है, हमारे हाथ, सोच आंखें सब इस गुनाह में शामिल हैं रात रात भर जाग कर नामेहरम से बातें करना कितना बड़ा जुर्म है काश की इस बात का अंदाज़ा होता...
ये जो हराम तरीक़े से लज़्ज़तें हासिल की जा रही हैं मेरे प्यारे भाइयों और बहनों ! ग़ौर करें निकाह के बाद भी ये लज़्ज़तें न बीवी शौहर को दे सकती है न शौहर बीवी को....
याद रखिए हमें अपने हर अमाल का हिसाब रोज़-ए-महशर में देना होगा।
अल्लाह रब्बुल इज़्जत का फ़रमान है:
"आज हम इनके मुँह बन्द किये देते हैं, इनके हाथ हमसे बोलेंगे और इनके पाँव गवाही देंगे कि ये दुनिया में क्या कमाई करते रहे हैं।" [सूरह यासीन आयत न. 65]
इस रमज़ानुल मुबारक में अल्लाह रब्बुल इज़्जत हम सब मुसलमानों को नेक अमल की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए और गुनाहों को माफ़ फ़रमा दे।
आमीन
आप की दीनी बहन
फ़िरोज़ा
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