Tagut ka inkar (yaani kufr bit-tagut) part-21

Tagut ka inkar (yaani kufr bit-tagut | taghoot)


ताग़ूत का इनकार [पार्ट-21]

(यानि कुफ्र बित-तागूत)


ह्यूमनिज़्म (Humanism) आज के दौर के ताग़ूत कैसे है?

इस्लाम के मुताबिक़, "ताग़ूत" वो हर चीज़ है जो अल्लाह के इलाह होने का इंकार करके इंसान को अपनी हुकूमत या फ़िक्र का ग़ुलाम बना लेती है। ताग़ूत सिर्फ़ बुत-परस्ती तक महदूद नहीं, बल्कि हर वो सिस्टम, सोच, या शख्स जो इंसान को अल्लाह की दी हुई हिदायत से दूर करने का ज़रिया बने, ताग़ूत की कैटेगरी में आता है।

ह्यूमनिज़्म एक दार्शनिक और नैतिक आंदोलन है जो इंसान को केंद्र में रखता है। इसके अनुसार, इंसान की क्षमता, तर्क और अनुभव को महत्व दिया जाता है, और धार्मिक या आध्यात्मिक दृष्टिकोण से अलग होकर मानव के कल्याण और विकास पर जोर दिया जाता है। ह्यूमैनिज़्म में मुख्यतः अल्लाह की जगह इंसान को प्राथमिकता दी जाती है।


ह्यूमनिज़्म और ताग़ूत:

ह्यूमनिज़्म को आज के दौर का ताग़ूत इसलिए है क्योंकि इसमें:

1. अल्लाह के हुक्म की खिलाफ़ी:

ह्यूमैनिज़्म में यह विचारधारा है कि इंसान अपनी ज़िन्दगी के फैसले खुद ले सकता है, बिना अल्लाह के हुक्म के। इस तरह यह विचारधारा अल्लाह की इबादत और उसके हुक्म का उल्लंघन करती है। इस्लाम में अल्लाह का हुक्म सबसे महत्वपूर्ण है, और जब इंसान खुद को अल्लाह के स्थान पर रखता है, तो यह शिर्क और ताग़ूत का एक रूप है।

"और तुम्हारे रब ने फ़ैसला किया है कि तुम किसी की इबादत न करो सिवाय उसके।" [कुरआन 17:23]

यह आयत इस बात को स्पष्ट करती है कि अल्लाह की इबादत और उसके हुक्म का पालन करना अनिवार्य है।


2. इंसान की सीमाएँ:

ह्यूमैनिज़्म मानवता की क्षमता को अत्यधिक बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करता है। जबकि इस्लाम यह सिखाता है कि इंसान सीमित है और उसकी ताकतें अल्लाह की दया पर निर्भर करती हैं। इंसान की गलती और कमज़ोरियाँ उसे अल्लाह से दूर करती हैं, लेकिन ह्यूमैनिज़्म इन कमजोरियों को नज़रअंदाज़ कर देता है।

"और इंसान बहुत ज़ालिम और नासमझ है।" [कुरआन 33:72]

यह आयत इंसान की कमज़ोरियों और सीमाओं को दर्शाती है।

इनसे कहो : कौन है जो तुम्हें अल्लाह से बचा सकता हो, अगर वो तुम्हें नुक़सान पहुँचाना चाहे? और कौन उसकी रहमत को रोक सकता है, अगर वो तुमपर मेहरबानी करना चाहे? अल्लाह के मुक़ाबले में तो ये लोग कोई हिमायती या मददगार नहीं पा सकते हैं।  [कुरआन 33:17]

इस आयत में यह स्पष्ट किया गया है कि इंसान को अपनी सीमाओं को पहचानना चाहिए और अल्लाह की दया पर निर्भर रहना चाहिए।

"इंसान को कमजोर पैदा किया गया है।" [कुरआन 4:28]

यह आयत इंसान की सीमाओं को स्पष्ट करती है और यह दर्शाती है कि इंसान की ताकत अल्लाह की कृपा पर निर्भर है।

इन आयतों से यह स्पष्ट होता है कि इस्लाम इंसान की सीमाओं और उसकी कमजोरी को पहचानने का महत्व देता है, जबकि ह्यूमैनिज़्म इंसान की क्षमता को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करता है। इस्लाम की दृष्टि से, इंसान की वास्तविकता और उसकी सीमाएँ अल्लाह के हुक्म और दया की पहचान में हैं।


3. नैतिकता का अभाव:

ह्यूमैनिज़्म में नैतिकता और मूल्य इंसान की सोच और अनुभव पर आधारित होते हैं। जब नैतिकता का आधार अल्लाह की शिक्षाओं के बजाय मानव के अनुभव पर हो, तो यह ज़ुल्म और इंसाफ़ की कमी का कारण बन सकता है। इस्लाम में नैतिकता का आधार अल्लाह के हुक्म हैं, जो इंसान को सच्चाई और न्याय के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं।

"हमने अपने रसूलों को साफ़-साफ़ निशानियों और हिदायत के साथ भेजा और उनके साथ किताब और मीज़ान नाज़िल की ताकि लोग इन्साफ़ पर क़ायम हों।" [कुरआन 57:25]


4. समाज में फ़साद:

ह्यूमैनिज़्म के परिणामस्वरूप समाज में भिन्न-भिन्न विचारधाराओं और मान्यताओं का निर्माण होता है, जिससे अराजकता और फ़साद का माहौल बनता है। इस्लाम ने समाज में फ़साद फैलाने से मना किया है और इंसानियत को एक समान और समान अधिकार देने पर जोर दिया है।

"जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते हैं और ज़मीन में इसलिये भागदौड़ करते फिरते हैं कि फ़साद फैलाएँ उनकी सज़ा ये है कि क़त्ल किए जाएँ या सूली पर चढ़ाए जाएँ या उनके हाथ और पाँव मुख़ालिफ़ सम्तों से काट डाले जाएँ या वो वतन से निकाल दिए जाएँ। ये ज़िल्लत और रुसवाई तो उनके लिये दुनिया में है और आख़िरत में उनके लिये इससे बड़ी सज़ा है।" [कुरआन 5:33]


5. इंसान का स्थान:

ह्यूमैनिज़्म यह मानता है कि इंसान अन्य जीवों से उच्च है और उसे प्रकृति और बाकी जीवों पर हक़ है। जबकि इस्लाम यह सिखाता है कि इंसान का मुख्य मक़सद अल्लाह की इबादत करना है और वह ज़मीन पर अल्लाह का ख़लीफ़ा है, ना कि उसके इरादों का मालिक।

इंसान को ज़मीन पर अल्लाह का खलीफा (प्रतिनिधि) बनाने के बारे में क़ुरान में सुरह अल-बक़रा (2:30) में आयत है:

"और याद करो जब तुम्हारे रब ने फ़रिश्तों से कहा, 'मैं धरती में एक ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) बनाने वाला हूँ।' उन्होंने कहा, 'क्या तू उसमें ऐसे व्यक्ति को खलीफ़ा बनाएगा जो उसमें बिगाड़ करेगा और ख़ून-ख़राबा करेगा, जबकि हम तेरी हम्द (प्रशंसा) के साथ तस्बीह करते हैं और तेरी पाकी बयान करते हैं?' अल्लाह ने कहा, 'मैं वह जानता हूँ जो तुम नहीं जानते।'

इस आयत में अल्लाह इंसान को धरती पर अपना प्रतिनिधि बना रहे हैं, जो न्याय और सच्चाई के साथ ज़मीन पर हुकूमत करेगा और अल्लाह के आदेशों का पालन करेगा।


नतीजा:

ह्यूमनिज़्म को आज के दौर का ताग़ूत इस लिए है क्योंकि यह एक ऐसी विचारधारा है जो अल्लाह के हुक्मों और इंसाफ़ के नियमों के खिलाफ़ है। यह इंसान को एक स्वतंत्र और खुदमुख्तार प्राणी मानता है, जबकि इस्लाम में इंसान को अपनी सीमाओं और अल्लाह के हुक्मों को पहचानने की ज़रूरत है। ह्यूमैनिज़्म का यह दृष्टिकोण इंसानियत को अल्लाह से दूर करता है और ताग़ूत की बुनियाद रखता है। इसीलिए, यह विचारधारा इस्लाम की दृष्टि से नकारात्मक और हानिकारक मानी जाती है।


- मुवाहिद


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

क्या आपको कोई संदेह/doubt/शक है? हमारे साथ व्हाट्सएप पर चैट करें।
अस्सलामु अलैकुम, हम आपकी किस तरह से मदद कर सकते हैं? ...
चैट शुरू करने के लिए यहाँ क्लिक करें।...