ताग़ूत का इनकार [पार्ट-20]
(यानि कुफ्र बित-तागूत)
फेमिनिज़्म (Feminism) – आज के दौर का ताग़ूत कैसे है?
फेमिनिज़्म को आज के दौर का ताग़ूत कहने का मतलब यह है कि इस विचारधारा के कुछ पहलू इस्लाम की असल शिक्षाओं के उलट हैं, और यह लोगों को अल्लाह के हुक्म से दूर करते हैं। इस्लाम और फेमिनिज़्म के मकसद एक-दूसरे से अलग हैं। इस्लाम ने औरतों को इज़्ज़त और हक़ूक़ दिए हैं, लेकिन इस्लाम का निज़ाम मर्दों और औरतों के बीच प्राकृतिक फ़र्क़ को समझता है, और दोनों के मकाम और ज़िम्मेदारियों को उसी फ़ितरत के मुताबिक रखना चाहता है। जबकि फेमिनिज़्म का शिद्दत वाला रुख़ 'बराबरी' का मुतालबा करता है, जो हर मामले में मर्दों और औरतों को एक जैसा जानने पर ज़ोर देता है, चाहे वह प्राकृतिक तौर पर जितना भी ग़लत हो।
फेमिनिज़्म (Feminism) क्यों ताग़ूत है?
1. इस्लाम और फेमिनिज़्म के दरमियान फ़र्क़:
इस्लाम मर्दों और औरतों को बराबर इज़्ज़त और हक़ूक़ देता है, मगर दोनों के मकाम और फ़र्ज़ मुख़्तलिफ़ हैं। मर्दों पर ख़िलाफ़त और बाहर की ज़िम्मेदारी ज़्यादा होती है, जबकि औरतों को घर, परिवार और बच्चों की देखभाल का बड़ा ज़िम्मा दिया गया है। दोनों को फ़ितरत के मुताबिक़ फ़र्ज़ दिए गए हैं जो एक-दूसरे को मुकम्मल करते हैं। फेमिनिज़्म का एक बड़ा दावा यह होता है कि मर्दों और औरतों में हर काम में एक जैसा हक़ूक़ होना चाहिए, और यह इस्लामी निज़ाम के ख़िलाफ़ है, क्योंकि इस्लाम मर्दों को क़व्वाम (रहनुमा और ज़िम्मेदार) बनाता है।
इस्लाम मर्दों और औरतों को बराबर इज़्ज़त और हक़ूक़ देता है, लेकिन फ़ितरी तौर पर दोनों के फरायज़ अलग हैं। इस्लाम मर्दों को क़व्वाम (जिम्मेदार) बनाता है और औरतों को ख़ास मकाम और जिम्मेदारियां देता है। क़ुरआन में अल्लाह तआला फ़रमाते हैं:
"मर्द औरतों पर क़व्वाम (रहनुमा) हैं, क्योंकि अल्लाह ने एक को दूसरे पर फ़ज़ीलत दी है और इसलिए कि मर्द अपना माल (घरों पर) खर्च करते हैं।" [कुरआन 4:34]
इस आयत से साफ़ है कि मर्दों और औरतों के बीच हक़ूक़ और ज़िम्मेदारियाँ अलग हैं, और फेमिनिज़्म का यह दावा कि दोनों में हर मामले में बराबरी होनी चाहिए, इस्लामी तालीमात के खिलाफ है।
2. फेमिनिज़्म का सेक्युलर और मटेरियलिस्टिक नज़रिया:
फेमिनिज़्म ज़्यादातर सेक्युलर और मटेरियलिस्टिक नज़रिया को बढ़ावा देता है, जिसमें दुनिया की चीज़ों और आज़ादी को आख़िरी मक़सद समझा जाता है। और यह नज़रिया इंसान को अल्लाह के हुक्म और दीन की असल रूह से दूर ले जाता है। अगर कोई विचारधारा इंसान को दुनिया और नफ़सानी ख़्वाहिशात का ग़ुलाम बना दे और आख़िरत को भूलने पर मजबूर करे, तो यह ताग़ूत का रूप इख़्तियार कर लेता है। क़ुरआन में अल्लाह तआला ने ताग़ूत के बारे में फ़रमाया:
दीन के मामले में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है। सही बात ग़लत ख़यालात से अलग छाँटकर रख दी गई है। अब जो कोई ताग़ूत का इनकार करके अल्लाह पर ईमान ले आया, उसने एक ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटनेवाला नहीं और अल्लाह [ जिसका सहारा उसने लिया है] सब कुछ सुननेवाला और जाननेवाला है। [कुरआन 2:256]
फेमिनिज़्म अक्सर दुनिया और ख़्वाहिशात को सबसे अहम मानता है। जबकि इस्लाम में दुनिया से ज़्यादा आख़िरत की फ़िक्र की जाती है। क़ुरआन में अल्लाह तआला ने दुनिया और आख़िरत के तअल्लुक़ से फ़रमाया:
"आख़िरकार हर एक को मरना है और तुम सब अपना-अपना पूरा बदला क़ियामत के दिन पानेवाले हो। कामयाब असल में वो है जो वहाँ दोज़ख़ की आग से बच जाए और जन्नत में दाख़िल कर दिया जाए। रही ये दुनिया, तो ये सिर्फ़ एक खुले धोखे की चीज़ है।" [कुरआन 3:185]
फेमिनिज़्म का सेक्युलर और दुनिया-परस्त रवैया इस आयत के ख़िलाफ़ है, क्योंकि यह इंसान को दुनियावी मकासिद के पीछे भागने पर मजबूर करता है, और आख़िरत को भुला देता है।
3. औरतों का असल मकाम:
इस्लाम में औरतों का मकाम बहुत ऊँचा है। औरतों को माँ, बहन, बीवी और बेटी की हैसियत से इज़्ज़त और हक़ूक़ मिले हैं। नबी ﷺ ने औरतों के हक़ूक़ पर बहुत ज़ोर दिया है, लेकिन उनका मकाम फ़ितरी ज़िम्मेदारियों के मुताबिक़ है। फेमिनिज़्म का शिद्दत वाला रुख़ अक्सर औरतों को असल मकाम से दूर करके मर्दों के साथ हर मैदान में मुसाबक़त पर मजबूर करता है, जिससे न सिर्फ़ घर का निज़ाम बिगड़ता है बल्कि औरतों का असल मकाम भी ज़ख़्मी होता है।
नबी ﷺ ने फ़रमाया: "दुनिया की बेहतरीन नेमत नेक बीवी है।" [सुनन इब्न माजा 1855]
इस हदीस में साफ़ कहा गया है कि औरतों का सबसे अच्छा किरदार एक अच्छी बीवी के तौर पर होता है, जो अपने घर और परिवार की ज़िम्मेदारी निभाती है। जबकि फेमिनिज़्म औरतों को उनके असल मकाम से हटाकर उन्हें मर्दों के बराबर साबित करने की कोशिश करता है, जो इस्लामी तालीमात के ख़िलाफ़ है।
4. मर्द और औरत के बीच की जिम्मेदारियों को बदलना:
इस्लाम ने औरत और मर्द के लिए अलग-अलग जिम्मेदारियां तय की हैं। फेमिनिज़्म इन जिम्मेदारियों को बदलकर एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था बनाने की कोशिश करता है, जिसमें औरत और मर्द के बीच का फर्क मिट जाए। यह अल्लाह की ओर से तय किए गए सिस्टम के खिलाफ जाकर इंसान को उसकी खुद की बनाई हुई सोच पर चलाने की कोशिश है।
नबी करीम (ﷺ) ने उन मर्दों पर लानत भेजी जो औरतों जैसा चाल-चलन इख़्तियार करें और उन औरतों पर लानत भेजीं जो मर्दों जैसा चाल चलन इख़्तियार करें। [सहीह बुखारी, हदीस 5885]
यह हदीस स्पष्ट करती है कि औरतों और मर्दों के बीच फर्क बनाना अल्लाह का हुक्म है। अगर कोई समाज इस फर्क को मिटाने की कोशिश करता है, तो यह अल्लाह के हुक्म से बगावत मानी जाएगी।
5. ताग़ूत का रूप इख़्तियार करना:
ताग़ूत वह क़ुव्वत होती है जो इंसान को अल्लाह की इबादत से दूर ले जाए और दुनिया पर फ़ोकस करने पर मजबूर करे। फेमिनिज़्म के कुछ अंदाज़ और मुतालबात, जैसे मर्दों और औरतों के बीच मुकम्मल बराबरी का मुतालबा, इंसान को असल फ़ितरत से दूर करता है। यह विचारधारा दुनिया पर ज़्यादा ज़ोर देती है, और दीन और आख़िरत की असल तालीमात से दूर ले जाती है।
ताग़ूत वो होता है जो इंसान को अल्लाह की इबादत से रोक कर उसे गुमराही की तरफ़ ले जाए। क़ुरआन में ताग़ूत को छोड़ने का हुक्म दिया गया है:
"जो कोई ताग़ूत का इनकार करके अल्लाह पर ईमान ले आया, उसने एक ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटनेवाला नहीं।" [कुरआन 2:256]
जब कोई विचारधारा, जैसे फेमिनिज़्म, इंसान को अल्लाह के हुक्म और इस्लाम की तालीमात से दूर कर दे, तो वह ताग़ूत का रूप इख़्तियार कर लेती है।
6. गुमराही और फ़साद:
फेमिनिज़्म का एक नतीजा यह है कि इसने घरेलू निज़ाम को तोड़ना शुरू कर दिया है। औरतों को यह दिखाया जाता है कि घर का काम या बच्चों की देखभाल कमज़ोर या पीछे रहने वाली चीज़ है। यह गुमराही और फ़साद का सबब बनता है, जो इस्लामी मआशरे और परिवार के निज़ाम को कमज़ोर करता है। फेमिनिज़्म ने घरेलू निज़ाम को तोड़ने का काम किया है। इस्लाम औरतों को उनके घर और परिवार की देखभाल की ज़िम्मेदारी देता है, और यह बताता है कि एक औरत के लिए सबसे बड़ा सम्मान उसके घर और परिवार की हिफाज़त करना है।
नबी करीम (सल्ल०) ने फरमाया: "औरत अपने शौहर के घर की सरपरस्त है और उससे उसके जिम्मे की चीज़ों के बारे में पूछा जाएगा।" [सहीह अल-बुख़ारी 893, सहीह मुस्लिम 1829]
नबी करीम (सल्ल०) ने फरमाया: "जब कोई औरत पाँचों वक़्त की नमाज़ पढ़े, रमज़ान के रोज़े रखे, अपनी शरमगाह की हिफ़ाज़त करे और अपने शौहर की आज्ञा का पालन करे, तो वह जन्नत के दरवाज़े में से किसी भी दरवाज़े से दाख़िल हो सकती है।" [मुस्नद अहमद : 1661; सहीह इब्न हिब्बान : 4163]
यह हदीस साफ़ तौर पर औरत की जिम्मेदारी को उसके घर और परिवार के हिफाज़त से जोड़ती है, और यह बताती है कि एक औरत के लिए उसके घर की देखभाल कितनी महत्वपूर्ण है। औरत की जिम्मेदारी और उसके घर की देखभाल को इस्लाम में कितना ऊँचा दर्जा दिया गया है, और उसे अल्लाह के करीब करने वाला अमल बताया गया है।
फेमिनिज़्म औरतों को इस फ़ितरत से हटाकर उन्हें बाहरी दुनिया की मर्दों से मुकाबला करने वाली ज़िम्मेदारी देता है, जो इस्लामी तालीमात के ख़िलाफ़ है और गुमराही का कारण बनता है। आज के दौर में फेमिनिज़्म एक नई सोच और ताग़ूत की शक्ल इख़्तियार कर गया है, जो इंसान को अल्लाह की इबादत और असल मकासिद से दूर करता है।
फेमिनिज़्म के खतरनाक असरात:
1. खानदानी सिस्टम का टूटना:
फेमिनिज़्म की विचारधारा ने दुनिया भर में खानदानी सिस्टम (पारिवारिक व्यवस्था) को कमजोर किया है। जब औरत और मर्द को उनके नैसर्गिक और सामाजिक रोल से हटा दिया जाता है, तो परिवार की बुनियाद कमजोर हो जाती है। इस्लाम में परिवार की देखभाल और उसकी व्यवस्था को सबसे अहम माना गया है।
2. मर्द और औरत के बीच नफरत और मतभेद:
फेमिनिज़्म अक्सर औरतों को मर्दों के खिलाफ एक संघर्ष के रूप में प्रस्तुत करता है, जिससे मर्द और औरत के बीच आपसी प्यार, सम्मान और सहारे का रिश्ता कमजोर हो जाता है। इस्लाम ने मर्द और औरत को एक-दूसरे का साथी और मददगार बनाया है, न कि एक-दूसरे के खिलाफ दुश्मन।
कुरआन कहता है: "और औरतें तुम्हारे लिए लिबास हैं और तुम उनके लिए लिबास हो।" [कुरआन 2:187]
इस्लाम की यह तालीम है कि मर्द और औरत एक-दूसरे के पूरक हैं, और उन्हें एक-दूसरे का सम्मान और सहारा बनकर रहना चाहिए।
3. नफ्सानी ख्वाहिशात की बढ़ोतरी:
फेमिनिज़्म की आधुनिक धाराओं ने औरतों को इस्लामी हिजाब, परहेज़गारी, और शराफत से दूर करके नफ्सानी ख्वाहिशात की तरफ खींच लिया है। इस्लाम ने औरतों को इस्लामी लिबास और हया का आदेश दिया है, जबकि फेमिनिज़्म की विचारधारा अक्सर इसके खिलाफ जाती है।
नबी करीम (ﷺ) ने फरमाया: "हया (लज्जा) ईमान का एक हिस्सा है।" [सहीह अल-बुख़ारी : 24]
नतीजा:
इस्लाम ने मर्द और औरत दोनों के अधिकारों की सुरक्षा की है, लेकिन साथ ही उनके लिए कुदरती और सामाजिक तौर पर अलग-अलग जिम्मेदारियां तय की हैं। इस्लाम औरतों को मर्दों के बराबर अधिकार देता है, लेकिन इन अधिकारों का मतलब यह नहीं है कि उनके बीच हर फर्क को खत्म कर दिया जाए।
इस्लाम औरतों को घर के अंदर और बाहर दोनों जगह इज़्ज़त और अधिकार देता है, लेकिन उन अधिकारों को इस्लामी सीमाओं में रखा जाता है, ताकि समाज और खानदान का ढांचा कायम रह सके।
फेमिनिज़्म जब मर्द और औरत के बीच के फर्क और जिम्मेदारियों को मिटाकर दोनों को एक जैसा बनाने की कोशिश करता है, तो यह ताग़ूत की एक शक्ल ले लेता है। इस्लाम मर्द और औरत दोनों को इज़्ज़त देता है, लेकिन दोनों के लिए अलग-अलग जिम्मेदारियां तय करता है। अगर इंसान अल्लाह के बनाए हुए सिस्टम को छोड़कर अपनी खुद की बनाई हुई सोच पर चलने लगे, तो यह अल्लाह की तौहीद के खिलाफ है।
- मुवाहिद
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