ताग़ूत का इनकार [पार्ट-18]
(यानि कुफ्र बित-तागूत)
फासिज़्म (Fascism) आज के दौर का ताग़ूत कैसे है?
ताग़ूत का लफ़्ज़ कुरान में उन तमाम क़ुव्वतों, शख़्सियतों और निज़ामों के लिए इस्तेमाल होता है जो अल्लाह के हुक्म और इबादत के मुक़ाबिल खड़े होते हैं। ताग़ूत का मक़सद ऐसे निज़ाम हैं जो ज़ुल्म, जबर और कुफ़्र पर मबनी होते हैं और इंसानों को अल्लाह की इबादत से दूर ले जाते हैं। कुरान में अल्लाह तआला ने फ़रमाया:
"और हमने हर उम्मत में एक पैग़म्बर भेजा कि अल्लाह की इबादत करो और ताग़ूत से बचो।" [कुरआन 16:36]
फासिज़्म एक सियासी निज़ाम है जिसमें हुकूमत एक शख़्सियत या पार्टी के ज़रिये पूरी क़ुदरत अपने हाथ में ले लेती है, और लोगों पर अपने अक़ायद और नज़रियात को जबरन नाफ़िज़ करती है। इस निज़ाम में आज़ादी, इंसाफ़ और बराबरी का कोई ख़याल नहीं रखा जाता, और मुख़ालिफ़ सोचों को दबा दिया जाता है।
इस्लाम में किसी भी ऐसे निज़ाम को, जो ज़ुल्म पर मबनी हो और इंसान को अल्लाह की इबादत से रोके, ताग़ूत कहते है। फासिज़्म के अंदर एक शख़्सियत को ख़ुदा का मर्तबा दिया जाता है या फिर हुकूमत को मुतलाक़ (असीम) क़ुदरत मिल जाती है, जो इस्लाम के तौहीद और इंसानी डिग्निटी के अक़ीदे के ख़िलाफ़ है।
फासिज़्म के चंद पहलू जो ताग़ूत के कैटेगरी में आते हैं
1. ज़ुल्म और जबर
फासिज़्म का निज़ाम लोगों पर जबरी क़ुव्वत से अपने इरादों को थोपता है, जो ज़ुल्म के ज़ैल में आता है। अल्लाह तआला ने ज़ुल्म की मज़म्मत की है और ज़ुल्म से दूर रहने का हुक्म दिया है:
"और ज़ुल्म न करो, क्यूँकि अल्लाह ज़ालिमों को पसंद नहीं करता।" [कुरआन 2:190]
2. आज़ादी का छीन लेना:
फासिस्ट निज़ाम लोगों की आज़ादी को छीनता है, उनके इख़्तिलाफ़ को बर्दाश्त नहीं करता और लोगों को अपने ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की इजाज़त नहीं देता। जब किसी निज़ाम में अल्लाह की इबादत और उसके हुक्म से दूरी हो और ज़ुल्म का राज हो, तो वो ताग़ूत की कैटेगरी में आता है। कुरान में है:
"जो लोग अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला न करें वही काफ़िर हैं।" [कुरआन 5:44]
3. इंसानी हक़ूक़ का इनकार:
फासिस्ट निज़ाम में सिर्फ़ हुकूमत या लीडर के हक़ूक़ को अहमियत दी जाती है, जबकि आम लोगों को हक़ूक़ से महरूम रखा जाता है। इस्लाम में हर शख़्स के इंसानी हक़ूक़ और इज़्ज़त की हिफाज़त का हुक्म दिया गया है।
नबी ﷺ ने फ़रमाया: "हर इंसान का लहू, माल और इज़्ज़त हराम है।" [सहीह मुस्लिम हदीस नंबर 2564; सहीह बुख़ारी हदीस नंबर 6043]
4. तौहीद का इनकार:
इस्लाम का बुनियादी अक़ीदा तौहीद है, जिसमें अल्लाह के सिवा किसी को इबादत के लायक़ नहीं समझा जाता। फासिज़्म में लीडर या हुकूमत को ऐसे मक़ाम पर रख दिया जाता है जो सिर्फ़ अल्लाह के लिए मख़सूस है। ऐसे निज़ामों को कुरान में ताग़ूत कहा गया है।
5. अवाम की आवाज़ का दमन:
फासिज़्म में, जनता की आवाज़ को कुचला जाता है, और विरोध को सहन नहीं किया जाता। इस्लाम में, एक सही और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए लोगों की राय और आवाज़ को महत्व दिया गया है। कुरआन में कहा गया है:
"और उनके मामलों में आपस में परामर्श करो।" [क़ुरआन 42:38]
इस आयत से यह साबित होता है कि इस्लाम में फैसले लेने से पहले परामर्श (शूरा) करना एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जो समाज की भलाई और न्याय की स्थापना के लिए आवश्यक है।
फासिज़्म के खतरनाक असरात:
1. सामाजिक विखंडन:
फासिज़्म के तहत, राष्ट्रीयता और जातीयता के आधार पर भेदभाव किया जाता है, जिससे समाज में फूट पैदा होती है। इस्लाम में, सभी मानव जाति को समान माना गया है। कुरआन में कहा गया है:
"ऐ लोगों! हमनें तुम्हें एक ही जान से बनाया..." [कुरआन 4:1]
इस्लामिक शिक्षाएँ समानता और भाईचारे की बात करती हैं, जबकि फासिज़्म इससे विपरीत है।
2. अखलाक़ी पतन:
फासिज़्म में नैतिकता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अनदेखी की जाती है। यह इस्लाम के नैतिक मूल्यों के खिलाफ है। जब एक सरकार नैतिकता को नजरअंदाज करती है, तो समाज में अनैतिकता बढ़ती है।
इस्लाम में तौबा और वापसी:
इस्लाम हमें सिखाता है कि हमें अल्लाह की इबादत करनी चाहिए और उसके आदेशों का पालन करना चाहिए। फासिज़्म जैसी विचारधाराओं से दूर रहकर मुसलमानों को इस्लामी उसूलों पर कायम रहना चाहिए और अपने हक की आवाज उठानी चाहिए।
नतीजा:
फासिज़्म के निज़ाम को कुरान और सुन्नत की रौशनी में ताग़ूत इसलिये कहा गया है क्यूँकि इसमें ज़ुल्म, जबर और अल्लाह के अहकाम के ख़िलाफ़ रवैया पाया जाता है। इस निज़ाम का मक़सद इंसानों को आज़ादी से महरूम कर के एक शख़्सियत या हुकूमत की इबादत करना है। अल्लाह तआला ने हमेशा ऐसे निज़ामों से बचने का हुक्म दिया है जो इंसानों को अल्लाह की इबादत से दूर करें और ज़ुल्म और जाबिर निज़ामों को सपोर्ट करें।
- मुवाहिद
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