ताग़ूत का इनकार [पार्ट-2]
(यानि कुफ्र बित-तागूत)
ताग़ूत क्या है?
ताग़ूत अरबी लफ्ज़ है जो तगा, यतगा, और "तुग़ियान" से निकला है, जिसका मतलब है "हद से आगे बढ़ जाना या सरकशी (बग़ावत)"। किसी को ताग़ी कहने के बजाय अगर ताग़ूत (सरकशी) कहा जाए तो इसका मतलब ये है कि वो बेइन्तिहा सरकश है। मिसाल के तौर पर किसी को हसीं (ख़ूबसूरत) कहने के बजाय अगर ये कहा जाए कि वो हुस्न (ख़ूबसूरती) है तो इसका मतलब ये होगा कि वो ख़ूबसूरती में इन्तिहाई दर्जे को पहुँचा हुआ है। अल्लाह को छोड़कर जो झूठे माबूद हैं उनको ताग़ूत इसलिये कहा गया है कि अल्लाह के सिवा दूसरे की बन्दगी करना तो सिर्फ़ सरकशी है, मगर जो दूसरों से अपनी बन्दगी कराए वो कमाल दर्जे का सरकश है।
जब हम "ताग़ूत" कहते हैं, इसका मतलब होता है वो शख़्स या चीज़ जो अल्लाह की बन्दगी से हटकर इंसानों पर अपना हुक्म चलाने की कोशिश करे। इस्लाम में ताग़ूत को न मानना और उसका इंकार करना, ईमान का एक अहम हिस्सा है। ताग़ूत का इनकार करना ही असल तौहीद है।
"इसके बरख़िलाफ़ जो लोग तागूत (बड़े सरकश) की बन्दगी से बचे और अल्लाह की तरफ़ पलट आए उनके लिये ख़ुशख़बरी है। इस लिए (ए नबी) ख़ुशख़बरी दे दो।" [कुरआन 39:17]
ताग़ूत के तीन दर्ज़े:
ताग़ूत लुग़त (शब्दकोष) के लिहाज़ से हर उस शख़्स को कहा जाएगा, जो अपनी जाइज़ हद से आगे निकल गया हो। क़ुरआन की ज़बान में ताग़ूत से मुराद वो बंदा है, जो बन्दगी की हद से आगे निकलकर ख़ुद मालिक और ख़ुदा होने का दम भरे और ख़ुदा के बन्दों से अपनी बन्दगी कराए। ख़ुदा के मुक़ाबले में एक बन्दे की सरकशी के तीन दर्जे हैं-
1. नाफ़रमानी (फ़िस्क़):
पहला दर्जा ये है कि उसूली तौर पर कोई बंदा ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी ही को हक़ माने, मगर अमली तौर पर उसके हुक्मों की ख़िलाफ़वर्ज़ी करे। इसका नाम फ़िस्क़ (नाफ़रमानी) है।
2. कुफ़्र (इनकार):
दूसरा दर्जा ये है कि वो उसकी फ़रमाँबरदारी से उसूली तौर पर मुँह फेरकर या तो ख़ुदमुख़्तार बन जाए या उसके सिवा किसी और की बन्दगी करने लगे। ये कुफ़्र है।
3. ताग़ूत (बाग़ी):
तीसरा दर्जा ये है कि वो मालिक से बाग़ी होकर उसके मुल्क और उसकी रैयत में ख़ुद अपना हुक्म चलाने लगे। इस आख़िरी दर्जे पर जो बंदा पहुँच जाए, उसी का नाम ताग़ूत है और कोई आदमी सही मानों में अल्लाह को माननेवाला नहीं हो सकता जब तक कि वो उस ताग़ूत का इनकारी न हो।
ख़ुदा से मुँह मोड़कर इन्सान एक ही ताग़ूत के चंगुल में नहीं फँसता, बल्कि बहुत-से ताग़ूत उस पर हावी हो जाते हैं,
- एक ताग़ूत शैतान है जो उसके सामने नित नई झूठी, दिल को लुभानेवाली बातों का सदाबहार सब्ज़बाग़ पेश करता है।
- दूसरा ताग़ूत आदमी का अपना मन है जो उसे जज़्बों और ख़ाहिशों का ग़ुलाम बनाकर ज़िन्दगी के टेढ़े-सीधे रास्तों में खीचें-खीचें लिये फिरता है। और अनगिनत ताग़ूत बाहर की दुनिया में फैले हुए हैं। बीवी-बच्चे, रिश्ते-नातेदार, बिरादरी, ख़ानदान, दोस्त और आशना (पहचान के लोग),समाज और क़ौम, लीडर और रहनुमा, हुकूमत और हाकिम, ये सब उसके लिये ताग़ूत ही ताग़ूत होते हैं, जिनमें से हर एक उससे अपने मक़सद की बन्दगी कराता है, और अनगिनत मालिकों का ये ग़ुलाम सारी उम्र इसी चक्कर में फँसा रहता है कि किस मालिक को ख़ुश करे और किसकी नाराज़ी से बचे।
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