ज़िंदगी का मक़सद
दुनिया में कितनी ही जानदार मखलूक है पर किसी के ज़हन में नही आता कि हमारी ज़िंदगी का क्या मक़सद है? किसी की परेशानी नहीं है कि उसका क्या मक़सद है, सिर्फ इंसान को कहा गया कि तुम्हारा ये मक़सद है। सिर्फ और सिर्फ इंसान की ज़ात ऐसी है जो पहले ही बा-मक़सद पैदा की गई है।
तो क्या है हमारा मक़सद?
एक इंसान पैदा होता है, उस वक्त ना उसे चलना आता है, न बैठना, ना खाना और ना ही उसे ये पता होता है कि वो इस दुनिया में आख़िर क्यों आया? पूरी तरह से ला-इल्म, हर एक चीज़ से बेखबर। फिर बड़ा होता है, फिर जवानी आती है और फिर बुढ़ापा आ जाता है। किसी की ज़िंदगी महलों में गुज़रती है, किसी की सड़को पर, किसी की मकानों में, किसी की किराए के घरों में पर, ज़िन्दगी हर एक गुज़ारता है और बेशक हर एक को मौत आनी है।
अल्लाह कुरआन में फरमाता है:
أَلْهَاكُمُ التَّكَاثُرُ حَتَّى زُرْتُمُ الْمَقَابِرَ كَلَّا سَوْفَ تَعْلَمُونَ ثُمَّ كَلَّا سَوْفَ تَعْلَمُونَ كَلَّا لَوْ تَعْلَمُونَ عِلْمَ الْيَقِينِ لَتَرَوُنَّ الْجَحِيمَ ثُمَّ لَتَرَوُنَّهَا عَيْنَ الْيَقِينِ ثُمَّ لَتُسْأَلُنَّ يَوْمَئِذٍ عَنِ النَّعِيمِ
"ज्यादती की चाहत ने तुम्हे गाफिल कर दिया, यहां तक के तुम क़ब्र तक जा पहुंचे, हरगिज़ नहीं तुम अनकरीब मालूम कर लोगे, हरगिज़ नहीं फिर तुम्हे जल्द इल्म हो जाएगा, हरगिज़ नहीं अगर तुम यकीनी तौर पर जान लो, तो बेशक तुम जहन्नम देख लोगे और तुम उसे यक़ीन की आंख से देख लोगे फिर उस दिन तुम से ज़रूर बिलज़रूर नैमतों का सवाल होगा।" [सूरह तकासुर : 102]
इंसान माल-दौलत के पीछे अंधा हो जाता है, धीरे धीरे मौत नज़दीक आती है। पर ज़्यादा माल-दौलत पाने की उसकी तलब ख़त्म नही होती।
इस दुनिया में कामयाब होना या अपना नाम ऊंचा करना हमारी ज़िंदगी का मक़सद है? पर सुकून तो उसे भी नही जिसके पास दुनिया में बहुत माल-दौलत है बहुत बड़ा नाम है। दुनिया में जानवर, परिंदे, दरख़्त, सब एक जैसे है पर सिर्फ इंसान ही ऐसा है जो आदत में, नेचर में, दिखने में हर चीज़ में अलग है। भले ही वे भाई-बहन ही क्यों ना हो पर उनकी सोचें उनकी आदतें सब अलग होती है, हर एक इंसान अपनी शनाख्त (पहचान) रखता है, हर एक इंसान ख़ास है, तो इंसान की ज़िंदगी का मक़सद क्या है?
जानवर अपनी बॉडी के इर्द-गिर्द और उसकी ज़रूरत को पूरा करने में अपनी ज़िन्दगी गुज़ारता है। उनके अंदर इमोशन, सर्वाइवल होते है, अक्ल होती है और इंसान के अंदर भी ये तीनों चीज़ें होती है। बस इंसान के अंदर जानवरों से अतिरिक्त (extra) स्प्रिचुअलिटी होती है।
इंसान की ज़िंदगी के तीन लेवल है:
- • शरीर (बॉडी) के लिए
- • इमोशनली तौर पर (दिल से)
- • स्पिरिचुअली (रूहानी तौर पर)
1. बॉडी के लिए:
इंसान अपनी ज़िंदगी के 24 घंटो में जिस चीज़ को ज़्यादा वक्त देता है। मतलब इंसान उसी के लिए अपनी ज़िंदगी गुज़ार रहा है। इंसान सिर्फ अपने पेट, अपनी औलाद इसी में फसा है। कॉम्पिटिशन में रहता है मुझे उस से अच्छा दिखना है, मुझे उस से अच्छा दुनिया में नाम कमाना है, बस इन्ही चीज़ों में घिरा रहता है या अपनी ज़रूरत को पूरा करने में अपना पूरा वक्त लगा रहा होता है। अपने आपको हमेशा सही साबित करता है। और ये गलत भी नहीं है ये इंसान की ज़रूरतें है और ज़रूरतें पूरी करनी चाहिए, पर अपनी ज़रूरतें पूरी करना इंसान की ज़िंदगी का मक़सद नहीं हो सकता है और 95% लोग इसमें शामिल है।
2. इमोशनली तौर पर:
(एप्रीसिएशन करता है इंसान इसमें) इसमें इंसान एथिक्स को सबसे ज़्यादा ज़रूरी रखता है इसमें इंसान दूसरो को जल्दी माफ करना, छोटी छोटी चीज़ों में खुश होना, दूसरो की खुशी में खुश दूसरो के गम का अहसास होना। इसमें इंसान को कॉम्पिटिशन की चाहत या किसी से आगे बढ़ने की तमन्ना नही होती ये दूसरो को एप्रिशिएट (प्रोत्साहित) करते है। जो भी करते है दिल की खुशी के लिए करते है। और इनमे इंसान पहली लेवल वाले दूसरी लेवल पर आ सकते है और पहली लेवल वाले रूहानी लेवल पर आ सकते है। इनमे बदलाव मुमकिन होता है और इसमें 5% लोग आते है।3. रूहानी (स्पिरिचुअल) तौर पर:
(इसमें इंसान अच्छाई को क्रिएट करता है) कुछ इंसान दूसरों को इंस्पायर करते हैं। वे जहां जाते है वहां का माहोल वैसा ही हो जाता है। इनके लिए इंसान अच्छा बुरा नही होता बल्के हालात अच्छे बुरे होते है काम अच्छा बुरा होता है। ये अपनी ज़िंदगी में अच्छाई को पैदा करते है इनका मक़सद लोगो की परेशानियों को हल करना होता है और इस लेवल के लोग कभी भी वापस पहले की 2 लेवल पर नहीं पहुंच सकते यहां आकर इसमें इंसान "क्यों" की तलाश करता है किसी भी चीज़ में और इसमें सिर्फ 0.5-0.10% ही लोग आते है।
वे चीज़ जो इंसान को मुख्तालिफ बनाती है एक जानवर से:
1. अक्ल (Intellect): इंसान में अक्ल का इस्तेमाल सिर्फ सर्वाइवल के लिए नहीं होता, बल्कि इंसान चीज़ों को समझने, सोचने, फैसले लेने और भविष्य की प्लानिंग के लिए अक्ल का उपयोग करता है। जानवरों में भी अक्ल होती है, लेकिन वो ज़्यादातर अपने अस्तित्व (वजूद) को बचाने के लिए ही सीमित होती है।
2. इख्तियार (Free Will): इंसान को अल्लाह ने चुनने की आज़ादी दी है, इंसान सही और गलत का फैसला खुद कर सकता है और उसकी ज़िम्मेदारी भी खुद पर होती है, जानवर सिर्फ अपनी प्रकृति (नेचर) और ज़रूरतों के आधार पर काम करते हैं, उनके पास सही-गलत का इख्तियार नहीं होता।
3. तखलीक़ी सलाहियत (Creativity): इंसान में तखलीक़ी क्षमता होती है जिससे वो नए विचार, टेक्नोलॉजी, कला, और इमारतें बना सकता है। खुद को किसी भी रास्ते की तरफ मोड़ सकता है। जानवरों में ये क्षमता सीमित होती है, वे केवल वही करते हैं जो उनकी जैविक (ऑर्गेनिक) ज़रूरतों को पूरा करता है, वे अपनी ज़िंदगी सिर्फ एक बाउंड्री तक ही जी कर गुज़ारते है।
और कुछ आदतें अपना कर इंसान अपने आपको एक बेहतर इंसान और एक जानवर से मुख्तलिफ बना सकता है:
• सबसे पहले वो अपनी डाइट, एक्सरसाइज का ख्याल करे।
• अपने इमोशंस को काबू करना सीखे।
• लोगो के लफ्ज़ों का ना पकड़े बल्कि जो लफ़्ज़ बोले गए है उनकी बोलने की वजह जानने की कोशिश करे उन्हे सुलझाने की कोशिश करे ना कि बात को बढ़ाने की कोशिश करे।
• अपना फोकस बढ़ाए जो भी काम करे फोकस के साथ करे और अपने हाल (प्रेजेंट) में ज़िंदगी गुज़ारे ना कि पास्ट, फ्यूचर में खुद को रखे अगर हम खाना भी खाएं तो पूरा फोकस खाने पर हो ना के ज़हन में सोचे चलती रहे या किसी से बात करते हुए नमाज़ पढ़ते हुए ख़्याल कही और हो बल्कि अपने फोकस को बढ़ाए।
"कोई भी ज़रूरत मक़सद नहीं हो सकती और मक़सद टाइमलेस होता है। उसका कोई वक्त मुकर्रर नहीं होता है के वो इतने दिन का या उतने दिन का हो। मक़सद मौत तक आ जाने तक का रहता है और दान करना मक़सद नहीं।दान वे लोग करते है जिनके पास ज़्यादा है। बल्कि असल जो काम है वो है लोगो के लेवल को ऊपर पहुंचाने में उनकी मदद करना। अपने पास जो है वो दूसरो के लेवल को ऊपर लाने में लगाना। ना कि उन्हे दान के तौर पर थोड़ी मदद कर देना। इंसान फोकस्ड होता है अपने मक़सद को लेकर उसकी नज़र हमेशा अपने मक़सद पर होती है।"
अल्लाह कुरआन में फरमाता है:
وَمَا ٱلْحَيَوٰةُ ٱلدُّنْيَآ إِلَّا لَعِبٌۭ وَلَهْوٌۭ ۖ وَلَلدَّارُ ٱلْـَٔاخِرَةُ خَيْرٌۭ لِّلَّذِينَ يَتَّقُونَ ۗ أَفَلَا تَعْقِلُونَ
"और दुनियावी ज़िंदगी तो कुछ भी नहीं अलावा लहू वा ला आब के और दर आखिरत परहेज़गारो के लिए बेहतर है क्या तुम सोचते समझते नहीं।" [सूरह अल-अन'आम 6-32]
इंसान के दिल में सिर्फ दुनिया की कामयाबी ही उसकी ज़िंदगी का मक़सद बन कर रह जाता है। वो सिर्फ इस दुनिया की कामयाबी की ख्वाहिश रख लेता है। जिसे अल्लाह ने कोई तरजीह ही नहीं दी। जो सिर्फ लहू-ला-आब के अलावा कुछ नहीं है।
हमारी ज़िंदगी का मक़सद:
अल्लाह कुरआन में फरमाता है:
وَمَا خَلَقْتُ الْجِنَّ وَالْإِنْسَ إِلَّا لِيَعْبُدُونِ
"और मैने इंसानों और जिन्नातो को सिर्फ अपनी ही इबादत के लिए पैदा किया है।" [सूरह ज़ारियात 51-56]
قُلْ أَطِيعُوا۟ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَ ۖ فَإِن تَوَلَّوْا۟ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلْكَـٰفِرِينَ
"कह दीजिए...! के अल्लाह ताआ ला और रसूल की इता अत करो, अगर ये मूंह फेर ले तो बेशक अल्लाह तआ'ला काफिरों से मोहब्बत नहीं करता..!" [सूरह अल इमरान 3:32]
इन आयत से हमे अपना इंफिरादी (इंडिविजुअली) तौर पर अपनी ज़िंदगी का मक़सद पता चलता है। अल्लाह ने साफ साफ कह दिया के अगर जिसने ये ना माना तो वो काफिरों में से है और अल्लाह काफिरों से मोहब्बत नहीं करता। अल्लाह ने हमे पैदा किया अपनी इबादत के लिए और इबादत नमाज़ तक मेहदूद (सीमित) नहीं, इबादत हम अपनी पूरी ज़िंदगी में जो भी करे अल्लाह और उसके रसूल की पैरवी कर कर करे अल्लाह की रज़ा हासिल करने के लिए करे अल्लाह ने जो करने का हुक्म दिया है वो करे और जिसे करने से मना किया उस से खुद को दूर कर ले और सिर्फ अल्लाह की बंदगी करे अल्लाह की इबादत करे।
كُنتُمْ خَيْرَ أُمَّةٍ أُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ تَأْمُرُونَ بِٱلْمَعْرُوفِ وَتَنْهَوْنَ عَنِ ٱلْمُنكَرِ وَتُؤْمِنُونَ بِٱللَّهِ ۗ وَلَوْ ءَامَنَ أَهْلُ ٱلْكِتَـٰبِ لَكَانَ خَيْرًۭا لَّهُم ۚ مِّنْهُمُ ٱلْمُؤْمِنُونَ وَأَكْثَرُهُمُ ٱلْفَـٰسِقُونَ
"तुम बेहतरीन उम्मत हो जो लोगो के लिए पैदा की गई है के तुम नेक बातों का हुक्म करते हो और बुरी बातों को रोकते हो और अल्लाह तआ'ला पर ईमान रखते हो, अगर अहले किताब भी ईमान लाते तो उनके लिए बेहतर था, उनमें ईमान लाने वाले भी है लेकिन अक्सर तो फासिक है।" [सूरह अल इमरान 3-110]
وَلْتَكُن مِّنكُمْ أُمَّةٌۭ يَدْعُونَ إِلَى ٱلْخَيْرِ وَيَأْمُرُونَ بِٱلْمَعْرُوفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ ٱلْمُنكَرِ ۚ وَأُو۟لَـٰٓئِكَ هُمُ ٱلْمُفْلِحُونَ
"तुम में से एक जमात ऐसी होनी चाहिए जो भलाई की तरफ बुलाएं और नेक कामों का हुक्म करे और बुरे कामों से रोके और यही लोग फलाह और निजात पाने वाले हैं।" [सूरह अल इमरान 3-104]
अल्लाह ने इन आयत के ज़रिए हमे इज्तिमाई (जमात) के तौर पर हमारा मक़सद बताया है। हमे एक उम्मत के रूप में पैदा किया जहां हमे अपनी इबादत करने का हुक्म दिया, वहीं हमे जमात के रूप में बुराई को रोकने का और नेकी करने का हुक्म दिया।
अल्लाह ने हमे बा-मक़सद पैदा किया इंफिरादी तौर पर भी और इज्तिमाई तौर पर भी। अल्लाह ने ये नहीं हुक्म दिया के तुम दुनियावी ख्वाहिश, दुनियावी शान-ओ-शोकत को अपना मक़सद बना लो। ये सिर्फ हमारी ज़रूरतें हो सकती है पर हमारा मक़सद अल्लाह और उसके रसूल की पैरवी कर एक बेहतर समाज का निर्माण। एक ऐसा समाज जहां बुराई का नामो निशान ना हो, जहां बुराई जन्म ना ले। बल्कि नेक लोगो से और नेकी से भरे समाज में अपना योगदान करना हमारा मक़सद है। नेकी फैलाना हमारी ज़िंदगी का मक़सद है। अल्लाह की इबादत करना, अल्लाह की रज़ा को हासिल करना, अल्लाह की रज़ा के लिए दुनिया में काम करना हमारा असल मक़सद है। जो हमे अपनी मौत आने तक करना है। जिसका वक्त मुकर्रर नहीं टाइमलेस है।
शहनीबा सैफी
1 टिप्पणियाँ
Assalamu Alaikum माशा अल्लाह
जवाब देंहटाएंकृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।