Allah aur nabi saw ki farmabardari

Allah ki farmabardari nabi saw ki farmabardari ke bina mumkin nahi


हजरत मुहम्मद ﷺ के अल्लाह के पैग़म्बर होने के सबूत।

अल्लाह की फ़रमाँबरदारी मुहम्मद ﷺ की फ़रमाँबरदारी के बिना मुमकिन नहीं


अगर कोई इंसान अल्लाह की फ़रमाँबरदारी करना चाहता है तो उसे लाजिमन अल्लाह के पैगम्बर मुहम्मद ﷺ की फ़रमाँबरदारी करनी पड़ेगी। क्योंकि मुहम्मद ﷺ जो कुछ भी किया करते थे वह असल में अल्लाह का हुक्म हुआ करता था। इसलिए मुहम्मद ﷺ की फ़रमाँबरदारी असल में अल्लाह की ही फ़रमाँबरदारी कहलाएगी। और बिना मुहम्मद ﷺ की फ़रमाँबरदारी के वह अल्लाह की फ़रमाँबरदारी नहीं कर सकता है क्योंकि कुरआन में अल्लाह ने कहा है कि;


مَنۡ یُّطِعِ الرَّسُوۡلَ فَقَدۡ اَطَاعَ اللّٰہَ ۚ وَ مَنۡ تَوَلّٰی فَمَاۤ اَرۡسَلۡنٰکَ عَلَیۡہِمۡ حَفِیۡظًا ﴿ؕ۸۰﴾

"जिसने रसूल की फ़रमाँबरदारी की उसने असल में ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी की। और जो मुँह मोड़ गया तो बहरहाल हमने तुम्हें इन लोगों पर चौकीदार बनाकर तो नहीं भेजा है।"

[कुरआन 4:80]


قُلۡ اَطِیۡعُوا اللّٰہَ وَ اَطِیۡعُوا الرَّسُوۡلَ ۚ فَاِنۡ تَوَلَّوۡا فَاِنَّمَا عَلَیۡہِ مَا حُمِّلَ وَ عَلَیۡکُمۡ مَّا حُمِّلۡتُمۡ ؕ وَ اِنۡ تُطِیۡعُوۡہُ تَہۡتَدُوۡا ؕ وَ مَا عَلَی الرَّسُوۡلِ اِلَّا الۡبَلٰغُ الۡمُبِیۡنُ ﴿۵۴﴾

कहो, “अल्लाह के फ़रमाँबरदार बनो और रसूल के हुक्म को माननेवाले बनकर रहो। लेकिन अगर तुम मुँह फेरते हो तो ख़ूब समझ लो कि रसूल पर जिस फ़र्ज़ का बोझ रखा गया है, उसका ज़िम्मेदार वो है और तुमपर जिस फ़र्ज़ का बोझ डाला गया है, उसके ज़िम्मेदार तुम। उसकी फ़रमाँबरदारी करोगे तो ख़ुद ही हिदायत पाओगे। वरना रसूल की ज़िम्मेदारी इससे ज़्यादा कुछ नहीं है कि साफ़-साफ़ हुक्म पहुँचा दे।”

[कुरआन 24:54]


وَ مَا کَانَ لِمُؤۡمِنٍ وَّ لَا مُؤۡمِنَۃٍ اِذَا قَضَی اللّٰہُ وَ رَسُوۡلُہٗۤ اَمۡرًا اَنۡ یَّکُوۡنَ لَہُمُ الۡخِیَرَۃُ مِنۡ اَمۡرِہِمۡ ؕ وَ مَنۡ یَّعۡصِ اللّٰہَ وَ رَسُوۡلَہٗ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلٰلًا مُّبِیۡنًا ﴿ؕ۳۶﴾

"किसी मोमिन मर्द और किसी मोमिन औरत को ये हक़ नहीं है कि जब अल्लाह और उसका रसूल किसी मामले का फ़ैसला कर दे तो फिर उसे अपने उस मामले में ख़ुद फ़ैसला करने का इख़्तियार मिला रहे और जो कोई अल्लाह और उसके रसूल की नाफ़रमानी करे तो वो खुली गुमराही में पड़ गया।"

[कुरआन 33:36]


ये आयत हालाँकि एक ख़ास मौक़े पर उतरी है, मगर जो हुक्म इसमें बयान किया गया है, वो इस्लामी क़ानून का सबसे बुनियादी उसूल है और ये पूरे इस्लामी निज़ामे-ज़िन्दगी पर लागू होता है। इसके मुताबिक़ किसी मुसलमान शख़्स, या क़ौम, या इदारे, या अदालत या पार्लियामेंट या हुकूमत को ये हक़ नहीं पहुँचता कि जिस मामले में अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ से कोई हुक्म साबित हो, उसमें वो ख़ुद अपनी राय की आज़ादी का इस्तेमाल करे। मुसलमान होने का मतलब ही ख़ुदा और रसूल के आगे अपने आज़ादाना इख़्तियार से हाथ उठा लेना है, किसी शख़्स या क़ौम का मुसलमान होना और अपने लिये उस इख़्तियार को महफ़ूज़ भी रखना, दोनों एक-दूसरे से टकराते हैं। कोई अक़लमन्द इन्सान इन दोनों रवैयों को जमा करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। जिसे मुसलमान रहना हो उसको लाज़िमन अल्लाह और रसूल के हुक्म के आगे झुक जाना होगा और जिसे न झुकना हो उसको सीधी तरह मानना पड़ेगा कि वो मुसलमान नहीं है। न मानेगा तो चाहे अपने मुसलमान होने का वो कितना ही ढोल पीटे ख़ुदा और बन्दों दोनों की निगाह में वो मुनाफ़िक़ ही ठहरेगा।


अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की फ़रमाँबरदारी करने वालों के लिए अल्लाह का वादा:


یُّصۡلِحۡ لَکُمۡ اَعۡمَالَکُمۡ وَ یَغۡفِرۡ لَکُمۡ ذُنُوۡبَکُمۡ ؕ وَ مَنۡ یُّطِعِ اللّٰہَ وَ رَسُوۡلَہٗ فَقَدۡ فَازَ فَوۡزًا عَظِیۡمًا ﴿۷۱﴾

"अल्लाह तुम्हारे आमाल दुरुस्त कर देगा और तुम्हारे क़ुसूरों को अनदेखा कर देगा। जो आदमी अल्लाह और उसके रसूल का कहा माने उसने बड़ी कामयाबी हासिल की।"

[कुरआन 33:71]


मुहम्मद ﷺ की फ़रमाँबरदारी और नाफरमानी पर ही आपका जन्नत और जहन्नुम का दारोमदार है।


रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया:

''सारी उम्मत जन्नत में जाएगी सिवाए उनके जिन्होंने इनकार किया।" 

सहाबा ने कहा: या रसूलुल्लाह! इनकार कौन करेगा? 

फ़रमाया: "जो मेरी इताअत करेगा वो जन्नत में दाख़िल होगा और जो मेरी नाफ़रमानी करेगा उसने इनकार किया।"

[सहीह बुखारी : 7280]



By इस्लामिक थियोलॉजी

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