Quran se faydah uthane ka sahi tariqa

Quran se faydah uthane ka sahi tarika


क़ुरआन से फायदा उठाने का सही तरीका

क़ुरआन को ये समझ कर पढ़ना चाहिए कि यह पढ़ने वाले से सीधा खिताब है और इंसान की दुनिया और आखिरत की खुशी की चाभी यही क़िताब है। इंसान की हालत चाहे कितनी ही खराब क्यों ना हो ये क़िताब उसे बदल सकती है। कु़रआन पढ़ने वाला अगर सलाहियत रखता है तो उसे क़ुरआन से फायदा उठाने का तरीका बताने की भी जरूरत नहीं। यही एहसास उसमें तब्दीली लाने के लिए काफी है।

असल बात यह है कि हमारा क़ुरआन ख्वानी का तरीका सदियों से ऐसा चला आ रहा है कि हम क़ुरआन से सही माने में फायदा उठाने से महरूम हैं। जैसे कि सदियों से लगातार हम गलत तरीके से क़ुरआन पढ़ रहे हैं और इसी गलत तरीके ने हमारे और क़ुरआन के नफा पहुंचने के दरमियां एक नफसीयती रुकावट खड़ी कर दी है।

अगर हम क़ुरआन से वाकई फ़ायदा हासिल करना चाहते हैं तो हमें इन बातों का ख्याल रखना चाहिए:


1. क़ुरआन मज़ीद में दिलचस्पी:  

क़ुरआन मज़ीद से हमारा ताल्लुक इतना मजबूत हो, हमें इतनी दिलचस्पी हो के यह हमारी तवज्जो का मरकज़ बन जाए। हर चीज से ऊपर हम कुरान को तरजीह दे। चाहे हालात कैसे ही क्यों ना हो, हम रोज़ाना बाक़ायदगी से इसकी तिलावत करें। हम कितने ही मसरूफ क्यों ना हो इसके लिए हर हाल में वक्त निकाल लें। याद रहे कि जब हम क़ुरआन को पढ़ना शुरू करते हैं तो पहले हमारी रफ्तार बहुत धीमी होती है और धीरे धीरे करके यह रफ्तार बढ़ती चली जाती है। कुरआन की तिलावत का अमल तभी फायदेमंद साबित होता है जब उसे तसल्ली के साथ पढ़ा जाए और हमारा एक दिन भी क़ुरआन देखे बिना ना गुज़रे। हम जितना क़ुरआन को वक्त देंगे उतना ही वह हमें नफा देगा। जो खुशनसीब कई बार क़ुरआन शरीफ की तिलावत करता है वह कामयाब होता है। कु़रआन के लफ्ज़ और माना दोनों ही से फायदा हासिल करना चाहिए।


2. मुनासिब जगह

तब्दीली लाने के लिए जरूरी है कि हम उसकी तिलावत के लिए एक मुनासिब जगह चुन लें। जिस तरह से हम किसी खा़स मेहमान का इस्तकबाल अपने घर में करते हैं उससे कहीं बढ़कर क़ुरआन का इस्तकबाल करें। शोर-शराबे से खाली सुकून की जगह में क़ुरआन करीम से मुलाकात करें। इससे क़ुरआन को समझने में मदद मिलती है। अगर क़ुरआन को पढ़ने के लिए आपको तन्हाई का एक कोना घर में मिल जाए तो यह समझे कि यह आपके लिए गनीमत है। हम वहां बैठकर तिलावत के दौरान अपने एहसासों का बख़ूबी इज़हार कर सकते हैं। तनहाई में रोने, आंसू बहाने, दुआ करने और सुब्हान अल्लाह कहने में ख़ास लुत्फ़ आता है। तिलावत की जा रही आयतों के हिसाब से खुशी और गम का इज़हार करने का मौका मिलता है।


3. सही वक़्त

मुनासिब जगह के साथ साथ सही वक़्त का होना भी जरूरी है। इंसान उस वक़्त क़ुरआन शरीफ पढ़े जब वह जिस्मानी और ज़हनी लिहाज़ से फिट और तैयार हो। अगर इंसान थका हो, नींद आ रही हो, बुखार या दर्द हो तो ऐसी हालत में तिलावत ए कुरआन नहीं करना चाहिए। वुज़ू करने के बाद जिसमें मिसवाक बतौर ए खा़स हो, क़ुरआन शरीफ पढ़ा जाए तो ज़्यादा नफा होगा।


4. ठहर-ठहर कर पढ़ना

हम रुक-रुक कर ठहर-ठहर कर क़ुरआन मजीद पढ़ें। अल्फाज़ की अदायगी दुरुस्त हो। हुरूफ और अल्फाज़ मुकम्मल और दुरुस्त अदा करें। इस तरह तेज़-तेज़ पढ़ना के हुरूफ टूट जाए, अल्फाज अधूरे रह जाएं यह तिलावत के खिलाफ़ है और ये एक बेका़यदा अमल है। وَرَتِّلِ ٱلْقُرْءَانَ تَرْتِيلًا "और क़ुरआन को खूब ठहर ठहर कर पढ़ो" [क़ुरआन 73:4] के मुताबिक अमल करना चाहिए। हमारा मक़सद क़ुरआन ख़त्म करना या सूरह मुकम्मल करना ना हो। क़ुरआन को जल्दी मुकम्मल करने के लिए हम क़ुरआन की तिलावत की रफ्तार बढ़ा देते हैं ख़ास तौर पर रमज़ान में कई बार मुकम्मल करने का शौक हमें तेज़ रफ़्तार पर अमादा कर देता है। हम अब तक न जाने कितने मुकम्मल कर चुके हैं। रमजान में एक एक मुसलमान ने कई कई कुरआन मुकम्मल कर डालें मगर उसका फ़ायदा क्या हुआ? उससे हमारे अंदर क्या तब्दीली आई? अपने बहन-भाइयों, दोस्त और रिश्तेदारों के साथ हमारा मुकाबला ना हो बल्कि इस बात पर हो कि हमने आयात ए कुर्आनी से कितनी ज्यादा बातें समझी हैं? कितने नुक्ते हमारे जेहन में आए हैं? हमारे ईमान और यक़ीन में कितना इजाफ़ा हुआ है?


5. तवज्जो के साथ तिलावत करना

क़ुरआन करीम की तिलावत हम कम से कम दुनिया की किसी किताब की तरह तो करें। हम जब कोई किताब या अखबार पढ़ना शुरू करते हैं तो हम जो कुछ पढ़ते जाते हैं। जो बात समझ नहीं आती उसे दोबारा पढ़ते हैं ताकि समझ में आए। क़ुरआन मजीद को भी हम कम से कम इसी तरह पढ़ें। जेहनी तौर पर हाजिर हों, अगर किसी वजह से मन ना लगे या जेहन इधर उधर भटकने लगे तो आयात को दोबारा पढ़ें। हमें पहले पहल इस तरह तिलावत करने में दिक्कत महसूस होगी क्योंकि हम अल्फाज़ को माना से अलग करके पढ़ने के आदी हैं लेकिन लगातार पढ़ते रहने से हमारी यह पुरानी आदत जाती रहेगी।


6. सर ए तस्लीम ख़म (हथियार डालना)

क़ुरआन मजीद के मुखा़तिब तमाम इंसान हैं, यह उनसे सीधा खि़ताब करता है। इस खि़ताब में सवाल और जवाब है, वादे और अहद हैं, अहकामात और मुमानियत (क्या करना है और क्या नहीं करना)। इसलिए पढ़ते वक्त हमारा फ़र्ज़ है कि हम क़ुरआन के सवालों के जवाबात दें। उसके हुक्म के सामने सर ए तस्लीम ख़म करते हुए सुबहान अल्लाह, अल्हम्दुलिल्लाह, अल्लाह हू अकबर और अस्तगफिरुल्लाह के कालिमात मौके मौके पर अदा करें। सजदे की आयात पर सजदा करें, दुआ के बाद आमीन कहें, जहन्नम का बयान पढ़े तो आग से पनाह मांगे, जन्नत का बयान आए तो अल्लाह से जन्नत का सवाल करें। रसूलुल्लाह (ﷺ) और सहाबा किराम (رضي الله عنهم) का यही तरीक़ा था। इस तरह का अमल अख्तियार करने से हमारा ज़हन इधर उधर भागने से महफूज रहेगा।


7. हमारा मक़सद: माना (मीनिंग)

कुछ पुरजोश मुसलमान जब शुरू शुरू कुरान पढ़ते हैं तो एक एक लफ्ज़ पर गौर और फिक्र करते हैं मगर कुछ दिनों तक ही उसे निभा पाते हैं। ऊब कर फिर उसी पुरानी डगर पर चल पढ़ते हैं और समझे बगैर पढ़ने लगते हैं। सवाल यह है कि तरीका है के सोचा-समझा भी जाए और गैर मामूली ताखी़र भी ना हो। आसान तरीका यह है कि हम आयत का खुलासा (summary) समझते जायें। जिन अल्फाज़ के माना अरबी जानने के बावजूद नहीं जानते तो उसका माना खुलासा से समझें। जैसे हम अंग्रेजी में कोई मजमून या ख़बर पढ़ते हैं तो हमें हर लफ्ज़ का तफ़सीली मफहूम मालूम नहीं होता लेकिन हम उस पूरे कलिमा को पढ़कर उसका मतलब समझ लेते हैं। 

रसूलुल्लाह (ﷺ) का इरशाद है:

"क़ुरआन इसलिए नहीं उतरा के उसका कुछ हिस्सा दूसरे हिस्से की तकज़ीब करता हो बल्कि इसका हर हिस्सा दूसरे हिस्सों की तस्दीक़ करता है। तुम लोग क़ुरआन में से समझ जाओ, उस पर अमल करो और जिसका मतलब ना समझ पाओ तो क़ुरआन जाने वाले की तरफ लौटाओ (यानी उस से समझ लो)।" 

[ यह हदीस हसन है, मुसनद अहमद; सुनन बिन माजा]

इसका यह मतलब नहीं कि हम अल्फाज़ के माना जानने की कोशिश ना करें या तफसीर ना पढ़ें। मतलब सिर्फ यह है कि हम तफसीर के लिए अलग वक्त रखें और तिलावत ए क़ुरआन के लिए अलग वक्त तय कर ले। तिलावत से हमारा मक़सद "दिल को जिंदा" करना हो। इसके लिए हमें तफसीर के बगैर क़ुरआन मजीद से सीधी मुलाकात करनी होगी।


8. आयतों को बार बार पढ़ना

हमने क़ुरआन से फायदा उठाने के लिए अब तक जितनी भी बातें बताई है यह सब अक्ल से ताल्लुक़ रखती हैं, जो इल्म और दानिश का मरकज है। अब हम जो तरीका बयां कर रहे हैं वो दिल (क़ल्ब) के लिए है। दिल ईमान का महल है। दिल इंसान के अंदरूनी जज़्बात और एहसासों का मरकज है। दिल में जितना ईमान ज्यादा होगा उतने ही अमल सालेह होंगे। इसका मतलब यह है कि ईमान जज़्बा और एहसास से इबारत है। हमारा हक कबूल करना, झुक जाना, मुतासिर होना, नमाज़, दुआ और तिलावत ए क़ुरआन में ईमान का बढ़ना सब का ताल्लुक़ दिल से है। अल्लाह तआला इरशाद फरमाता है:

 وَ اِذَا تُلِیَتۡ عَلَیۡہِمۡ اٰیٰتُہٗ زَادَتۡہُمۡ اِیۡمَانًا

"और जब अल्लाह की आयतें उनके सामने पढ़ी जाती हैं तो उनका ईमान बढ़ जाता है।"

[सूरह अनफाल 8:2]

कु़रआन ईमान में इज़ाफा करने के लिए अहम ज़रिया में से एक है। शुरू में क़ुरआन की तासीर की मिक़दार कम होगी मगर जब बयान किए हुआ तमाम मसाइल सामने आएंगे तो इज़ाफा होता जाएगा।

साहाबा किराम और सहाबियात (رضي الله عنهم) अक्सर एक ही आयत को बार बार पढ़ते रहते थें। 

हजरत इबादह बिन हमज़ह (رضي الله عنه) बयान करते हैं कि मै हज़रत असमा (رضي الله عنها) की खिदमत में हाज़िर हुआ तो वह यह आयत पढ़ रही थी: فَمَنَّ اللّٰہُ عَلَیۡنَا وَ وَقٰىنَا عَذَابَ السَّمُوۡمِ "आख़िरकार अल्लाह ने हम पर फ़ज़ल किया और हमें झुलसा देनेवाली हवा के अज़ाब से बचा लिया।" [सूरह अत तूर (52): 27] मैं उनके पास ठहरा रहा तो वह इसी आयत ही को दोहराती रही और दुआ करती रहीं। अपने मक़सद से फारिग़ होकर वापस आया तो अभी तक वह उसी आयत को दोहरा रही थीं। [मुक्तसर किया उल लैल मोहम्मद बिन नसह 149]


मुसन्निफ़ा (लेखिका): सुमैय्या रमज़ान
किताब: क़ुरान पर अमल
हिंदी तरजुमा: Islamic Theology

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