हजरत मुहम्मद ﷺ के अल्लाह के पैग़म्बर होने के सबूत।
रूमियों के ईरानियों पर गालिब आने की पेशनगोई।
जब रूमी ईरानियों से हार गए थे तो सारी दुनिया ये समझ रही है कि इस सल्तनत का ख़ात्मा क़रीब है, उस ज़माने में अरब से लगे हुए उर्दुन, शाम (सीरिया) और फ़िलस्तीन थे जिन पर रूमियों का क़ब्ज़ा था और इन इलाक़ों में रूमियों पर ईरानियों का ग़लबा 615 ई० में मुकम्मल हुआ था। ऐसे हालत में कुरआन ये पेशनगोई करता है कि कुछ साल न गुज़रने पाएँगे कि पाँसा पलट जाएगा और जो मग़लूब है वो ग़ालिब हो जाएगा। यानी रूमी वापस ईरानियों पर गालिब आ जायेंगे। ये ऐसी पेशीनगोई थी जिसके पूरे होने का इमकान भी दूर तक नजर न आता था लेकिन इतिहास गवाह है कि ये पेशीनगोई हर्फ वा हर्फ पूरी हुई जैसाकी मुहम्मद ﷺ के जरिए अल्लाह ने कुरआन की सूरह रूम की शुरुआती आयात में की थी;
غُلِبَتِ الرُّوۡمُ
"रूमी क़रीब की सरज़मीन में मग़लूब हो गए हैं।"
فِیۡۤ اَدۡنَی الۡاَرۡضِ وَ ہُمۡ مِّنۡۢ بَعۡدِ غَلَبِہِمۡ سَیَغۡلِبُوۡنَ
"और मग़लूबियत के बाद कुछ साल के अन्दर वो ग़ालिब हो जाएँगे।"
فِیۡ بِضۡعِ سِنِیۡنَ ۬ ؕ لِلّٰہِ الۡاَمۡرُ مِنۡ قَبۡلُ وَ مِنۡۢ بَعۡدُ ؕ وَ یَوۡمَئِذٍ یَّفۡرَحُ الۡمُؤۡمِنُوۡنَ ۙ
"अल्लाह ही का इख़्तियार है पहले भी और बाद में भी और वो दिन वो होगा जबकि अल्लाह की बख़्शी हुई फ़तह पर मुसलमान ख़ुशियाँ मनाएँगे।"
بِنَصۡرِ اللّٰہِ ؕ یَنۡصُرُ مَنۡ یَّشَآءُ ؕ وَ ہُوَ الۡعَزِیۡزُ الرَّحِیۡمُ
"अल्लाह नुसरत अता फ़रमाता है जिसे चाहता है, और वो ज़बरदस्त और रहीम है।"
وَعۡدَ اللّٰہِ ؕ لَا یُخۡلِفُ اللّٰہُ وَعۡدَہٗ وَ لٰکِنَّ اَکۡثَرَ النَّاسِ لَا یَعۡلَمُوۡنَ
"ये वादा अल्लाह ने किया है, अल्लाह कभी अपने वादे की ख़िलाफ़ वर्ज़ी नहीं करता, मगर अक्सर लोग जानते नहीं हैं।"
[कुरआन 30:2-6]
जो पेशनगोई इन आयतों में की गई है वो क़ुरआन के अल्लाह के कलाम होने और मुहम्मद (ﷺ) के सच्चे रसूल होने की ख़ास शहादतों में से एक है। इसे समझने के लिये ज़रूरी है कि उन तारीख़ी वाक़िआत पर एक तफ़सीली निगाह डाली जाए जो इन आयतों से ताल्लुक़ रखते हैं।
मुहम्मद (ﷺ) की नुबूवत से 8 साल पहले का वक़िआ है कि रूम के क़ैसर (बादशाह) मोरिस के ख़िलाफ़ बग़ावत हुई और एक शख़्स फ़ोकास (Phocas) तख़्ते-सल्तनत पर क़ाबिज़ हो गया। उस शख़्स ने पहले तो क़ैसर की आँखों के सामने उसके पाँच बेटों को क़त्ल कराया, फिर ख़ुद क़ैसर को क़त्ल कराके बाप बेटों के सर क़ुस्तुनतुनिया में बरसरे-आम लटकवा दिये, और उसके कुछ दिन बाद उसकी बीवी और तीन लड़कियों को भी मरवा डाला। इस वाक़िए से ईरान के बादशाह ख़ुसरो परवेज़ को रोम पर हमला आवर होने के लिये बेहतरीन अख़लाक़ी बहाना मिल गया। क़ैसर मौरिस उसका मोहसिन था। उसी की मदद से परवेज़ को ईरान का तख़्त नसीब हुआ था। उसे वो अपना बाप कहता था। इस बुनियाद पर उसने एलान किया कि मैं ग़ासिब फ़ोकास से उस ज़ुल्म का बदला लूँगा जो उसने मेरे मजाज़ी (बोले हुए) बाप और उसकी औलाद पर ढाया है।
603 ई० में उसने सल्तनते-रोम के ख़िलाफ़ जंग का आग़ाज़ किया और चन्द साल के अन्दर वो फ़ोकास की फ़ौजों को पै-दर-पै शिकस्तें देता हुआ एक तरफ़ ऐशियाए-कूचक (Asia Minor) में एडिसा (मौजूदा ऊरफ़ा) तक और दूसरी तरफ़ शाम में हलब और अन्ताकिया तक पहुँच गया। रूमी सल्तनत के बड़े अफ़सरों ने ये देख कर कि फ़ोकास मुल्क को नहीं बचा सकता, अफ़्रीक़ा के गवर्नर से मदद तलब की। उसने अपने बेटे हर्कुलिस को एक ताक़तवर बेड़े के साथ क़ुस्तुनतुनिया भेज दिया। उसके पहुँचते ही फ़ोकास माज़ूल कर दिया गया, उसकी जगह हर्कुलिस क़ैसर बनाया गया, और उसने इक़तिदार में आकर फ़ोकास के साथ वही कुछ किया जो उसने मौरिस के साथ किया था। ये 610 ई० का वाक़िआ है और ये वही साल है जिसमें मुहम्मद ﷺ अल्लाह की तरफ़ से मंसबे-नुबूवत पर सरफ़राज़ हुए।
ख़ुसरो परवेज़ ने जिस अख़लाक़ी बहाने को बुनियाद बनाकर जंग छेड़ी थी, फ़ोकास के अज़ल और क़त्ल के बाद वो ख़त्म हो चुका था। अगर वाक़ई उसकी जंग का मक़सद ग़ासिब फ़ोकास से उसके ज़ुल्म का बदला लेना होता तो उसके मारे जाने पर उसे नए क़ैसर से सुलह कर लेनी चाहिये थी। मगर उसने फिर भी जंग जारी रखी और अब उस जंग को उसने मजूसियत और मसीहियत की मज़हबी जंग का रंग दे दिया। ईसाइयों के जिन फ़िर्क़ों को रूमी सल्तनत के सरकारी कलीसा ने मुल्हिद (ख़ुदा का इनकारी) क़रार देकर सालहा-साल से तख़्ताए-मश्क़े-सितम बना रखा था (यानी नस्तूरी और याक़ूबी वग़ैरा) उनकी सारी हमदर्दियाँ भी मजूसी हमलावरों के साथ हो गईं। और यहूदियों ने भी मजूसियों का साथ दिया, यहाँ तक कि ख़ुसरो परवेज़ की फ़ौज में भर्ती होने वाले यहूदियों की तादाद 26 हज़ार तक पहुँच गई।
हरकुलिस आखिर इस सैलाब को न रोक सका। तख़्त नशीं होते ही पहली इत्तिला जो उसे मशरिक़ से मिली वो अन्ताकिया पर ईरानी क़ब्ज़े की थी। उसके बाद 613 ई० में दमिश्क़ फ़तह हुआ। फिर 614 ई० में बैतुल-मक़दिस पर क़ब्ज़ा करके ईरानियों ने मसीही दुनिया पर क़ियामत ढा दी। 90 हज़ार ईसाई इस शहर में क़त्ल किये गए। उनका सबसे ज़्यादा मुक़द्दस कलीसा कनीसतुल-क़ियामा (Holy Church) बरबाद कर दिया गया। असली सलीब, जिसके मुताल्लिक़ ईसाइयों का अक़ीदा था कि इसी पर मसीह ने जान दी थी, मजूसियों ने छीन कर मदायन पहुँचा दी। लाट पादरी ज़करिया को भी वो पकड़ ले गए और शहर के तमाम बड़े-बड़े गिरजों को उन्होंने मिस्मार कर दिया। इस फ़तह का नशा जिस बुरी तरह ख़ुसरो परवेज़ पर चढ़ा था इसका अन्दाज़ा उस ख़त से होता है जो उसने बैतुल-मक़दिस से हरकुलिस को लिखा था। उसमें वो कहता है:
सब ख़ुदाओं से बड़े ख़ुदा, तमाम रूए-ज़मीन के मालिक ख़ुसरो की तरफ़ से उसके कमीना और बेशुऊर बन्दे हरकुलिस के नाम: "तू कहता है कि तुझे अपने रब पर भरोसा है, क्यों न तेरे रब ने यरूशलम को मेरे हाथ से बचा लिया?"
इस फ़तह के बाद एक साल के अन्दर अन्दर ईरानी फ़ौजें उर्दुन, फ़िलस्तीन और जज़ीरा-नुमाए-सीना के पूरे इलाक़े पर क़ाबिज़ होकर मिस्र की हदों तक पहुँच गईं। ये वो ज़माना था जब मक्का में एक और उससे बहुत ज़्यादा अहमीयत रखनेवाली जंग बरपा थी। यहाँ तौहीद के अलम्बरदार सैयदना मुहम्मद (ﷺ) की क़ियादत में और शिर्क के पैरोकार सरदाराने-क़ुरैश की रहनुमाई में एक दूसरे से जंग में मसरूफ़ थे और नौबत यहाँ तक पहुँच गई थी कि 615 ई० में मुसलमानों की एक बड़ी तादाद को अपना घर बार छोड़कर हब्शा की ईसाई सल्तनत में (जो रूम की दोस्त थी) पनाह लेनी पड़ी। उस वक़्त सल्तनते-रोम पर ईरान के ग़लबे का चर्चा हर ज़बान पर था। मक्का के मुशरिक इस पर बग़लें बजा रहे थे और मुसलमानों से कहते थे कि देखो ईरान के आतिशपरस्त फ़तह पा रहे हैं और वह्य व रिसालत के मानने वाले ईसाई शिकस्त पर शिकस्त खाते चले जा रहे हैं। इसी तरह हम अरब के बुत परस्त भी तुम्हें और तुम्हारे दीन को मिटाकर रख देंगे।
इन हालात में क़ुरआन मजीद की ये सूरा नाज़िल हुई और उसमें ये पेशीनगोई की गई कि क़रीब की सरज़मीन में रोमी मग़लूब हो गए हैं, मगर इस मग़लूबियत के बाद चन्द साल के अन्दर ही वो ग़ालिब आ जाएँगे और वो दिन वो होगा जबकि अल्लाह की दी हुई फ़तह से अहले-ईमान ख़ुश हो रहे होंगे।
इसमें एक के बजाए दो पेशीनगोइयाँ थीं:
- एक ये कि रूमियों को ग़लबा नसीब होगा।
- दूसरी ये कि मुसलमानों को भी उसी ज़माने में फ़तह हासिल होगी।
बज़ाहिर दूर-दूर तक कहीं उसके आसार मौजूद न थे कि इनमें से कोई एक पेशीनगोई भी चन्द साल के अन्दर पूरी हो जाएगी। एक तरफ़ मुट्ठी भर मुसलमान थे जो मक्के में मारे और खदेड़े जा रहे थे और इस पेशीनगोई के बाद भी आठ साल तक उनके लिये ग़लबा व फ़तह का कोई इमकान किसी को नज़र न आता था। दूसरी तरफ़ रूम की मग़लूबियत रोज़-बरोज़ बढ़ती चली गई। 619 ई० तक पूरा मिस्र ईरान के क़ब्ज़े में चला गया और मजूसी फ़ौजों ने तराबुलस के क़रीब पहुँच कर अपने झंडे गाड़ दिये। एशियाए माइनर में ईरानी फ़ौजें रूमियों को मारती दबाती बास्फ़ोरस के किनारे तक पहुँच गईं और 617 ई० में उन्होंने ठीक क़ुस्तुनतुनिया के सामने ख़िलक़दून (Chalcedon मौजूदा क़ाज़ीकूई) पर क़ब्ज़ा कर लिया। क़ैसर ने ख़ुसरो के पास एलची भेज कर बहुत ही नरमी के साथ दरख़ास्त की कि मैं हर क़ीमत पर सुलह करने के लिए तैयार हूँ। मगर उसने जवाब दिया कि अब मैं क़ैसर को उस वक़्त तक अमान न दूँगा जब तक वो ज़ंजीर में जकड़ कर मेरे सामने हाज़िर न हो और अपने ख़ुदाए-मस्लूब को छोड़कर ख़ुदावन्दे-आतिश की बन्दगी न इख़्तियार कर ले। आख़िर कार क़ैसर इस हद तक शिकस्त ख़ुर्दा (मायूस) हो गया कि उसने क़ुस्तुनतुनिया छोड़कर क़रताजना (Carthage) (मौजूदा त्युनिस) मुन्तक़िल हो जाने का इरादा कर लिया।
ग़रज़ अंग्रेज़ इतिहासकार गिबन के बक़ौल, क़ुरआन की इस पेशीनगोई के बाद भी साथ आठ बरस तक हालात ऐसे थे कि कोई शख़्स ये तसव्वुर तक न कर सकता था कि रूमी सल्तनत ईरान पर ग़ालिब आ जाएगी, बल्कि ग़लबा तो दरकिनार उस वक़्त तो किसी को ये उम्मीद भी न थी कि अब ये सल्तनत ज़िन्दा रह जाएगी। [Gibbon, Decline and Fall of the Roman Empire, Vol. ii, p, 788, Modern Library, New York.]
क़ुरआन की ये आयात जब नाज़िल हुईं तो मक्का के काफ़िरों ने उनका ख़ूब मज़ाक़ उड़ाया और उबई-बिन-ख़लफ़ ने हज़रत अबू-बकर (रज़ि०) से शर्त रखी कि अगर तीन साल के अन्दर रूमी ग़ालिब आ गए तो दस ऊँट मैं दूँगा वरना दस ऊँट तुमको देने होंगे। मुहम्मद (ﷺ) को इस शर्त का इल्म हुआ तो आपने फ़रमाया कि क़ुरआन में "फ़ी बिज़इ सिनीन" के अलफ़ाज़ आए हैं और अरबी ज़बान में बिज़इ का इतलाक़ दस से कम पर होता है, इसलिये दस साल के अन्दर की शर्त करो और ऊँटों की तादाद बढ़ाकर सौ कर दो। चुनाँचे हज़रत अबू-बक्र ने उबई से फिर बात की और नए सिरे से ये शर्त तय हुई कि दस साल के अन्दर दोनों पक्षों में से जिसकी बात ग़लत साबित होगी वो सौ ऊँट देगा।
622 ई० में इधर मुहम्मद (ﷺ) हिजरत करके मदीना तैयिबा तशरीफ़ ले गए, और उधर क़ैसर हर्कुलिस ख़ामोशी के साथ क़ुस्तुनतुनिया से बहरे-अस्वद के रास्ते तरबज़ोन की तरफ़ रवाना हुआ जहाँ उसने ईरान पर पीछे की तरफ़ से हमला करने की तैयारी की। इस जवाबी हमले की तैयारी के लिये क़ैसर ने कलीसा से रुपया माँगा और मसीही कलीसा के उस्कुफ़े-आज़म सर्जीस (Sergis) ने मसीहियत को मजूसियत से बचाने के लिये गिर्जाओं के नज़रानों की जमा की हुई दौलत सूद पर क़र्ज़ दी। हर्कुलिस ने अपना हमला 622 ई० में आर्मीनिया से शुरू किया और दूसरे साल 624 ई० में उसने आज़रबेजान में घुस कर ज़रतुश्त के मक़ामे-पैदाइश अर्मियाह (Chloremia) को तबाह कर दिया और ईरानियों के सब से बड़े आतिशकदे की ईंट से ईंट बजा दी। ख़ुदा की क़ुदरत का करिश्मा देखिये कि यही वो साल था जिसमें मुसलमानों को बद्र के मक़ाम पर पहली मर्तबा मुशरिकों के मुक़ाबले में फ़ैसलाकुन फ़तह नसीब हुई। इस तरह सूरा रूम की दोनों पेशीनगोइयाँ, दस साल की मुद्दत ख़त्म होने से पहले बयक-वक़्त पूरी हो गईं।
इब्ने-अब्बास (रज़ि०), अबू सईद ख़ुदरी (रज़ि०), सुफ़ियान सौरी (रह०), सुद्दी (रह०) वग़ैरा हज़रात का बयान है कि ईरानियों पर रुमियों की फ़तह और जंगे बदर में मुशरेकीन पर मुसलमानों की फ़तह का ज़माना एक ही था, इसलिये मुसलमानों को दोहरी ख़ुशी हासिल हुई। यही बात ईरान और रुम की तारीख़ों से भी साबित है। 624 ई० ही वो साल है जिसमे जंगे बदर हुई, और यही वो साल है जिसमे क़ैसरे-रौम ने उस शहर ईरान को तबाह कर दिया जहाँ ज़रतुश्त मज़हब ने जन्म लिया था का और वहाँ के सबसे बड़े आतिशकदे (अग्नि मन्दिर) को गिरा दिया।
फिर रूम की फ़ौजें ईरानियों को मुसलसल दबाती चली गईं। नैनवा की फ़ैसलाकुन लड़ाई 627 ई० में उन्होंने सल्तनते-ईरान की कमर तोड़ दी। उसके बाद शाहाने-ईरान की क़ियामगाह दस्तगर्द (दस्करतुल-मुल्क) को तबाह कर दिया गया और आगे बढ़ कर हर्कुलिस के लश्कर ऐन तैसफ़ून (Ctesiphon) के सामने पहुँच गए जो उस वक़्त ईरान का दारुस्सल्तनत था। 628 ई० में ख़ुसरो परवेज़ के ख़िलाफ़ घर में बग़ावत सामने आई। वो क़ैद किया गया, उसकी आँखों के सामने उसके 18 बेटे क़त्ल कर दिये गए, और कुछ दिनों बाद वो ख़ुद क़ैद की सख़्तियों से हलाक हो गया। यही साल था जिसमें सुलह हुदैबिया हुई जिसे क़ुरआन ने फ़तह-अज़ीम के नाम से याद किया है, और यही साल था जिसमें ख़ुसरो के बेटे क़बाद सानी (द्वितीय) ने तमाम रूमी क़ब्ज़ों से दस्त-बरदार होकर और असली सलीब वापस करके रूम से सुलह कर ली।
629 ई० में क़ैसर मुक़द्दस सलीब को उसकी जगह रखने के लिये ख़ुद बैतूल-मक़दिस गया, और उसी साल मुहम्मद ﷺ क़ज़ा उमरा अदा करने के लिये हिजरत के बाद पहली बार मक्का में दाख़िल हुए।
इस के बाद किसी के लिये इस बात में शक की कोई गुंजाइश बाक़ी न रही कि क़ुरान की पेशीनगोई बिलकुल सच्ची थी। अरब के ज्यादातर मुशरिक लोग इस पर ईमान लाये। उबई-बिन-ख़लफ़ के वारिसों को हार मान कर शर्त के ऊँट हज़रत अबू-बकर (रज़ि०) के हवाले करने पड़े। वह उन्हें लेकर मुहम्मद ﷺ की खिदमत में हाज़िर हुए। आप ने हुक्म दिया कि उन्हें सदक़ा कर दिया जाए। क्यूंकि शर्त उस वक़्त हुई थी जब शरीअत में जूए की हुरमत का हुक्म नहीं आया था मगर अब हुरमत का हुक्म आ चुका था, इस लिए काफिरों से शर्त का माल लेने की इजाज़त तो दे दी गयी मगर हिदायत की गयी कि इसे ख़ुद इस्तेमाल करने की जगह सदक़ा कर दिया जाए।
By इस्लामिक थियोलॉजी
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