हजरत मुहम्मद ﷺ के अल्लाह के पैग़म्बर होने के सबूत।
मुहम्मद ﷺ की दावत दुनिया पर छा जाने की पेशनगोई।
जब अरब के लोग मुहम्मद ﷺ की दावत का इंकार कर रहे और सिर्फ इंकार ही नहीं बल्कि इस दावत को मिटा देने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे थे उस दौर में अल्लाह उनसे कहता है:
سَنُرِیۡہِمۡ اٰیٰتِنَا فِی الۡاٰفَاقِ وَ فِیۡۤ اَنۡفُسِہِمۡ حَتّٰی یَتَبَیَّنَ لَہُمۡ اَنَّہُ الۡحَقُّ ؕ اَوَ لَمۡ یَکۡفِ بِرَبِّکَ اَنَّہٗ عَلٰی کُلِّ شَیۡءٍ شَہِیۡدٌ
"जल्द ही हम इनको अपनी निशानियाँ बाहरी दुनिया में भी दिखाएँगे और इनके अपने अन्दर भी, यहाँ तक कि इनपर ये बात खुल जाएगी कि ये क़ुरआन सचमुच हक़ है। क्या ये बात काफ़ी नहीं है कि तेरा रब हर चीज़ का गवाह है?"
[कुरआन 41:53]
इस आयत के दो मतलब हैं और दोनों ही क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले बड़े आलिमों ने बयान किये हैं-
पहला मतलब:
एक मतलब ये है कि जल्द ही ये अपनी आँखों से देख लेंगे कि इस क़ुरआन की दावत आस-पास के तमाम देशों पर छा गई है और ये ख़ुद उसके आगे सर झुकाए हुए हैं। उस वक़्त इन्हें पता चल जाएगा कि जो कुछ आज इनसे कहा जा रहा है और ये मानकर नहीं दे रहे हैं, वो सरासर हक़ था।
कुछ लोगों ने इस मतलब पर ये एतिराज़ किया है कि सिर्फ़ किसी दावत का ग़ालिब आ जाना और बड़े-बड़े इलाक़े जीत लेना तो उसके हक़ होने की दलील नहीं है, बातिल दावतें भी छा जाती हैं और उनके पैरोकार भी देश-पर-देश जीतते चले जाते हैं। लेकिन ये एक सतही एतिराज़ है जो पूरे मामले पर ग़ौर किये बिना कर दिया गया है।
मुहम्मद (ﷺ) और ख़ुलफ़ाए-राशिदीन के दौर में जो हैरतअंगेज़ फ़तहें इस्लाम को मिलीं, वे सिर्फ़ इस मानी में अल्लाह की निशानियाँ न थीं कि ईमानवाले देश पर देश जीतते चले गए, बल्कि इस मानी में थीं कि देशों की ये जीत दुनिया की दूसरी जीतों की तरह नहीं थी जो एक शख़्स या एक ख़ानदान या एक क़ौम को दूसरों की जान-माल का मालिक बना देती हैं और ख़ुदा की ज़मीन ज़ुल्म से भर जाती है। इसके बरख़िलाफ़ ये जीत अपने साथ एक शानदार मज़हबी, अख़लाक़ी, ज़ेहनी और फ़िक्री (मानसिक और वैचारिक), तहज़ीबी और सियासी और समाजी और मआशी इंक़िलाब लेकर आई थी, जिसके असरात जहाँ-जहाँ भी पहुँचे, इन्सान के बेहतरीन जौहर सामने आते चले गए और बुरे औसाफ़ दबते चले गए।
दुनिया जिन ख़ूबियों को सिर्फ़ दुनिया से दूर रहनेवाले दरवेशों और कोने में बैठकर अल्लाह-अल्लाह करनेवालों के अन्दर ही देखने की उम्मीद रखती थी और कभी ये सोच भी न सकती थी कि दुनिया का कारोबार चलानेवालों में भी वे पाए जा सकते हैं, इस इंक़िलाब ने अख़लाक़ की वे ख़ूबियाँ हुकूमत करनेवालों की सियासत में, इन्साफ़ की कुर्सी पर बैठनेवालों की अदालत में, फ़ौजों के कमांडरों की जंग और जीतों में, टैक्स वुसूल करनेवालों की तहसीलदारी में और बड़े-बड़े कारोबार चलानेवालों की तिजारत में ज़ाहिर करके दिखा दिये। उसने अपने पैदा किये हुए समाज में आम इन्सानों को अख़लाक़ और किरदार और पाकी-सफ़ाई के एतिबार से इतना ऊँचा उठाया कि दूसरे समाजों के चुने हुए लोग भी उनकी सतह से नीचे नज़र आने लगे। उसने अन्धविश्वासों और बेकार की रस्मों के चक्कर से निकालकर इन्सान को इल्मी तहक़ीक़ और सोचने और अमल करने के मुनासिब तरीक़े की साफ़ राह पर डाल दिया। उसने इज्तिमाई ज़िन्दगी के उन रोगों का इलाज किया, जिनके इलाज की फ़िक्र तक से दूसरे निज़ाम ख़ाली थे, या अगर उन्होंने इसकी फ़िक्र की भी तो इन रोगों के इलाज में कामयाब न हो सके, मसलन रंग-नस्ल और वतन और ज़बान की बुनियाद पर इन्सानों में फ़र्क़ करना, एक ही समाज में तबक़ों का बाँटना और उनके बीच ऊँच-नीच का फ़र्क़ और छूत-छात, क़ानूनी अधिकार और अमली रहन-सहन में बराबरी का न होना औरतों का पिछड़ापन और बुनियादी अधिकारों तक का न मिलना, जुर्मों का बहुत ज़्यादा होना, शराब और दूसरी नशीली चीज़ों का आम रिवाज, हुकूमत का तनक़ीद और जवाबदेही से परे रहना, आम लोगों को बुनियादी इन्सानी हक़ों तक का न मिल पाना, बैनुल-अक़वामी (अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों) में समझौतों का लिहाज़ न करना, जंग में ज़ालिमाना हरकतें और ऐसे ही दूसरे रोग सबसे बढ़कर ख़ुद अरब की सरज़मीन में इस इंक़िलाब ने देखते-देखते क़ानून को न मानने की जगह नज़्म, ख़ून-ख़राबे और बदअमनी की जगह अमन, बुराई और गुनाहों की जगह पाकी और परहेज़गारी, ज़ुल्म और बेइंसाफ़ी की जगह इन्साफ़, गन्दगी और नाशाइस्तगी की जगह पाकीज़गी और तहज़ीब, जहालत की जगह इल्म और नस्ल-दर-नस्ल चलनेवाली दुश्मनियों की जगह भाईचारे और मुहब्बत का माहौल पैदा कर दिया और जिस क़ौम के लोग अपने क़बीले की सरदारी से बढ़कर किसी चीज़ का ख़ाब तक न देख सकते थे, उन्हें दुनिया का इमाम बना दिया। ये थीं वे निशानियाँ जो उसी नस्ल ने अपनी आँखों से देख लीं जिसे मुख़ातब करके मुहम्मद (ﷺ) ने पहली बार ये आयत सुनाई थी और उसके बाद से आज तक अल्लाह इन निशानियों को बराबर दिखाए जा रहा है। मुसलमानों ने अपने ज़वाल के दौर में भी अख़लाक़ की जो बुलन्दी दिखाई है, उसकी धुल को भी वे लोग कभी नहीं पहुँच सके जो तहज़ीब और शाइस्तगी के अलमबरदार बने फिरते हैं।
यूरोप की क़ौमों ने अफ़्रीक़ा, अमेरिका, एशिया और ख़ुद यूरोप में मातहत क़ौमों के साथ जो ज़ुल्म से भरा सुलूक किया है, मुसलमानों के इतिहास के किसी दौर में भी उसकी कोई मिसाल नहीं पेश की जा सकती। ये क़ुरआन ही की बरकत है जिसने मुसलमानों में इतनी इन्सानियत पैदा कर दी है कि वे कभी ग़लबा पाकर उतने ज़ालिम न बन सके जितने ग़ैर-मुस्लिम इतिहास के हर दौर में ज़ालिम पाए गए हैं और आज तक पाए जा रहे हैं। कोई आँखें रखता हो तो ख़ुद देख ले कि स्पेन में जब मुसलमान सदियों तक हुक्मराँ रहे, उस वक़्त ईसाइयों के साथ उनका क्या सुलूक था और जब ईसाई वहाँ ग़ालिब आए तो उन्होंने मुसलमानों के साथ क्या सुलूक किया। भारत में आठ सौ साल के लम्बे हुकूमत के दौर में मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ क्या बर्ताव किया और अब हिन्दू ग़ालिब आ जाने के बाद उनके साथ क्या बर्ताव कर रहे हैं। यहूदियों के साथ पिछले तेरह सौ साल में मुसलमानों का रवैया क्या रहा और अब फ़िलस्तीन में मुसलमानों के साथ उनका क्या रवैया है।
दूसरा मतलब:
दूसरा मतलब इस आयत का ये है कि अल्लाह ज़मीन और आसमान की दुनिया में भी और इन्सानों के अपने वुजूद में भी लोगों को वे निशानियाँ दिखाएगा जिनसे उनपर ये बात खुल जाएगी कि ये क़ुरआन जो तालीम दे रहा है, वही सही है। कुछ लोगों ने इस मतलब पर ये एतिराज़ किया है कि ज़मीन और आसमान की दुनिया और ख़ुद अपने वुजूद को तो लोग उस वक़्त भी देख रहे थे, फिर आनेवाले ज़माने में इन चीज़ों के अन्दर निशानियाँ दिखाने का क्या मतलब? लेकिन ये एतिराज़ भी वैसा ही सतही है जैसा ऊपर के मतलब पर एतिराज़ सतही था। ज़मीन और आसमान की दुनिया तो बेशक वही हैं जिन्हें इन्सान हमेशा से देखता रहा है और इन्सान का अपना वुजूद भी उसी तरह का है जैसा हर ज़माने में देखा जाता रहा है, मगर इन चीज़ों के अन्दर ख़ुदा की निशानियाँ इतनी ज़्यादा और अनगिनत हैं कि इन्सान कभी उनको अपनी जानकारी के घेरे में नहीं ले सका है, न कभी ले सकेगा। आज मॉडर्न साइंस जो कुछ कायनात और इंसान की पैदाइश के बारे में हमे बता रही है वो सब अल्लाह ने कुरआन में 1400 साल पहले ही बता दिया था जिसकी तसदीक आज मॉडर्न साइंस कर रही है इसके सबूत में कुरआन की 1000 से ज्यादा आयतें जो की साइंटिफिक फैक्ट की बात करती है गवाही के तौर पर हमारे सामने मौजूद है और हर दौर में इन्सान के सामने नई-नई निशानियाँ आती चली गई हैं और क़ियामत तक आती चली जाएँगी।
इन्हीं निशानियों के बारे में अल्लाह ने कुरआन में कहा था:
"जल्द ही हम इनको अपनी निशानियाँ बाहरी दुनिया में भी दिखाएँगे और इनके अपने अन्दर भी, यहाँ तक कि इनपर ये बात खुल जाएगी कि ये क़ुरआन सचमुच हक़ है।"
By इस्लामिक थियोलॉजी
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