जशने ईद मिलादुननबी और उसकी हकीकत
मिलाद का मतलब है "पैदाइश का दिन" और ईद मिलादुननबी का मतलब है "नबी-ए-करीम ﷺ की पैदाइश के दिन को ईद की तरह मानना"।
ईद मिलादुननबी की वकालत करने वालों के अनुसार 12 रबीउल अव्वल को आख़िरी नबी मुहम्मद ﷺ की विलादत हुई थी और उनकी विलादत का दिन ख़ुशी का दिन है इसलिए हर साल इस दिन को बड़े जोशो व ख़रोश से मनाना चाहिए, नए कपड़े पहनने चाहिए, घरों में मिठाइयां और पकवान बनाये जाने चाहिए, और एक जुलूस भी निकाला जाना चाहिए जिसमें माइक और लाउडस्पीकर पर नारे लगाये जाएं, शोर शराबों के बीच यह ख़ुशियां मनाई जाएं।
ये सिद्धांत कहाँ तक सही है और क़ुरआन और हदीस में इसके बारे में क्या हुक्म है?
ईद मिलादुन नबी को मनाने का सुबूत न तो क़ुरआन की किसी आयत में मिलता है और न ही किसी हदीस में ईद मिलादुन नबी का ज़िक्र है, तो फिर इस का वुजूद क्यों कैसे और कहाँ से हुआ?
तारीख़ की किताबों के हवाले से पता ये चलता है कि इराक़ के शहर मूसल के इलाके में इरबिल के बादशाह "मलिक मुज़फ़्फ़र अबु-सईद" ने नबी करीम की वफ़ात के 600 साल बाद सबसे पहले इस्लाम में इस नई रस्म को जन्म दिया और रबीउल अव्वल के महीने में उसके आदेश से एक महफ़िल आयोजित की गयी जिसमें दस्तरख़्वान सजाया गया और सूफ़ियों को दावत दी गई फिर ढोल-ताशे बजे और नाच-गाना हुआ जिसे ईद मिलादुन नबी का नाम दिया गया। [अल-बिदायह वन निहाया, इब्ने कसीर जिल्द 13, सफ़हा 160]
इस बादशाह के बारे में मोवर्रिख़ (इतिहासकार) ने लिखा है के इसे दीन की समझ नहीं थी और ये फ़ुज़ूल ख़र्च इंसान था। [अनवारे सातिया, सफ़हा 267]
उसके पहले तक क़ुरआन हदीस से साबित सिर्फ़ दो ईद ही थी मगर कुछ लोगों की वजह से तीसरी ईद का आग़ाज़ हुआ जिसकी अब तक कोई दलील नहीं मिल सकी।
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं,
إِنَّ أَصْدَقَ الْحَدِيثِ كِتَابُ اللَّهِ، وَأَحْسَنَ الْهَدْيِ هَدْيُ مُحَمَّدٍ، وَشَرُّ الْأُمُورِ مُحْدَثَاتُهَا، وَكُلُّ مُحْدَثَةٍ بِدْعَةٌ وَكُلُّ بِدْعَةٍ ضَلَالَةٌ وَكُلُّ ضَلَالَةٍ فِي النَّارِ
"सच्ची बात अल्लाह की किताब है और सबसे बेहतर तरीक़ा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का तरीक़ा है, दीन के अंदर नई नई चीज़ें दाख़िल करने से बाज़ रहो, बेशक हर नई चीज़ बिदअत है और हर बिदअत गुमराही है और हर गुमराही जहन्नम में ले जाने वाली है."
[सुनन निसाई, किताबुल ईदैन 1598]
इस तीसरी ईद को मनाने की शरई हक़ीक़त पे ग़ौर करेने पर यह पता चलता है कि;
- ईद मिलादुन नबी को कभी भी रसूलल्लाह ﷺ की हयात में नहीं मनाया गया और न ही कभी आप ﷺ ने इसे मनाने का हुक्म दिया।
- इस तीसरी ईद को सहाबा ए कराम में से किसी ने नहीं मनाया और न ही कभी इस ईद के वजूद की तस्दीक़ की।
- ताबईन और तबअ ताबईन के दौर में भी कभी कहीं इस ईद का ज़िक्र नहीं मिलता और न ही उस ज़माने में किसी ने इस ईद को मनाया था।
इन तमाम सुबूतों से यही साबित होता है के इस्लाम में दो ईदों (ईद उल-फ़ित्र और ईद उल-अज़हा) के इलावा कोई तीसरी ईद नहीं है, यह लोगों के अपने दिमाग़ की उपज है जो कि सरासर बिदअत है।
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया,
مَنْ أَحْدَثَ فِي أَمْرِنَا هَذَا مَا لَيْسَ فِيهِ فَهُوَ رَدٌّ
"जिसने हमारे दीन में कोई ऐसी चीज़ निकाली जो मौजूद न थी तो वह मरदूद है।"
[सहीह बुखारी हदीस 2697]
12 रबीउल अव्वल का दिन ख़ुद मुहम्मद ﷺ के दौरे हयात में 63 दफ़ा आया था, खुलफ़ा-ए-राशेदीन में अबु बकर रज़ि० की ख़िलाफ़त में 2 दफ़ा, उमर रज़ि० की ख़िलाफ़त में 10 दफ़ा, उस्मान रज़ि० की ख़िलाफ़त में 12 दफ़ा और अली रज़ि० की ख़िलाफ़त में 4 दफ़ा ये दिन आया मगर फिर भी किसी के भी ईद मिलादुन नबी मनाने का सुबूत नहीं मिलता, जब उन जैसी शख़्सियात ने जिन्हें दूनिया में ही जन्नत की ख़ुशख़बरी दे दी गई थी और जो किताबुल्लाह और सुन्नते रसूलुल्लाह पर आज के मुस्लमान से कहीं ज़्यादा ....बल्कि सबसे ज़्यादा अमल करने वालों में से हैं, कभी इस दिन को नहीं मनाया तो फिर कैसे इसे बतौर ईद मनाना जाएज़ हो सकता है?
अब ज़रा इस बिदअत को ज़ोर व शोर से अंजाम देने वाले लोगों के पेश किये गए कुछ सुबूतों पे ग़ौर करते हैं:
قُلْ بِفَضْلِ ٱللَّهِ وَبِرَحْمَتِهِ فَبِذَلِكَ فَلْيَفْرَحُواْ هُوَ خَيْرٌ مِّمَّا يَجْمَعُونَ
कह दो, "यह अल्लाह के फ़ज़ल (अनुग्रह) और उस की रहमत (दया) से है, अतः इस पर प्रसन्न होना चाहिए। वह उन सब चीज़ों से उत्तम है, जिन को वे इकट्ठा करने में लगे हुए हैं।"
[सूरह 10 यूनुस, आयत 58]
उन लोगों ने इस आयत में रहमत से विलादते नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ले लिया है, जबकि यहां रहमत से मुराद अल्लाह की किताब क़ुरआन है।
ख़ुद शैख़ अहमद रज़ा ख़ान का तर्जुमा कंज़ुल ईमान फ़ी तरजुमतिल क़ुरआन (तफ़्सीर) में भी इस से मुराद क़ुरआन ही लिया गया है जिसे फैज़ान ए क़ुरआन में यूँ बयान किया गया है:-
तफ़्सीर में लिखा है, "हज़रते इबने अब्बास व हसन व क़तादह ने कहा के अल्लाह के फ़ज़ल से इस्लाम और उसकी रहमत से क़ुरआन मुराद है, एक क़ौल ये है के फ़ज़्लुल्लाह से क़ुरआन और रहमत से अहादीस मुराद हैं।" [फ़ैज़ाने क़ुरआन, सफ़हा 311]
इसी तरह की और भी आयतें इनकी तरफ़ से दलील के तौर पे पेश की जाती हैं:
ذَکِّرۡهمۡ بِاَیّٰىمِ اللّٰہِ ؕ
"और उन्हें अल्लाह के दिनों (को) याद दिलाओ।"
[सूरह 14 इब्राहीम, आयत 5]
لَقَدْ مَنَّ ٱللَّهُ عَلَى ٱلْمُؤمِنِينَ إِذْ بَعَثَ فِيهِمْ رَسُولاً مِّنْ أَنْفُسِهِمْ يَتْلُواْ عَلَيْهِمْ آيَاتِهِ وَيُزَكِّيهِمْ وَيُعَلِّمُهُمُ ٱلْكِتَابَ وَٱلْحِكْمَةَ وَإِن كَانُواْ مِن قَبْلُ لَفِي ضَلالٍ مُّبِينٍ
"बेशक अल्लाह ने ईमान वालों पर बड़ा उपकार किया, जबकि स्वयं उन्हीं में से एक ऐसा रसूल उठाया जो उन्हें आयतें सुनाता है और उन्हें निखारता है, और उन्हें किताब और हिक़मत (तत्वदर्शिता) का शिक्षा देता है, अन्यथा इससे पहले वे लोग खुली गुमराही में पड़े हुए थे।"
[सूरह 03 आले इमरान, आयत 164]
कुछ अहादीस भी सुबूत के तौर पेश की जाती हैं:
जब अल्लाह के रसूल ﷺ से पीर के रोज़े के मुतअल्लिक़ पूछा गया, "आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि इस दिन यानि पीर को ही मेरी विलादत हुई और पीर को ही मुझे नबी बनाया गया और इसी दिन नुज़ूले क़ुरआन की इब्तेदा हुई।" [सही मुस्लिम 2747/ कितबुस सयाम]
ऐसी और भी न जाने कई दलीलें पेश की जाती हैं मगर कहीं भी विलादते नबी की बात नहीं मिलती, इस से ज़्यादा से ज़्यादा इतना कहा जा सकता है कि अगर वाक़ई हदीस पर अमल करना और नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से मुहब्बत का इज़हार करना है तो वह हर सोमवार (monday) को रोज़ा रखे इस तरह साल में लगभग 50 रोज़े रमज़ान के इलावा रखना पड़ेगा लेकिन इस पर भी सहाबा का अमल साबित नहीं है।
जब क़ुरआन व हदीस से 12 रबीउल अव्वल को ईद के तौर पर मनाने का सुबूत नहीं मिलता तो फिर इसे बिदअत ही कहा जा सकता है।
जब भी क़ुरआन की आयत रसूलल्लाह ﷺ पर नाज़िल होती तो आप सहाबा ए कराम को तफ़्सीर के साथ समझाते और उस पर अमल करने को कहते थे तो क्या आप ﷺ ने इस तीसरी ईद को अपनी आवाम से छुपा लिया था या फिर आप ﷺ क़ुरआन की उन आयात का मतलब नहीं समझ पाए थे (अल्लाह की पनाह) जिस की बुनियाद पर आज कुछ लोग क़ुरआन से इस ईद का हवाला देने लगे?
अगर एक मिनट को यह फ़र्ज़ भी कर लिया जाय कि उस वक़्त किसी वजह से ये बात रसूलल्लाह ﷺ नहीं भी बता पाए तो फिर आपके सहाबा को भी ये बात पता न चली? अरे ये तो वह लोग थे के जिन्हें अगर छोटी से छोटी बात भी पता चलती तो उस पर अमल करना शुरू कर देते थे फिर क्या यह इतनी बड़ी बात को छोड़ देते, और वह भी जिसका संबंध ख़ुद रसूलुल्लाह ﷺ से हो?
अब हर व्यक्ति को ख़ुद ग़ौर करना चाहिए कि जिस अमल से हमारे नबी का दूर से भी वास्ता नहीं, सहाबा ए किराम का वास्ता नहीं, ताबेईन और तबअ ताबेईन का वास्ता नहीं उसे दीन कैसे कहा जा सकता है।
और अल्लाह ने दीन को मुकम्मल (complete) कर दिया है अब इस में इज़ाफ़े की कोई गुंजाइश नहीं। क़ुरआन में है:
الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الْإِسْلَامَ دِينًا
"आज मैंने तुम्हारे दीन को मुकम्मल कर दिया है और तुमपर अपनी नेअमत पूरी कर दी है और तुम्हारे लिए इस्लाम को दीन की हैसियत से पसन्द कर लिया है।"
[सुरह 05 अल मायेदा, आयत 3]
इसके बावजूद भी जो लोग ईद मिलादुन्नबी मनाते हैं वह ज़रा सोचें कि एक व्यक्ति अपने पिता की ख़ूब प्रशंसा करता है "हे पिता आप! संसार के अच्छे व्यक्तियों में से हैं, आप मेरे लिए दुनिया की तमाम क़ीमती चीज़ों से बढ़कर हैं यहाँ आस पास तो आप जैसा सज्जन व्यक्ति तलाश करने पर भी नहीं मिलेगा आप का कोई जवाब नहीं आप मेरे लिए बेमिसाल हैं" परन्तु वह अपने पिता के आदेश का पालन नहीं करता, उन्हें एक गिलास पानी तक नहीं देता तो आप क्या कहेंगे कि उसे अपने पिता से मुहब्बत है या वह मुहब्बत का ढोंग कर रहा है। ।
अगर नबी के आदेश का पालन न करके केवल उनकी तारीफ़ की जाय, नाअतें पढ़ी जाएं जुलूस निकालें जाए तो क्या यह मुहब्बत का मज़ाक़ नहीं है, क्या यह नबी के साथ धोखा नहीं है।
नाम नबी का विर्द ज़ुबां पर नाव मगर मझदार में है,
मेरे साथी तुम भी सोचो कुछ तो कमी किरदार में है।
رَبَّنَا لَا تُزِغْ قُلُوبَنَا بَعْدَ إِذْ هَدَيْتَنَا وَهَبْ لَنَا مِن لَّدُنكَ رَحْمَةً ۚ إِنَّكَ أَنتَ الْوَهَّابُ
"ऐ हमारे पालने वाले हमारे दिल को हिदायत करने के बाद डॉवाडोल न कर और अपनी बारगाह से हमें रहमत अता फ़रमा इसमें तो शक ही नहीं कि तू बड़ा देने वाला है।"
[सूरह 3 अल-ए-इमरान आयत 8]
आसिम अकरम अबु अदीम फ़लाही
1 टिप्पणियाँ
Masha Allah
जवाब देंहटाएंBehtareen aur sachchi baat kahi aap ne
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