मिलाद उन नबी
قُلۡ بِفَضۡلِ اللّٰهِ وَبِرَحۡمَتِهٖ فَبِذٰلِكَ فَلۡيَـفۡرَحُوۡا
"कह दीजिये अल्लाह की रेहमत वा फज़ल पर खुश हो जाओ।"
[सूरह यूनुस 58]
इसका एक तर्जमा ये भी किया गया हैं,
[अल्लाह तआला के फज़ल व रेहमत पर ख़ुशी मनाओ।]
इस आयत से बरेलवी हज़रात नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मिलाद की दलील पकड़ते हैं।
कहते हैं, अल्लाह रेहमत पर ख़ुशी मनाने को कह रहा है और रेहमत अल्लाह ने किसको कहा हैं?
इरशाद ऐ बारी तआला हैं,
وَمَاۤ اَرۡسَلۡنٰكَ اِلَّا رَحۡمَةً لِّـلۡعٰلَمِيۡنَ
"ऐ नबी हमने आपको रेहमत बना भेजा हैं क़ायनात के लिए।"
[सूरह अम्बिया 107]
बरेलवी हज़रात कहते हैं, अल्लाह ने रेहमत पर ख़ुशी मनाने का हुक्म दिया है और रेहमत हमारे आक़ा नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हैं तो हम आक़ा का मिलाद मनाते हैं।
तो आपने मुलाहिज़ा किया बरेलवी ने अजीब-ओ-ग़रीब तोड़-मरोड़ करके अपने मन से अपना अक़ीदा साबित कैसे किया?
जवाब न. 1: पहली बात तो अल्लाह तआला ने इस आयत मे रेहमत जिसको कहा हैं वो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़ात नहीं हैं बल्कि क़ुरआन को रेहमत कहा है।
दूसरी बात ये जो रेहमत है वो रेहमत नहीं है, जो नबी अलैहिस्सलाम पर फिट की जा रही है क्यूंकि ये रेहमत नबी अलैहिस्सलाम के दुनिया मे आने से पहले भी थी और उनके नबी बनने से पहले भी थी। यहाँ आयत मे रेहमत का ज़मीर अल्लाह की तरफ यानी उसकी रेहमानियत की तरफ लौट रही है।
दूसरा मतलब ये है, इस आयत मे क़ुरआन को रेहमत कहा गया है।
(देखिये तफसीर ऐ तबरी) बेशक़ नबी अलैहिस्सलाम आलमीन के लिए रेहमत हैं लेकिन इस आयत मे नबी अलैहिस्सलाम नहीं बल्कि क़ुरआन मुराद है।
जवाब न. 2: ये दूसरा तर्जमा सहीह नहीं है की ख़ुशी मनाओ।
असल मे लफ्ज़ ऐ (فرح۱) के माने होते हैं ख़ुशी महसूस करना, या खुश होना न की ख़ुशी मनाना।
जैसा के अल्लाह तआला का इरशाद हैं
فَرِحَ الۡمُخَلَّفُوۡنَ
"(ग़ज़वा तबूक से पीछे रह जाने वाले) मुनाफिक़ खुश हुए।"
[सूरह तौबा 81]
क्या कोई कह सकता है की मुनाफिको ने जश्न मनाया था, जुलूस निकाला था, अगरबत्ती जलायी थी, मोमबत्ती जलाई थी, घोड़े पर बैठे थे वग़ैरा वग़ैरा।
तो इस आयत से पता चला "فَرِحَ" के माने खुश होना या ख़ुशी महसूस करना हुआ।
सहीह बुखारी (1915) मे आया है की जब सूरह बक़रा आयत 187 नाज़िल हुई तो,
فَفَرِحُوا بِهَا فَرَحًا شَدِيدًا ، وَنَزَلَتْक्या कोई इससे ये मतलब ले सकता है की सहाबा इकराम ने जश्न मनाया, झंडिया लगाई जबकि वही लफ्ज़ "فَرَحًا" इस्तेमाल हुआ है जो आयत मे हुआ।
दूसरी बात ये है नबी अलैहिस्सलाम की क्या आपके नज़दीक रेहमत है बल्कि नबी अलैहिस्सलाम की हर अदा हर फेल क़ौल रेहमत हैं तो सिर्फ मिलाद को ही रेहमत क्यों कहा जा रहा है?
- नबी ने जंग की वो भी रेहमत है, जश्न मनाओ।
- नबी ने फतेह मक्का हासिल की ये अदा भी रेहमत है, फतेह मक्का कब मनाओगे?
- क्या सिर्फ मिलाद ही रेहमत है? ये तो ना इंसाफ़ी वाली बात हुई।
- ये आयत सहाबा के सामने भी आयी, क्या साहबाओ ने इस आयात के चलते मिलाद मनाया?
दीन ऐ इस्लाम मे सिर्फ दो ईदें हैं
हदीस मुलाहिज़ा फरमाए,
"नबी ﷺ मदीने तशरीफ़ लाये, अहले मदीना ने दो दिन मुक़र्रर किये हुए थे जिनमे वो खेल कूद करते थे नबी ﷺ ने पूछा ये दो दिन कैसे?
कहने लगे हम ज़माना ऐ जाहिलियत से ही इन दो दिनों मे खेल कूद करते चले आ रहे हैं।
नबी ﷺ ने फ़रमाया बेशक़ अल्लाह तआला ने आपको ईद उल अज़हा और ईद उल फ़ित्र की सूरत मे बेहतरीन दो दिन अता किये।
[सुनन अबू दाऊद हदीस 1134]
इस हदीस को इमाम हाकिम ने इमाम मुस्लिम की शर्त पर सहीह कहा है, हाफ़िज़ ज़हबी ने मवाफ़ीक़त की है, इब्ने हजर अस्कलानी रहीमल्लाह ने इसकी सनद को सहीह कहा है। (बुलुगुल मिलाम मिन दौलतुल एहकाम )
ईद ऐ गदीर
शिया ईद ऐ गदीर ऐ खुम मनाते हैं इस दिन नबी ﷺ ने फ़रमाया था जिसका मे मौला हूँ उसका अली मौला है। ये अली रज़ि अन्हु का इज़आज है।
अब सवाल ये उठता है की अली रज़ि अन्हु तो सबके हैं सिर्फ शिया के तो नहीं हैं, तो हम सब मिलकर इस दिन एक बड़ी वाली ईद का एहतामाम करें क्यूंकि बरेलवियों के नज़दीक ख़ुशी के मौक़े पर ईद मनाना क़ुरानी है।
लेकिन जो एहबाब ईद मिलाद पर ख़ुशी वाली आयत पेश करते हैं और दलील बनाते हैं लेकिन इसी ख़ुशी वाली आयत से साबित होने वाली ईद गदीर ऐ खुम बिदअत कहते हैं।
क्या सय्यदना अली रज़ि अन्हु के इसी इज़ाज़ पर इनको ख़ुशी नहीं या इनका इसतदलाल हीं खता हैं?
या वो अली रज़ि अन्हु से बुगज़ रखते हैं या फिर सिवाये बरेलवियों के जहाँ मे शिया हीं खुशियाँ मना रहे हैं?
ईद मिलाद ऐ ईसा अलैहिस्सलाम
ईसाई लोग सय्यदना ईसा अलैहिस्सलाम के मिलाद के क़ाईल हैं। इनके दुनिया मे आने की ख़ुशी मे जश्न मनाते हैं और इसे ईद क़रार देते हैं लेकिन मुसलमानो का दावा है के हमें सय्यदना ईसा अलैहिस्सलाम की आमद की ख़ुशी इसाइयो से ज़्यादा हैं और आज भी वो इनका इंतज़ार कर रहे हैं। ये इनके ईमान का जुज़्ज़ लाज़िम है तो,
- क्या इस बिना पर इनका यौमुल विलादत बतौर ऐ ईद मनाना चाहिए?
- इसमें बढ़ बढ़ कर हिस्सा लेना चाहिए?
- ये ख़ुशी का इज़हार हैं तो, क्या हम भी ख़ुशी के इज़हार के लिए मिलाद ऐ ईसा मनाये?
- क्या लोगो से कहा जाए की आपको सय्यदना ईसा अलैहिस्सलाम के दुनिया में आने की खुशी नहीं है? इसलिए आप योमूल विलादत नहीं मनाते आप गुस्ताख ए ईसा हैं
ईद ऐ मायदा
मुफ़्ती अहमद यार खान नईमी साहब लिखते हैं, ईसा अलैहिस्सलाम ने दुआ की थी:
اللّٰهُمَّ رَبَّنَاۤ اَنۡزِلۡ عَلَيۡنَا مَآئِدَةً مِّنَ السَّمَآءِ تَكُوۡنُ لَـنَا عِيۡدًا لِّاَوَّلِنَا وَاٰخِرِنَا
"ऐ अल्लाह ऐ हमारे रब हमारे लिए आसमान से खाना उतार यानी हम मे जो अव्वल हैं और जो बाद के हैं सबके लिए ईद (ख़ुशी ) बन जाए।"
[सूरह तौबा आयत 114]
मालूम हुआ के आसमान से खाने आने के दिन को ईसा अलैहिस्सलाम ने ईद का दिन बनाया। (जा अल हक़ 1/231)
जवाब: ईद हर शरीअत की अलग अलग है। हमारी ईदे ईद उल फ़ित्र ईद और उल अज़हा है।
वरना जिस दिन सय्यदना ईसा अलैहिस्सलाम ने ईद मनाई उस दिन आप ईद क्यों नहीं मनाते?
- क्या सय्यदना ईसा की ख़ुशी मे शरीक नहीं आप?
- क्या इस वक़्त आप वहाबी, नजदी, अहले हदीस बन जाते हो?
- अगर शरीक हैं और यक़ीनन है तो इस खैर से पीछे हट जाना जाएज़ कैसे हुआ?
एक इलज़ामी जवाब: अहले यूरोप एक दिन मदर डे (mother day ) मनाते हैं। इनका कहना है की एक दिन मा जैसी अनमोल नेमत के नाम होना चाहिेऐ।
हालांकि हमारे मुआशरे मे माँ को जो तकद्दूस और एहताराम हासिल है, अहले यूरोप के यहाँ तो अशर आशीर भी नहीं।
- तो हम लोग माँ के नाम से ईद क्यों न मनाये?
- क्या माँ से मोहब्बत नहीं?
- क्या माँ को अल्लाह की नेमत नहीं समझते?
आखिर मे अर्ज़ है कि किसी रोज़ वक़्त निकाल कर उन शय की लिस्ट भी तैयार करें जिन्हे आप खुदा की नेमत जानते हैं और इनकी ईदों का ढांचा भी सामने लाये ताकि आपके दावे किसी दीनी कामयाबी के दिन ख़ुशी का दिन मनाया जाए।
नीज़ जिस दिन अल्लाह की खास रेहमत नाज़िल हो उस दिन को ईद मनाई जाए पर अमल होगा।
गुस्ताखी माफ़, मगर सवाल ये है की ईद मिलाद का ज़िक्र फ़िकाह हँफीया मे क्यों नहीं मिलता?
मिलाद ऐ महफ़िल
हज़रत माविया रज़िअल्लाहु अन्हु से रिवायत हैं की,
नबी ﷺ सहाबा के एक हलके मे तशरीफ़ लाये और फ़रमाया: क्यों बैठे हो?
सहाबा ने अर्ज़ किया: अल्लाह से दुआ कर रहे हैं और उसकी तारीफ कर रहे हैं। उसने हमें हिदायत दी और आप की सूरत हम पर एहसान किया है।
नबी ﷺ ने फरमाया: "अल्लाह की कसम क्या सिर्फ इसी मकसद के लिए बैठे हैं?
अर्ज किया: अल्लाह की कसम सिर्फ इसी मकसद के लिए बैठे हैं।
नबी ﷺ ने फरमाया: मैंने यह कसम बदगुमानी की वजह से नहीं उठाई बल्कि वजह यह थी, अभी जिब्रील मेरे पास आए और उन्होंने मुझे बताया कि अल्लाह ताला फरिश्तों के सामने आप पर फ़ख्र करता है।
[तिर्मिज़ी शरीफ 3379]
इस हदीस से बरेलवी हज़रात ये इसतदलाल करते हैं की ये देखो नबी अलैहिस्सलाम के सामने मजलिस मे सहाबा हल्का बनाकर बैठे थे यानी आम लफ्ज़ो मे कहें तो मिलकर मिलाद ऐ महफ़िल सजा रहे थे।
जवाब: इस हदीस से जश्न ऐ ईद मिलाद उन नबी की महफ़िल पर जवाज़ पकड़ना दुरुस्त नहीं है।
दर्ज़ ऐ जैल सवाल हैं-
1. क्या जब ये महफ़िल यानी सहाबा हलके मे बैठे थे ये 12 रबीउल अव्वल का दिन था?
2. क्या किसी सिक़ा इमाम या मुहद्दिस ने इस हदीस से ये मतलब निकाला था?
3. फिल वक़्त इसको मान भी लिया जाए तो क्या ये हल्का सिर्फ एक बार मुन्तखब हुआ था या हर साल होता था, अगर होता था तो दलील दिखाए?
4. इस हलके मे जुलुस निकालना घोड़े पर बैठना तलवार लेकर चलना कहाँ साबित है?
5. इस हदीस पर अगर अमल करना है तो इसी तरह सारे बरेलवी और शिया हज़रात हर साल ये क़ुरआन हदीस की दावत दे क्यूंकि सहाबा अल्लाह से दुआ कर रहे थे की उसने हमें हिदायत दी और नबी अलैहिस्सलाम की सूरत हम पर एहसान किया लेकिन महफ़िलो मे बाबो की कहानियाँ सुनाई जाती हैं।
6. अगर इसको मिलाद मान लिया जाए तो जिन मुहद्दिस और अइम्मा इकराम ने इसको बिदअत कहा उस पर क्या हुक्म लगेगा?
- इब्ने हजर अस्कलानी रहिमुल्लाह ने इसको बिदअत कहा।
- मुल्ला अली क़ारी ने इसको इसाइयों की मुशाबीहात मे शुमार किया।
- ग़ुलाम रसूल सईदी बरेलवी ने इसको नया काम कहा।
- इमाम सखावी ने इसको बिदअत कहा।
7. अगर इस महफ़िल से मिलाद साबित हो रही हैं तो ये तो सुन्नत बन गई जिस पर अल्लाह और नबी अलैहिस्सलाम की ताईद भी हो गई फिर बरेलवी हज़रात इसको मुस्तहब क्यों कहते हैं?
अगर महीना और दिन नहीं पता तो, इसको 12 रबी उल अव्वल मे हीं क्यों मनाया जाता हैं?
फिर तो रोज़ या हफ्ते मे होना चाहिए?
इन सवालों के जवाब कोई मिलादी क़ुरआन हदीस से दे दे, मै भी मिलाद मनाऊंगा। इंशाअल्लाह
मिलाद का लहबी (अबु लहब) तरीका
उरवाह बिन ज़ुबैर रहिमुल्लाह ताबई बयान करते हैं कि सोबिया अबू लहब की लौंडी (ग़ुलाम) थी। अबु लहब ने इसे आज़ाद कर दिया। इसने नबी अलैहिस्सलाम को दूध पिलाया।
मौत के बाद इसके अहले खाना मे से किसी ने ख्वाब मे देखा, इसने उस अबु लहब से पूछा तूने क्या पाया है?
अबु लहब बोला की तुम्हारे बाद मैंने कोई राहत नहीं पायी, बस सिवाये इसके की सोबिया को आज़ाद करने की वजह से अंगूठे और शहादत की ऊँगली के दरमियन घड़े से पानी मिल जाता हैं। (यानी अंगूठे और शहादत की ऊँगली के दरमियानी हिस्से को घड़ा कहते हैं।
[सहीह बुखारी 5101]
मुसन्नफ अब्दुर्रज़्ज़ाक़ मे अन अना की वजह से ज़इफ है।
जवाब:
1. ये उरवाह बिन ज़ुबैर का मुरसल क़ौल है। लिहाज़ा न क़ाबिल ऐ क़ुबूल है। अफ़सोस की बात है जो अक़ीदे मे खबर ऐ वाहिद के क़ाईल नहीं हैं वो ताबई की मुरसल हदीस ले रहे हैं।
2. ये हदीस क़ुरआन के भी खिलाफ है। इस हदीस मे पता चल रहा है कि अबु लहब को हाथ की ऊँगली के दरमियान राहत थी लेकीन क़ुरआन इसका रद्द करता है।
- تَبَّتۡ يَدَاۤ اَبِىۡ لَهَبٍ وَّتَبَّؕ - مَاۤ اَغۡنٰى عَنۡهُ مَالُهٗ وَمَا كَسَبَؕ
"अबु लहब के दोनों हाथ हलाक हो गए और वो खुद भी हलाक हो गया उसका माल और कमाई भी काम न आयी।"
[सूरह मसद 1-2]
इस आयत से पता चल रहा है कि अबु लहब को राहत नहीं मिली हाथो को भी।
3. 1. जिस अबु लहब के राश्तेदार ने ख्वाब देखा था वो भी काफिर होगा। क्या काफिर के ख्वाब का एत्माद किया जाएगा?
3.2. अबु लहब ने नबी की विलादत पर जो लौंडी आज़ाद की थी वो इसलिए की थी क्यूंकि हमारे नबी अबु लहब के भतीजे थे, तो चाचा बनने की ख़ुशी मे अबु लहब ने लौंडी आज़ाद की। लेकीन जब नबी अलैहिस्सलाम ने नुबूवत का एलान किया तो अबु लहब ने एक न सुनी।
3. 3. अगर बरेलवी हज़रात इससे मिलाद साबित करना चाहते हैं तो ये तो अबु लहब का तरीका होगा यानी लहबी तरीका।
3.4. अगर इस हदीस पर अमल हीं करना है तो हर साल एक लौंडी आज़ाद कर दिया करें बरेलवी हज़रात।
खुलफ़ा ऐ राशिदीन की तरफ मंसूब कुछ ग़लत बातें
पहला झूठ: हज़रत अबु बक्र सिद्दीक की तरफ
हज़रत अबु बक्र सिद्दीक रज़ि• अन्हु ने फ़रमाया, "वो शख्स जन्नत मे मेरे साथ होगा जिसने मिलाद पर एक दिरहम खर्च किया।"
जवाब:
क्या अबु बक्र सिद्दीक पर वही आयी थी?
मान लो नबी अलैहिस्सलाम ने खबर दी तो नबी अलैहिस्सलाम ये कहते की जो मिलाद पर एक दिरहम खर्च करेगा वो जन्नत मे मेरे साथ होगा न की ये कहते की अबु बक्र सिद्दीक के साथ होगा।
3. इसमें ये ज़िक्र कहाँ है की ये मिलाद किसकी थी। इसमें सिर्फ ये ज़िक्र है जिसने मिलाद मे दिरहम खर्च किये। ये कहाँ है कि नबी अलैहिस्सलाम की मिलाद पर खर्च किये?
4. अब अबु बक्र सिद्दीक के इस अमल पर तीनो खुलफ़ाओ ने अमल किया होगा तो क्या तीनो खुलफ़ा अबु बक्र सिद्दीक के साथ होंगे?
दूसरा झूठ: हज़रत उमर रज़िअल्लाहु अन्हु की तरफ
हज़रत उमर रज़िअल्लाहु अन्हु ने फ़रमाया: "जिसने मिलाद की ताजीम की उसने दीन को ज़िंदा कर दिया।"
जवाब:
1. हज़रत उमर रज़िअल्लाहु अन्हु किसकी मिलाद की ताज़ीम को कह रहे हैं पता नहीं?
2. बढ़े बढ़े मुफसिरीन, मुहद्दीसीन, अइम्मा इकराम ने कहा है कि नबी अलैहिस्सलाम की मिलाद मनाना सहाबा, ताबई और तबे ताबई से साबित नहीं है।
कुछ नाम दर्ज ऐ ज़ैल हैं-
- इब्ने हजर अस्कलानी
- इमाम सियूती
- इमाम सखावी
- इमाम शातबी
- ग़ुलाम रसूल सईदी बरेलवी आलिम
लोगो ने कहा है कि ये मिलाद सहाबा, ताबई और तबे ताबई से साबित नहीं तो इनके हिसाब से इन्होने मिलाद की ताज़ीम नहीं की?
इन्होने कहा है की ये सहाबा, ताबई से भी साबित नहीं यानी सहाबा ने भी ताज़ीम नहीं की मिलाद की?
तीसरा झूठ: हज़रत उस्मान रज़िअल्लाहु अन्हु की तरफ
हज़रत उस्मान रज़िअल्लाहु अन्हु ने फ़रमाया: "जो मिलाद पर एक दिरहम खर्च करेगा उसको बद्र के शोहदा जितना सवाब मिलेगा।"
जवाब:
ये एकदम झूठ है। क्यूंकि एक हदीस मे आता है-
खालिद बिन वलीद रज़ि अन्हु ने एक सहाबी को बुरा भला कहा तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
[सहीह मुस्लिम 6488]
तो इस हदीस से पता चला की ओहद पहाड़ के बराबर भी सोना खर्च करने वाला एक सहाबी के बराबर भी नहीं हो सकता। अब बात गौर करने की ये है की खालिद बिन वलीद रज़ि अन्हु भी तो सहाबी थे, फिर उनसे नबी अलैहिस्सलाम ने क्यों कहा की तुम मेरे सहाबा को बुरा मत कहो। क्या खालिद बिन वलीद सहाबी नहीं थें?
असल मे, बात ये थी जिस सहाबी को खालिद बिन वलीद ने बुरा भला कहा था वो शुरू के दौर के सहाबी थे और खालिद बिन वलीद आखिर मे ईमान लाये थे।
नबी अलैहिस्सलाम ने बस शुरू के साहबाओ की फज़ीलत आखिर मे ईमान लाने वाले सहाबा से अलग की थी की तुम उनके बराबर नहीं हो सकते।
अब यहाँ से पता चला एक सहाबी ओहद पहाड़ जितना सोना खर्च करें वो शुरू मे ईमान लाये साहबी को मिलने वाला सवाब नहीं पा सकता तो एक आम आदमी एक दिरहम खर्च करें मिलाद मे वो भी शुरू के सहाबी तो दूर की बात बद्र के शहीदों को मिलने वाले सवाब का हक़दार हो जायेगा अजीब मंतिक है।
चौथा झूठ: हज़रत अली रज़ि अन्हु की तरफ
हज़रत अली ने फ़रमाया: "मिलाद मनाने वाला दुनिया से ईमान की नेमत लेकर जायेगा और बिना हिसाब जन्नत मे जाएगा।"
जवाब:
ये भी झूठ पर मबनी है।
1. इसमें ये कहाँ लिखा हैं की नबी अलैहिस्सलाम की मिलाद मनाएगा?
2. इसको करने वाला बिना हिसाब किताब के जन्नत मे जायेगा।
तो फिर ऐसी अज़ीम फज़ीलत साहबाओ और तबैइन को नहीं पता थी फिर उन्होंने जंगे क्यों की, बस मिलाद हीं मनाते रहते बिना हिसाब जन्नत चले जाते।
अजीब बात है, इतनी बढ़ी फज़ीलत हदीस मे नहीं आयी बाद मे सामने आ रही है।
3. पैसा खर्च करना अगर जन्नत ले जायेगी तो आइये एक हदीस देखिये-
नबी अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया:
"ऐ फातिमा बिन्ते मुहम्मद, मेरे माल मे से जो कुछ लेना है ले ले। अगर कयामत के दिन अल्लाह ने पकड़ लिया तो मै छुड़ा नहीं सकूंगा।"
[सहीह बुखारी 2753]
यहाँ तो हदीस मे पता चल रहा है कि निस्बत कुछ काम न आएगी चाहे वो फिर नबी की बेटी हीं क्यों न हो तो भला कैसे मिलाद पर खर्च करने वाला बिना हिसाब जन्नत जायेगा?
अगर वो क़र्ज़दार हुआ तो,
नबी अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया:
"शहीद बिना हिसाब किताब के जन्नत मे जायेंगे लेकीन जो शहीद क़र्ज़दार होगा अल्लाह की कसम वो जन्नत मे नहीं जाएगा।"
[तिर्मिज़ी]
शहीद की कितनी बढ़ी फज़ीलत है। अगर वो भी कर्ज़ादार होगा तो जन्नत नहीं जायेगा, तो कैसे मिलाद पर खर्च करने वाला बिना हिसाब के जन्नत मे जायेगा?
ताहिर उल क़ादरी का हदीसों का ग़लत मफ़हूम पेश करना
ताहिर उल क़ादरी शैख़ उल इस्लाम अपनी अवाम को इस तरह बेवक़ूफ़ बनाता है और अंदाज़ ऐ तक़रीर ऐसी है मानो जैसे कितना बढ़ा सच्चा इंसान हो। इसकी एक किताब भी है जिसका नाम "मिलाद उन नबी" है, उसके सफा न. 36 पर लिखता है कि मिलाद की रात शब ऐ क़द्र से भी अफ़ज़ल है। (अस्तग़्फ़िरुल्लाह)
ये अपनी एक वीडियो मे कहता है की नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपना मिलाद मनाया और हदीस पेश करते हैं। आइये देखते हैं-
عَنْ أَنَسٍ أَنَّ النَّبِيَّ صَلَّی اللّٰہُ عَلَیْہِ وَسَلَّمَ عَقَّ عَنْ نَّفْسِہٖ بَعْدَ مَا بُعِثَ نَبِیًّا
"नबी अलैहिस्सलाम ने नुबूवत मिलने के बाद अपना अक़ीका किया बकरे ज़िबा किये।"
[अल मोजामुल औसत लित तबरानी 1/298 सनद हसन]
इस हदीस को बयान करने के बाद ताहिर उल क़ादरी साहब कहते हैं की ये देखो नबी अलैहिस्सलाम ने अपना मिलाद मनाया क्यूंकि ये अक़ीका था यानि विलादत की ख़ुशी मे हीं तो अक़ीका किया जाता है। आगे कहते हैं की ये मिलाद था क्यूंकि अक़ीका ज़िन्दगी मे एक बार होता है और नबी अलैहिस्सलाम का अक़ीका तो अब्दुल मुत्तालिब ने 7वें दिन हीं मना लिया था।
इस पर वो एक हदीस भी पेश करते हैं-
अब्दुल्लाह बिन अब्बास कहते हैं,
أنَّ عبدَ المُطَّلِبِ ختَنَ النبيَّ ﷺ يومَ سابِعِه، وجعَلَ له مَأدُبةً، وسمّاه مُحمَّدًا ﷺ
"अब्दुल मुत्तालिब ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की खतना की और नबी अलैहिस्सलाम का 7वें दिन नाम रखा।"
[ज़ाद उल माद 1/81]
शुएब अरनोत ने इस हदीस को لا يصح यानी ये सहीह नहीं है, कहा है। [तखरीज ज़ाद उल माद 1/81 (1638)]
जवाब न. 1:
1. पहली बात तो ये हदीस सहीह भी मान ली जाए तो अब्दुल मुत्तालिब ने सिर्फ नाम और खतना की थी अक़ीके का ज़िक्र हदीस मे नहीं है।
2. दूसरी बात बरेलवी मानते हैं की नबी अलैहिस्सलाम खतना शुदा पैदा हुए थे तो फिर अब्दुल मुत्तालिब ने खतना क्यों कराई?
ज़ाहिर हुआ ये हदीस मतन के एतबार से भी दुरुस्त नही।
जवाब न. 2:
नबी अलैहिस्सलाम ने जो नुबुवत मिलने के बाद अपना अक़ीका किया वो नबी अलैहिस्सलाम के लिए ख़ास था।
कैसे हो सकता है कि बड़ी उमर मे अक़ीका उम्मत के लिए जाएज़ हो और पाँचवी सदी हिजरी के आगाज़ तक कोई एक भी अहले इल्म ऐसा न मिला जो बड़ी उम्र मे अक़ीका के क़ाईल हो। ऊपर हदीस मे ये बात कहीं मौजूद नहीं है की नबी अलैहिस्सलाम का अक़ीका हुआ हीं नहीं था या किसी वजह से रह गया था। अगर कोई ये कह दे की ज़माना ऐ जाहिलियत मे अक़ीके का रिवाज न था या इस दौर के अक़ीके को नबी अलैहिस्सलाम ने मौतबर न समझा तो सहाबा इकराम जिसमे से अक्सर उस ज़माने मे पैदा हुए थे उन्होंने अपना अक़ीका मुसलमान होने और फुरसत मिलने के बाद क्यों न किया?
सही बात ये है की ये अमल नबी अलैहिस्सलाम के लिए खास था।
और खुलासा ये है की अक़ीका बचपन मे हीं होता है। सातवे दिन ये नबी अलैहिस्सलाम ने जो अक़ीका किया ये पैदाईश की ख़ुशी मे नहीं बल्कि नुबूवत मिलने के बाद किया क्यूंकि अक़ीके की शरीयत तो नबी बनने के बाद हीं पता चली क्यूंकि जाहिलियत के दौर मे अक़ीका क्या हैं किसको पता।
यहाँ पर ताहिर उल क़ादरी कहते हैं की अगर कोई ये कहता है की ज़माना ऐ जाहिलियत मे नबी का अक़ीका हुआ था इसलिए नबी ने नुबुवत मिलने के बाद दोबारा किया। तो अगर यही बात है तो ज़माना ऐ जाहिलियत का अक़ीका मोतबर नहीं, तो खदीजा रज़ि अन्हा से जो निकाह किया वो निकाह भी ज़माना ऐ जाहिलियत मे हुआ था तो वो मोतबर कैसे? तो इससे पता चला की ये नुबुवत मिलने के बाद अक़ीका मिलाद थी।
जवाब न. 3:
1. पहली बात तो वो हदीस मे ज़िक्र हीं नहीं है की नबी अलैहिस्सलाम ने ज़माना ऐ जाहिलियत मे अक़ीका किया वो शुएब अरनोत ने ज़इफ क़रार दी है। उसमे ज़िक्र खतना और नाम रखने का ज़िक्र है।
2. रही बात निकाह दोबारा न करने की तो ये बताओ क्या नबी अलैहिस्सलाम ने जिस तरह अक़ीका करने की तर्गीब दिलायी है, निकाह को उतनी तर्गीब दी है?
3. अगर निकाह को तर्गीब दी होती तो सहाबा इकराम के निकाह भी हुए थे जाहिलियत के दौर मे, वो भी दोबारा होने चाहिए थे। इससे पता चला निकाह चाहे ज़माना ऐ जाहिलियत मे हीं क्यों न हुआ हो उसको नबी सल्लल्लाहु अलैहीं वसल्लम ने कभी तोड़ा नहीं, वरना तो दिखाओ सहाबा ने दोबारा निकाह किये?
4. एक भी सहाबा से नहीं मिलता की किसी सहाबी ने बड़े होने की उम्र मे अक़ीका किया हो। वो अपनी औलादो का बचपन मे करते थे लेकीन अपना नहीं किया बढ़ी उम्र मे। इससे पता चला की जो अक़ीका नबी अलैहिस्सलाम ने किया था वो पैदाइश की ख़ुशी मे नहीं बल्कि नुबुवत मिलने की वजह से किया।
खुलासा: मान लो ताहिर उल क़ादरी का ये इस्तदलाल ठीक हैं तो कुछ सुवाल हैं-
1. लोगो को चाहिए की वो 40 साल की उम्र तक मिलाद न मनाये, 40 साल बाद बक़रे ज़िबा करें और मिलाद मनाये।
2. कोई भी मिलादी को मैंने आज तक रबी उल अव्वल को बकरे ज़िबा करते नहीं देखा। ताज्जुब है, जो ईद उल अज़हा पर क़ुरबानी नहीं करते वो रबी उल अव्वल पर बकरे ज़िबा करेंगे?
3. अगर कोई ये कहता है की नबी का एक बार का किया हुआ हमारे लिये हुज्जत है इसलिए हम मिलाद हर साल मनाते है तो, उनसे सवाल है इस हुज्जीयत का सहाबा को पता क्यों न चला?
4. ये अक़ीका 40 साल की उम्र मे हुआ था और मिलाद का माना होता है। क्या 40 साल की उम्र मे पैदाईश मनाई थी नबी अलैहिस्सलाम ने?
5. ये अगर अक़ीका नहीं था तो क्या नबी अलैहिस्सलाम ने इसको हर साल मनाया था?
6. अगर ये मिलाद थी तो क्या 12 रबी उल अव्वल को अक़ीका किया था नबी अलैहिस्सलाम ने?
कुल मिलाकर ये है इससे कहीं भी मिलाद सावित नहीं हो रही है। किसी इमाम ने इस हदीस का ये मतलब नहीं निकाला जो ताहिर उल क़ादरी ने निकाला।
मिलाद उन नबी - क़ुरआन से दलील
मुफ़्ती अहमद यार ख़ान नईमी साहब अपनी किताब जा अल हक़ में नबी ﷺ की मिलाद साबित करने के लिए क़ुरआन से दलील देते हैं।
1. पहली आयत मुलाहिजा फरमाएं,
لَقَدۡ مَنَّ اللّٰهُ عَلَى الۡمُؤۡمِنِيۡنَ اِذۡ بَعَثَ فِيۡهِمۡ رَسُوۡلًا
"अल्लाह ने मुसलमानों पर बड़ा अहसान किया कि इनमें रसूल भेजा।"
[सूरह इमरान 164]
तो इस आयत से मुफ़्ती साहब मिलाद की दलील पकड़ रहें हैं किसी इमाम ने ये दलील आज तक नहीं पकड़ी।
जवाब: لَقَدۡ مَنَّ اللّٰهُ عَلَى الۡمُؤۡمِنِيۡنَ
1. इस आयत में नबी के बशर और इंसान होने ही को एक अहसान के तौर पर बयान फ़रमा रहें हैं और फ़िल वाकई ये अहसान अज़ीम है कि इस तरह एक तो अपनी क़ौम की ज़ुबान में ही अल्लाह का पैग़ाम पहुंचाएगा जिसे समझना हर शख़्स के लिए आसान होगा।
2. लोग हम जिंस होने की वजह से इस से मानूस और हम क़रीब होंगे।
3. इंसान के लिए इंसान की पैरवी तो मुमकिन है लेकिन फ़रिश्तों की पैरवी इसके बस की बात नहीं और न ही फ़रिश्ता इंसान की वजदान व शऊर की गहराइयों और बारीकियों का इदराक ही कर सकता है।
इसलिए कि अगर पैग़म्बर फ़रिश्तों में से होते तो वो इन सारी ख़ूबीयों से महरूम होते जो तबलीग़ व दावत के लिए निहायत ही जरूरी है। इसलिए जितने भी अम्बिया आए सब के सब बशर ही थे।
(तफसीर ए जलालैन सूरह इमरान आयत 164 की तफसीर) इस तफसीर से पता चल रहा है कि ये अहसान किस लिए था क्योंकि अल्लाह ने नबी ﷺ को उन्हीं में से मबऊस किया।
जो उनकी ज़ुबान में बात करें। अगर नबी कोई फ़रिशता होते तो वो इंसान की फीलिंग्स को कैसे समझते? ये तो एक इंसान ही समझ सकता है।
तो ये बहुत बड़ा अहसान था, लोगों के लिए आसानी थी। इसी को अल्लाह ने जताया कि मैंने अहसान किया मोमिनों पर।
अब बताएं मुफ़्ति अहमद यार ख़ान नईमी साहब ने इस से मिलाद उन नबी मनाना कहां से साबित किया?
सोने पर सुहागा ये है कि इमाम सियूती को बरैलवी हज़रात बहुत पेश करते हैं कि उन्होंने मिलाद पर किताब लिखी है। लेकिन तफसीर ए जलालैन जो ऊपर पेश की गई है वो इमाम सियूती ही की तफ़सीर है। पता चला इमाम सियूती भी यहां इस आयत को मिलाद के लिए इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं।
यानी ये मुफ़्ति अहमद यार ख़ान नईमी साहब की ख़ुद साख़्ता क़यासी ख़्याल था।
2. अब आते हैं अहमद यार ख़ान नईमी की दूसरी आयत की तरफ़:
هُوَ الَّذِىۡۤ اَرۡسَلَ رَسُوۡلَهٗ بِالۡهُدٰى وَدِيۡنِ الۡحَـقِّ
"अल्लाह रब्बुल आलमीन ने नबी ﷺ को हिदायत और दीन हक़ के साथ भेजा।"
[सूरह तौबा 33]
इस आयत को लिखने के बाद मुफ़्ति साहब कहते हैं अल्लाह ने क़ुरआन में कई जगहों पर नबी ﷺ की विलादत का ज़िक्र किया और कई जगह क़ुरआन में अल्लाह ने अंबियाओं की विलादत का ज़िक्र किया है।
जवाब: अर्ज़ है कि अगर इस भेजने से आप मिलाद मुराद ले रहे हैं तो इस आयत का क्या होगा
मुलाहिज़ा फ़़रमाएं,
وَمَاۤ اَرۡسَلۡنَا مِنۡ قَبۡلِكَ مِنۡ رَّسُوۡلٍ اِلَّا نُوۡحِىۡۤ اِلَيۡهِ اَنَّهٗ لَاۤ اِلٰهَ اِلَّاۤ اَنَا فَاعۡبُدُوۡنِ
"हमने कोई ऐसा रसूल न भेजा जिसे हमने ये वही न की हो कि अल्लाह के अलावा कोई माबूद नहीं।"
[सूरह अबिंया 25]
अब अल्लाह ने तो तमाम नबियों को भेजा है ताकि वो अपनी क़ौम को अल्लाह के अहद होने की तबलीग़ करें।
तो फ़िर अल्लाह ने सारे अंबिया किराम की विलादत का ज़िक्र कर दिया तो मुफ़्ती अहमद यार ख़ान नईमी साहब एक लाख 24 हज़ार अंबिया का मिलाद कब मनाएंगे?
दरअसल ये नबी ﷺ को भेजना विलादत के वक़्त का नहीं है। बल्कि अल्लाह ने नुबूवत मिलने के बाद नबी अलैहि सलाम को अपनी क़ौम की तरफ़ भेजा। क़ौम की तरफ़ भेजना तो नबी ﷺ की 41 साल में जारी हुआ बाक़ी 41 साल मिलाद नहीं मनाई क्या?
आयत मुलाहिजा फरमाएं,
تِلۡكَ مِنۡ اَنۡۢبَآءِ الۡغَيۡبِ نُوۡحِيۡهَاۤ اِلَيۡكَۚ مَا كُنۡتَ تَعۡلَمُهَاۤ اَنۡتَ وَلَا قَوۡمُكَ مِنۡ قَبۡلِ هٰذَا
"ये ग़ैब की खबरें हैं जो हम तुम्हारी तरफ़ भेजते हैं इस से पहले न तुम ही इन्हें जानते थे न तुम्हारी क़ौम।"
[सूरह हूद 49]
इस आयत में अल्लाह फरमाता है कि ये ग़ैब की खबरें हम आपको वही के ज़रिए बताते हैं। इस (वही) से पहले आप नहीं जानते थे न ही आपकी क़ौम।
तो मुफ़्ति साहब ने ऊपर आयत में मिलाद साबित किया। सूरह हूद आयत 49 से पता चल रहा है कि नबी अलैहि सलाम वही से पहले ग़ैब की खबरें नहीं जानते थे। मालूम हुआ कि अल्लाह का भेजना नुबूवत के बाद था।
वरना तो मुफ़्ति अहमद यार ख़ान नईमी साहब की पेश करदा आयत "अल्लाह त'आला ने नबी ﷺ को हिदायत और दीन हक़ के साथ भेजा" [सूरह तौबा 33] देखिए।
अब बताएं ज़रा दीन हक़ तभी ही तो आएगा जब आयत नाज़िल होगी, हुक़्म नाज़िल होगा क्योंकि उस से पहले तो नबी ﷺ खुद बिना वही के ज़रिए कुछ न जानते थे। पता चला ये भेजना नुबूवत के बाद का था अपनी क़ौम को तो, जो नुबूवत मिलने के बाद भेजा जा रहा है दीन हक़ के साथ इस से साबित हुआ ये मिलाद का ज़िक्र नहीं था नुबूवत का ज़िक्र था।
आगे मुफ़्ति अहमद यार ख़ान नईमी लिखते हैं कि अब कोई इमाम इस आयत को पढ़ेगा। यानी "अल्लाह त'आला ने नबी ﷺ को भेजा दीन ए हक़ के साथ और हिदायत के साथ" तो वो इमाम मिलाद का ज़िक्र कर रहा होगा और पीछे मुक़तदी सुन रहे होंगे। इस से साबित हुआ मिलाद की महफ़िल में मिलाद का ज़िक्र।
जवाब: फ़िर तो अगर कोई इमाम ये आयत पढ़ेगा, यानी "हमने कोई ऐसा रसूल न भेजा जिसे हमने ये वही न की हो कि अल्लाह के अलावा कोई माबूद नहीं" [सूरह अबिंया 25] तो इमाम हर अंबिया का मिलाद का ज़िक्र मना रहा होगा और पीछे मुक़तदी सुन रहे होंगे ये तमाम अंबिया किराम के मिलाद के ज़िक्र की दलील होगी।
तो बरैलवी हज़रात क्यों सिर्फ़ नबी ﷺ का मिलाद मनाएंगे?
दूसरी बात इमाम अपने मन मर्ज़ी से उस आयत को पढ़ेगा तो मान लो उनसे मुहर्रम के महीने में वो आयत पढ़ दी तो, क्या मुहर्रम में मिलाद की ख़ुशी मना रहा होगा वो इमाम?
इमाम उस आयत को एक मुतय्यन दिन पर नहीं पढ़ेगा जब मन चाहे जब पढ़ेगा।
तुम ने एक दिन मिलाद का 12 रबी उल अव्वल क्यों मुतय्यन किया?
ज़रुरी नहीं है कि हर मस्जिद का इमाम वही आयत पढ़ें और उसी दिन पढ़ें।
पता चला हर इमाम मिलाद नहीं मनाएगा जो आयत पढ़ेगा वो मनाएगा तो बरैलवी का हर फ़र्द क्यों मनाता है मिलाद?
कुल मिलाकर पता चला सिर्फ़ बातिल क़यास किया है मुफ़्ति अहमद यार ख़ान नईमी साहब ने।
अल्लाह हमें बिदअत और शिर्क से बचाएं।
मुहम्मद
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