यौम ए आजादी मनाना कैसा,
आज़ादी या बंदगी (तागूत की)?
आजादी के मद्दे मुक़ाबिल यूं तो गुलामी कर लग जाता है और "गुलामी" का मफहूम आमतौर पर यही समझा जाता है कि कोई इंसान या गिरोह क़ौम या नस्ल किसी दूसरे इंसान, गिरोह, क़ौम, या नस्ल के हाथों गुलाम बना दी जाए।
इसी गुलामी को इस्लाम ने महदूद किया है और इसके लिए जबरदस्त किस्म के टर्म और कंडीशन किये। आज इस तर्ज़ की जिस्मानी गुलामी जाहिरी तौर पर खत्म हो जाने के बावजूद हक़ीकी एतबार से फिक्री, मुआशी, सियासी गुलामी में बदल चुकी है। यानी हकीकतन गुलामी का खात्मा नहीं हुआ बल्कि शक्ल बदली है लेकिन आज हमारी आज़ादी और गुलामी गुफ्तगू का टॉपिक नहीं,
आज हम जो बात करना चाहते हैं वह आजादी और बंदगी यानी ऐसी आजादी जिसका मक़ाबिल ग़ुलामी नहीं बल्कि बंदगी या ज़्यादा वाज़ेह अंदाज़ में बंदगी ए रब अल्लाह की इबादत और बंदगी का इकरार और ऐतिराफ जो इस्लाम का सबसे पहला सबक़ है। अल्लाह उस के लिए अपने तमाम अक़ली अज़कार अपने क़लबी जज़्बात, अपनी बसारत, अपने समाअत, अपना किरदार हत्ता की पूरी की पूरी ज़िन्दगी अपनी मौत भी अपना सब कुछ उस मालिक ए क़ायनात के सामने तस्लीम कर देना झुका देना उसकी मर्ज़ी के ताबे कर देना उसकी वही (REVEALATION) उसके पैगम्बर उसकी किताब के बताये हुए रास्ते पर चला देना।
अल्लाह ताला फरमाता है, "कह दीजिए मेरी नमाज मेरी कुर्बानी मेरी जिंदगी मेरी मौत एक अल्लाह रब्बुल आलमीन के लिए है।" [सूरह अनाम 162]
और फिर सिर्फ इतना ही नहीं के मालिक ए कायनात की बंदगी इख़्तियार करनी है उससे भी एक कदम आगे या यूं कह लें एक कदम पहले बंदगी रब के अलावा हर किस्म की बंदगी से इनकार करना है, हर किस्म की बंदगी कराने वाले झूठे माबूद की इबादत का कुफ्र करना है।
इबादत का ताल्लुक क़ल्ब ए इंसानी से हो यानी मोहब्बत, खौफ,उम्मीद,दर्जा भरोसा तवक्कल हो दुआ व निदा, रुकू, सजदा, तवाफ, ऐतिकाफ, क़ुरबानी ज़बीहा, या क़वानीन और ज़ाबतो से हो मुआशरती, मुआशी या सियासी क़ायदे ज़ाबते हो, जिसके माना जाएगा उसकी बंदगी होगी। और इस्लाम हमें तमाम इबादात चाहे वो क़लबी हो या जिस्मानी से ताल्लुक़ रखती हो या इतात से सिर्फ एक अल्लाह के लिए खास करने और बाकी तमाम झूठे माअबूद (तागूत ) से बंदगी का इनकार करने की तालीम देता है।
बल्कि अल्लाह ताला ने तमाम नबियों को भेजने का मकसद ही यें बयान किया है, "और हमने हर उम्मत में एक रसूल भेजा (ताकि दावत दें ) की एक अल्लाह इबादत करो और तागूत से बचो।" [सुरह नहल 36]
अल्लाह फ़रमाता है, "जिस शख्स ने तागूत का कुफ्र किया और अल्लाह पर ईमान लाया उसने मजबूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटने वाला नहीं।" [सुरह बक़रा 256]
बल्कि मुसलमान होने के लिए हम जिस कलिमा का इकरार करते हैं तमाम अम्बिया की तालीम देतें रहें उसका माना ही यही है "ला इलाहा इल्लल्लाह" कोई इबादत के लायक नहीं सिवाय अल्लाह के।
यूं तो मुसलमान होने के लिए जो सबसे पहले और एहम तरीन बात जरूरी है वह बंदगी और इबादत मुकम्मल तौर पर अल्लाह ताला के लिए खास कर देना, अपनी नफ़सियाती ख्वाहिशात अपने जैसे इंसानों यह अपने से गए गुजरे जमादात आग, सूरज, चाँद, सितारो या हैवानात गाये, बंदर या नबतात वगेरा जिन्नात और फ़रिश्ते और नबियों की इबादत व बंदगी से इंकार बंदगी के मुक़ाबले में आज की जदीद जाहिलियत "आज़ादी" का नारा बुलंद करती है जैसा कि शुरू में जिक्र हुआ आज़ादी से उनकी मुराद ग़ुलामी से आज़ादी नहीं बल्कि वो बंदगी से आज़ादी चाहते हैं।
मोहब्बत की नफीस और आला जज़्बात अल्लाह के लिए खास करने की बजाय औरत, दौलत, शोहरत पर बल्कि क़ौम, रंग व नस्ल पर निछावर करते है। सजदा, रुकू, ज़बीहा, दुआ व निदा, हर सच्चे झूठ माबूद के लिए रवा रखते है।
कानून बनाने का हक अल्लाह की बजाए ख्वाहिशात व तोहमात के बन्दों की अक्सरियत का हक़ मानते हैं यू अल्लाह की बंदगी से फरार और इंसान की उलिहियात (रब बनाना) का इकरार आज़ादी कहलाता है।
अल्लाह की वही और किताब अल्लाह की हुकुमरानी और पैगंबरो की इतात और फरमाबर्दारी से एराज़ (Ignore) और ख्वाहिशात व तोहमात और शहवात व शुबहात की और नफ़्स व ग़ुमान की पैरवी को आज़ादी कहते हैं। इसलिए आज की जदीद जहिलियत का कलिमा "ला इलाहा इल्लल्ल इनसाना" (Man Is the master of the universe) है।
इंसान की उलूहियत ए इंसानी या हाकमियत, जमहूर को ख्वाहिशात नफ़सियानी और शहवात ए इंसानी की ग़ुलामी व बंदगी क़रार देता है।
अल्लाह फ़रमाता है, "आपने उसे भी देखा जो अपनी ख्वाहिश ए नफ़्स को अपना माबूद बनाये हुए हैं क्या आप उसके ज़िम्मेदार हो सकते हैं?" [सुरह फुरक़ान 43]
यूँ इंसान आफ़ाक़ में फैले बुतो की परसतिश से हजार कोशिश के बाद किसी हद तक छुटकारा पा भी सके तो "नफ़्स" में छिपे बुतो की परसतिश पर माइल हो जाता है।
बात को तवील ना करते हुए चलते हैं यौमे आजादी की तरफ,
यें वो दिन है जिस दिन देश आज़ाद हुआ इस आज़ादी की ख़ुशी में लोग बड़े धूम धाम से जशन मनाते नज़र आते हैं, असल में यें आज़ादी हमारे लिए आज़ादी नहीं है हमारी आज़ादी यें होगी की अल्लाह का क़ानून पूरे हिंदुस्तान में लागू हो जाए उस दिन हम अपने आपको क़ुरान हदीस पर ढाल लेंगे तभी आज़ाद शुमार करेंगे क्यूंकि पूरी क़ायनात का क़ानून बनाने वाला अल्लाह है, बादशाह, मालिक, रब अल्लाह ख़ालिस है।
आज़ादी का असल तसव्वर यें है कि इंसान पर सिर्फ अपने रब का हुक्म चले और वो इंसानों की ग़ुलामी (इतात व बंदगी) से निकल कर सिर्फ अल्लाह का बंदा बन जाए।
अल्लाह तआला फ़रमाता है, "हुक्म तो सिर्फ अल्लाह का ही है।" [सूरह अनाम 57]
सिर्फ अल्लाह ही को यें हक़ है जिसे चाहे जैसा हुक्म दें।
अल्लाह फ़रमाता है, "अल्लाह जैसा चाहता है हुक्म देता है।" [सूरह मायदा 01]
उसके हुक्म की इतात फ़र्ज़ है उसके लिए इंसान की तखलीक का मक़सद ही अल्लाह की बंदगी (ग़ुलामी) करना है।
अल्लाह फ़रमाता है, "और मेने जिन और इंसानों को सिर्फ अपनी इबादत के किये पैदा किया है।" [सूरह ज़ारीयात 56]
इंसान सिर्फ अल्लाह का बंदा है और अल्लाह ताला ने उसे अपनी बंदगी के लिए पैदा किया है वह किसी मखलूक का बंदा नहीं, किसी जिन व इंसान और शजर व हजर को इंसानों पर हाकमियत मुतलक़ा हासिल नही, हत्ता के अम्बिया किराम को भी यें हक़ नहीं के वो अल्लाह तआला के बन्दों से अपनी बंदगी करवाए।
अल्लाह फ़रमाता है, "किसी इंसान का यह काम नहीं कि अल्लाह उसको किताब और हिकमत और नुबुव्वत दे, फिर वह लोगों से यह कहे कि तुम अल्लाह को छोड़ कर मेरे बंदे बन जाओ बल्कि वह तो कहेगा कि तुम अल्लाह वाले बनो, इस वास्ते कि तुम दूसरों को किताब की तालीम देते हो और ख़ुद भी उसको पढ़ते हो।" [सूरह इमरान 79]
इस ताल्लुक़ से एक बात बयान करता चालू भारतीय क़ानून एक अम्बेडकरी निज़ाम पर थमा है। इस अम्बेडकरी निज़ाम में कुफ्र और शिर्क की दावत दी जा रही है, हत्ता की हमारी गैरत मर चुकी है हम अपने घर के इस्लामी फैसले भी दीगर तागूत के पास कराने जाते है। इससे बढ़कर और क्या गुमराही हो सकती है की अपने आपसी मामलात को सुलझाने की खातिर तागूती निज़ाम के पास जाए और रब की कलम को पीछे रखे जबकि अल्लाह क्या कहता है,
"ऐ नबी! तुमने देखा नहीं उन लोगों को जो दावा तो करते हैं कि हम ईमान लाए हैं उस किताब पर जो तुम्हारी तरफ़ उतारी गई है और उन किताबों पर जो तुमसे पहले उतारी गई थीं। मगर चाहते ये हैं कि अपने मामलों का फ़ैसला कराने के लिये ताग़ूत की तरफ़ जाएँ, हालाँकि उन्हें ताग़ूत से इनकार करने का हुक्म दिया गया था– शैतान उन्हें भटकाकर सीधे रास्ते से बहुत दूर ले जाना चाहता है।" [कुरान 4:60]
हमने हर उम्मत (समुदाय) में एक रसूल भेज दिया और उसके ज़रिए से सबको ख़बरदार कर दिया कि “अल्लाह की बन्दगी करो और ताग़ूत (बढ़े हुए सरकश) की बन्दगी से बचो। इसके बाद इनमें से किसी को अल्लाह ने सीधा रास्ता दिखाया और किसी पर गुमराही छा गई। फिर ज़रा ज़मीन में चल-फिरकर देख लो कि झुठलानेवालों का क्या अंजाम हो चुका है।" [कुरान 16:36]
असल में भोले भाले मीठे मुस्लिम भाई जानते है अगर क़ुरान हदीस से फैसला कराएँगे तो इसका फैसला हाँ या ना में होता है, बोले तो आर या पार जबकि अम्बेडकरी निज़ाम में रिश्वत देकर भी फैसले का रुख अपनी तरफ मोड़ लेते है तो इंसान को आसानी ही चाहिए उसे क्या पता तागूत क्या है?
किसी क़ौमी झंडे की तारीफ करना जो झंडे के नाम पर तास्सुब रखते है जो झंडे को ना माने वो देशद्रोही है इनके बकोल इस असबियत को नबी अलैहिस्सलाम ने माना किया है।
हदीस में आता है-
हज़रत जुन्दुब-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया: "जो शख़्स (अन्धाधुंध तास्सुब में आकर) किसी मुबहम और अन्धे झंडे के तहत लड़ा वो सिर्फ़ अपने गरोह की हिमायत में लड़ता और उसी की हिमायत में ग़ज़बनाक होता है (वो मारा जाए) तो उसकी मौत जाहिलियत की (हराम) मौत होगी। [सुनन नसई 4120]
क्या यें आज सच नहीं है अम्बेडकरी तागूती लोगो ने किस तरह का तास्सुब अंधाधुन मुस्लिमो से रखा हुआ है क्या इसके बा वजूद भी असबियत के झंडे की तारीफ आज़ादी के दिन बुलंद करेंगे?
क्या ऊपर दी गयीं हदीस की खिलाफ अमल नहीं कर रहें। आज मुस्लिम चंद रूपये के लिए, व्यूज के लिए, फेमस होने के लिए क़ौमी झंडे का साथ दें रहें है अल्लाह ऐसे लोगो को राह ए हक़ पर लाये।
खुलासा यें है यौमे ए आजादी मनाना गोया तागूती निज़ाम को अपने अमल, क़ौल, फेल से बढ़ावा देना है।
अल्लाह हमें तागूत से बचाय।
मुहम्मद रज़ा
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