माह ए मुहर्रम या अशुरा के दिन क्या करें?
ये मुहर्रम का महीना है और इस महीने की अल्लाह तआला के यहाँ खास फ़ज़ीलत है। इसकी फ़ज़ीलत के पेशेनज़र ही रसूलुल्लाह (ﷺ) इसको शाहरूल्लाह (شَهْرِ اللَّهِ) "अल्लाह का महीना" का नाम दिया है,
أَفْضَلُ الصِّيَامِ بَعْدَ شَهْرِ رَمَضَانَ صِيَامُ شَهْرِ اللَّهِ الْمُحَرَّمِ
"रमज़ान के महीने के बाद सबसे बेहतर रोज़े अल्लाह के महीने मुहर्रम के रोज़े है।"
[सहीह मुस्लिम 2756]
इस महीने को अल्लाह की तरफ मंसूब किया जाना, अल्लाह के साथ इसकी निस्बत किया जाना इस बात की दलील है की अल्लाह के यहाँ इस महीने की खास फ़ज़ीलत और इसका मुक़ाम है। इसलिए इस महीने की फ़ज़ीलत ये है की ये हुरमत के महीनो में से है जिसका अल्लाह तआला ने एहतराम करने का हुकुम दिया है और अल्लाह की नाफरमानी किसी भी वक़्त की जाये वो गुनाह है लेकिन हुरमत के इन महीनो के अंदर और फ़ज़ीलत के इन अवक़ात में गुनाहों की सज़ा और बढ़ जाती है। यानी ये चार हुरमत वाले महीनों में गुनाह नहीं करना चाहिए, वैसे तो हर महीने में गुनाह करना मना है, लेकिन ये महीने हुरमत वाले चार हैं जिसमें मुहर्रम भी है, इसमे गुनाह से बचना चाहिए, क्योंकि जिस तरह नेकी बढ़ती है, उसी तरह गुनाह ज्यादा हो जाता है।
1. खुद को गुनाहों से दूर रखें:
इस महीने में खुद को गुनाहों से बचाने की कोशिश की जाये। अपना वक़्त अल्लाह की इबादत और उसकी इताअत में लगाया जाये, नेकी के काम करें और बुरे कामो से किनारा कर लें, झूठ, मक्कारी, फरेब जैसे गुनाहों से बचा जाये। हमें दुनिया में अल्लाह की इबादत के लिय भेजा गया है तो ज़्यादह से ज़्यादह अमल स्वालेह करें, क़ुरान की तिलावत की जाये, तफसीर पढ़ी जाय न की उस वक़्त में गपशप करें और ग़ीबत चुगलखोरी जैसे गुनाहों का अज़ाब खुद के हिस्से कर लिया जाये। ये काम सिर्फ इस महीने ही नहीं बल्कि साल के बारह महीने किया चाहिए क्यों कि गुनाह से हर वक्त बचते रहना है ये खुद के हाथ में हैं ख़ास कर तन्हाई के गुनाह से ख़ुद को बचाएं अपने नफ्स ख्वाहिसाता से पर काबू रखें क्योंकि अल्लाह ने कोई दिन या महीना बुराई के लिए मुक़र्रर नहीं किया है ये बात अलग है की हुरमत वाले महीनो में गुनाहों की सजा बढ़ा दी गई है। इसलिए गुनाहों से बचे और अपने अपनों को भी बचाये।
2. अशुरा और दूसरे दिनों का रोज़ा रखें:
रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया रमज़ान के महीने के बाद सबसे बेहतर रोज़े अल्लाह के महीने के हैं यानी मुहर्रम के महीने के जिसमे इस महीने के रोज़ों की कसरत के बारे में कहा गया है। इस महीने में कसरत से रोज़े रखना सुन्नत ए रसूल है। अगर रसूलुल्लाह (ﷺ) ने इस बात का हुकुम दिया है तो इसका मतलब ये है कि हम इस पर अमल करें इसलिए इस महीने के ज़्यादह से ज्यादा रोज़े रखने की कोशिश की जानी चाहिए। बेशक इस शदीद गर्मी में रोज़ा रखना आसान नहीं है पर याद रखें जन्नत का रास्ता इतना आसान नहीं है जितना हमने गुमान कर रखा है।
इस महीने में खास कर अशुरा का रोज़ा (10 मुहर्रम) जिसके बारे में रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया, "मैं अल्लाह से उम्मीद रखता हूँ कि आशुरा के दिन का रोज़ा पिछले साल के गुनाहों का कफ़्फ़ारा बन जाएगा।" [सहीह मुस्लिम 2746]
इस हदीस से पता चलता है कि इस महीने के रोज़े की क्या फ़ज़ीलत है और खास तौर पर आशुरा का रोज़ा। 10 मुहर्रम का रोज़ा (आशुरा का रोज़ा) रमज़ान के रोज़े के फ़र्ज़ होने से पहले फ़र्ज़ था। ये रोज़ा रखने का हुक्म दिया जाता था और खुद रसूलुल्लाह (ﷺ) कसरत से रखते थे।
आशूरा का रोज़ा इस लिहाज़ से भी बड़ी अहमियत व फ़ज़ीलत का हामिल है कि हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि.) बयान फ़र्माते हैं, "मैंने नबी करीम (ﷺ) को सिवा आशूरा के दिन के और इस रमज़ान के महीने के और किसी दिन को दूसरे दिनों से बेहतर जान कर ख़ास तौर से इरादा करके रोज़ा रखते नहीं देखा।" [सहीह बुखारी 2006]
अशुरा के रोज़े की बड़ी फ़ज़ीलत है और इस रोज़े की वजह ये है कि नबी करीम (ﷺ) मदीना में तशरीफ़ लाए। (दूसरे साल) आप (ﷺ) ने यहूदियों को देखा कि वो आशुरा के दिन रोज़ा रखते हैं। आप (ﷺ) ने उन से उसका सबब मालूम फ़रमाया तो उन्होंने बताया कि ये एक अच्छा दिन है। उसी दिन अल्लाह तआला ने बनी-इसराईल को उनके दुश्मन (फ़िरऔन) से नजात दिलाई थी। इसलिये मूसा (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) ने उस दिन का रोज़ा रखा था। आप ने फ़रमाया, फिर मूसा (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) के (ख़ुशी में शरीक होने में) हम तुम से ज़्यादा मुसतहिक़ हैं। चुनांचे आप (ﷺ) ने उस दिन रोज़ा रखा और सहाबा (रज़ि०) को भी उसका हुक्म दिया। [सहीह बुखारी 2004]
सिर्फ दस तारीख़ का रोज़ा रखना यहूदियों की मुशाबिहत अख़्तियार करना है इसलिए रसूलुल्लाह (ﷺ) ने नौ तारीख़ के रोज़े रखने की बात कही। हमें चाहिए की हम नौ-दस या दस-ग्यारह के रोज़े रखें।
हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि जिस वक़्त रसूलुल्लाह ﷺ ने आशूरा के दिन रोज़ा रखा और उसके रोज़े का हुक्म फ़रमाया तो उन्होंने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! उस दिन की तो यहूदी और नसारा इज़्ज़त करते हैं, तो रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया कि जब आगे साल आएगा तो हम नौवीं तारीख़ का भी रोज़ा रखेंगे"। [सहीह मुस्लिम 2666]
इब्न हजर रहीमुल्लाह ने कहा, “आशुरा के रोज़े के तीन दर्जे हैं: सबसे कम एक दिन का रोज़ा है, अगला इसके साथ नौवें दिन का रोज़ा है, और अगला नौवें, दसवें और ग्यारहवें दिन का रोज़ा है। अल्लाह ही बेहतर जानता है। [फ़तह अल-बारी 1896]
इस दिन का रोजा अल्लाह तआला की तरफ से हमारे लिए नेमत है और किसी भी नेमत पर उसका शुक्र अदा करना चाहिए, उसकी इबादत करनी चाहिए न कि गुनाह जैसा कि आज हमारी क़ौम कर रही है।
इससे ये पता चलता है की
नोट: ऊपर जिक्र की गई अहादिस से पता चला कि आशूरा के रोजे नबी करीम ﷺ की सुन्नत और हुक्म की फरमाबरदारी है न की हुसैन रजी0 की शहादत इसकी वजह है, जैसा की मुसलमानो में ये गलत फहमी पाई जाती है।
3. मातम, ताज़िया और भीड़ से दूर रहें:
हमारे यहाँ इस महीने में ऐसे ऐसे काम होते हैं जिसका दींन से कोई ताल्लुक़ नहीं बल्कि दीन सरासर इसके खिलाफ है ये वो चीज़ें है जिसके करने वालों पर लानतें डाली गई हैं जिन कामों को रसूलुल्लाह (ﷺ) ने कुफ़्र का काम कहा, जहन्नमी अमल कहा वो कसरत से हो रहा है जैसे मातम, ताजिया उठाना, चीखना चिल्लाना, रोना पीटना, खुद को तकलीफ पहुँचाना, औरतों का ऐसी जगहों पर जाना, भीड़ में बेपर्दगी, बेहयाई, बेशर्मी के काम करना। इस्लाम का इन कामों से कोई ताल्लुक़ नहीं है न इसकी इजाज़त देता है इसलिए इन खुराफातों, जहन्नमी अलमों से खुद को बचाए और दूसरों को भी इस हकीकत से वाबस्ता कराएं।
अल्लाह ने कोई भी महीना ग़म का नहीं बनाया, हर महीने में ग़म और खुशी दोनों आते हैं इसलिए इस महीने में कोई ख़ुशी का काम न करना (जैसे निकाह न करना, कोई ख़ुशी न मानना) अल्लाह के खिलाफ जाना है बल्कि काफिरों की मुशाबिहात अख्तियार करना है। ऐसा कोई काम नहीं जो इस महीने में न किया जा सके , बशर्ते वो जायज़ काम हो और जाएज़ अंदाज़ में किया जाय।
4. दुआ करें:
माहे मुहर्रम में अल्लाह ताला ने मूसा (عَلَيْهِ ٱلسَّلَامُ) की दुआ क़ुबूल फरमाई और बनी इसराइल को फिरौन से निजात दिलाई थी। तो तमाम उम्मत इ मुसलमा, अपने वालिदैन और खुद के लिए ज़्यादह से ज़्यादह दुआ करें, अल्लाह हमें हक़ पर चलने और हक़्क़ क़ुबूल करने की तौफीक दे और हमें भी फिरौन जैसी ज़ालिम हुकूमत से निजात दिलाये।
5. सदक़ा दें:
मुहर्रम के महीने के दौरान हमारे अच्छे आमाल ज़्यादह अहमियत और अज्र रखते हैं। इस महीने में नेक अमल का इंतखाब करे, सदक़ा करना भी नेक अमल है जो किसी गरीब को एक वक़्त का खाना खिला सकता है इसलिए सदक़ा खैरात करें। जहां कहीं किसी को किसी चीज की जरूरत हो उसकी जरूरत पूरी करें, जहां पानी न हो वहां पानी का इंतजाम करें, कुछ नहीं कर सकते, तो किसी को तकलीफ देने वाली चीज हटा दें और ये भी ना हो सके तो अपने भाई को देख कर मुस्कुरा दें ये भी सदका है।
अल्लाह तआला का फ़र्मान है, "ऐ ईमान वालो! अल्लाह से डरो और हर एक को ये देखना चाहिए कि उसने कल के लिए के क्या सामान किया है और अल्लाह से डरते रहो और जो कुछ तुम करते हो यक़ीनन अल्लाह उसे पूरी तरह बाख़बर है।" [सूरह अल हश्र : 18]
Posted By Islamic Theology
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