Bazaron aur mailon mein aurton ka hujoom

Bazaron aur melon mein aurton ka hujoom


बाज़ारों और मेलों में औरतों का हुजूम


अगर आप आज के मुस्लिम मुआशरे का जायजा ले तो इस गाफिल कौम की बदहाली नज़र आयेगी एक तरफ़ मस्जिदें वीरान हो रही हैं तो दूसरी तरफ़ बाजारों और मजा़रों पर जन सैलाब उमड़ा रहता है उस में भी खास तौर पर औरतें भरी पड़ी हैं जिसकी वजह है दीन से गफलत मर्द हजरात तो कहीं न कहीं से दीनी बयानात सुन लेते हैं मगर औरतें सिर्फ़ टीवी सीरियल में ही उलझ कर रह गई हैं। टीवी सीरियल भी ऐसे जो इमान को खोखला करते हैं एक तरफ़ सास बहू के झगड़े, प्यार मुहब्बत इश्क और बेहयाई वाले ड्रामें तो दूसरी तरफ़ रामायण महाभारत और श्री कृष्ण लीला वगैरह वगैरह, तो फिर इमान का क्या होगा अल्लाह ही बेहतर जानें।

अल्लाह की पसंदीदा जगह मस्जिद है पर मस्जिद के दरवाजे औरतों के लिए बंद कर दिए गए और फ़तवा ये लगा के औरत का मस्जिद जाना फितने का बाइस है। अल्लाह को बाज़ार बिल्कुल पसंद नहीं पर मर्द हज़रात औरतों को बाज़ार की सैर कराते हैं। जो काम पहले मर्द किया करते थें वो अब औरतें करती है और इससे उन्हें कोई तकलीफ नहीं ना इसमे कोई फितना नज़र आता है क्यूंकि बाजार जाके औरतों की ज़रूरत का सामान लेने में उनका वक्त बर्बाद होता है। इज्ज़त और पर्दे की परवाह करने वाले मर्दों की ग़ैरत अब मर चुकी है अब मुहब्बत है तो सिर्फ माल से, घर की औरतें और बेटीयां कहां जा रही हैं कहां से आ रही हैं कोई रोक टोक नहीं। 

लेकिन याद रखें मुस्तफा ﷺ ने इरशाद फ़रमाया: "खबरदार हो जाओ! तुममें से हर एक शख़्स हाकिम (निगहबान) है, और हर एक से उसकी रिआया (जो लोग उसके मातहत है) के बारे में पूछा जायेगा। मर्द अपने घर वालों का निगहबान है, और उससे उसकी रिआया के बारे में सवाल होगा और औरत अपने शौहर के घर वालो और उसके बच्चों की निगहबान है, और उससे उनके बारे में सवाल होगा।" [सहीह बुख़ारी 7138; सहीह मुस्लिम 1829] 

ज्यों ही रमजान मुबारक शुरू होता है बाजार औरतों से भर जाता है। ईद आते आते इतनी भीड़ होती है की मर्द-औरत एक दुसरे से टकरा रहे हैं, दुकानों पर भीड़ लगी है मेहरम गैर मेहरम का कोई ख्याल नहीं। ईद के बाद मेलों में इनका हुजूम उमड़ पड़ता है। 

फिर यही हाल ईद के बाद अब मुहर्रम में भी दिखें, एक से दस तारीख़ तक गली, मुहल्लों और छतों पर औरतें नजर आएँगी। आशुरा के जुलुस में औरतें और नौजवान लडकियां फुल मेकअप में पर्दे का कोई ख्याल नहीं कुछ ने नकाब या हिजाब पहना भी है तो इस तरह की पूरा जिस्म नुमाया हो रहा होता है ।

अल्लाह तआला का इर्शाद है, "ऐ नबी! अपनी बीवीयों और बेटीयों और मोमिनो की औरतों से कह दो के वह अपने तमाम बदन पर अपनी चादर लटका ले ,यह बेहतर होगा के उन्हें (आज़ाद इज़्ज़तदार ख़्वातींन के तोर पर) जाना जाये ताकि उनकी बहुत जल्द शिनाख्त हो जाया करेगी फ़िर ना सताई जायेगी और अल्लाह तआला बख़्शने वाला मेहरबान है।" [अल-अहज़ाब 33:59]

हर मुहल्ले मे अलग अलग हज़रत हसन, हुसैन, अली (رضي الله عنهم) और रसूलुल्लाह (ﷺ) के नाम का ताजिया रखा जाएगा जोकि इस्लाम के खिलाफ है और इसको देखने के लिए औरतों का हुजूम इकट्ठा होगा, बेहयाई, बेशर्मी, बेपर्दगी और जि़नाकारी इस तरह होती हैं जैसे ये कोई गुनाह नहीं। इस हुजूम का जम के फ़ायदा उठाया जाएगा। और ऐसा हो भी क्यूँ ना, हमारे घर के मर्द खुद माँ, बीवी, बहनों और बेटियों को नुमाइश के तौर पर पेश करते हैं।

आज के मर्द अपनी सफाई में यह कहते हैं कि हम औरतों को घूमाने के लिए ले जाते हैं। 

क्या घूमने की जगह यही है? 

मर्द अपने घर का हाकिम होता है अगर हकीम के अंदर पर्दे का एहतराम करने की सलाहियत है तो वह अपनी औरतों को कभी घर से बाहर इस तरह मेलों और बाज़ारों में नहीं ले जाएगा।

दूसरी तरफ यह भी देखा जाता है कि औरतें ज़िद करती हैं पर क्या इस्लाम इस बात की इजाज़त देता है कि आप औरत की गलत ज़िद पूरी करें। ये सरासर गलत है इस्लाम किसी भी तरह से गलत काम की इजाज़त नहीं देता। अगर आपके वालिदैन काफिर हैं तो आप पर फर्ज़ है कि आप उनकी फरमाबरदारी करें लेकिन अगर वह इस्लाम के खिलाफ़ किसी भी मामले में जाते हैं तो क़ुरआन इस बात का हुक्म देता है कि आप उनकी मुखा़लिफत करें। तो जब मां-बाप की मुखा़लिफत क़ुरआन से साबित है तो फिर औरत की मुखा़लिफत कैसे नहीं की जा सकती।

कोई काम जो इस्लाम से साबित ना हो गलत है फिर वह कैसा भी कम हो। मुहर्रम की दसई के दिन हुजूम इकट्ठा होता है वहां पर औरतें और लड़कियां इकट्ठा होती हैं, लड़के अपने गंदी नज़रों से ही लड़कियों को ताड़ रहे होते हैं। 

रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया, "आँखे ज़िना करती हैं और उनका ज़िना देखना है...." फ़िर फ़रमाया: "और शर्मगाह उसकी तस्दीक़ करती है या इंकार करती है।" [सहीह बुख़ारी: 6612; सहीह मुस्लिम: 2657] 

औरतें अपना चेहरा खोल कर खड़ी होती हैं, कुछ निक़ाब में होती है तो कुछ बेनक़ाब। कुछ का मानना यह है कि हम तो निकाब और हिजाब में जाते हैं, पर्दे का एहतराम करते हैं। लेकिन मेरा सवाल यह है कि आपका वहां पर मौजूद होना क्या यह सही है? ताजिया उठाना, ये गलत नही है? क्या यह अमल कुरान और हदीस से साबित है? 

बिल्कुल नहीं, यह सारे अमल किसी भी ऐतबार से साबित नहीं हैं। इस्लाम इस तरह की बेहयाई की इजाज़त नहीं देता ना ऐसी खुराफातों की इजाज़त देता है। तो फिर आप ऐसी जगह पर क्यों जाते हैं जहां पर खुराफातें होती हैं जहां पर शैतान शामिल होता है।

एक तौहिद परस्त औरत कभी भी ऐसी जगह पर जाना पसंद नहीं करेंगी जहां पर किसी तरह की खुराफात हो, जहां पर भीड़ इकट्ठा हो। वह तन्हाई पसंद करती है, वह अपने शौहर की इताअत पसंद करती है, अपने भाई, अपने बेटे के हुक्म को सर आंखों पर रखती है। उसके लिए उसका घर महल की तरह होता है, वह अपने आप को अपने घर के अंदर महफूज समझती है, बेवजह घर से बाहर निकलना उसकी फ़ितरत में शामिल नहीं होता। 

पर अफसोस के आज की ज़्यादातर औरतों के अंदर यह देखा जाता है कि वह घर में रहना पसंद नहीं करती। उन्हें घर के बाहर घूमना बहुत पसंद है, बाजार जाना, वहां पर दुकानदारों से हंसी मजाक करना, बाजारों में जाकर चेहरे खोल देना उनकी फ़ितरत में शामिल हो गया है और इसके पीछे जिम्मेदार हमारे घर के मर्द हैं जो हमें बाजार की सैर कराते हैं, जो हमें घर से बाहर निकालने की इजाज़त देते हैं, जो हमारी जरूरत का सामान लाकर नहीं देते बल्कि हमें हुक्म देते हैं कि जाके अपना सामान खुद ले आओ।

आज के मर्दों की गैरत इस क़दर मरती जा रही है कि वह अपनी औरतों को नुमाइश का ज़रिया बनाकर बैठ गए हैं। घर में दोस्तों को बुलाना, औरतों को उनके सामने लेकर आना यह कहां तक सही है? क्या यह दुरुस्त है कि आपके घर की जीनत को कोई देखे? इस्लाम में देवर को मौत कहा गया है, जब आपके सगे भाई को आपकी बीवी के लिए मौत करार दे दिया गया है तो गैर मर्द क्या है? आपकी औरतों का बाज़ार जाना, गैर मर्दों का उनको देखना फिर उसके बाद मेलों में जाना, नवई-दसई जैसी खुराफात में शामिल होना यह कहां तक सही है? 

ये जो गैरी इस्लामी, गुनाहों वाले अमल आपकी औरतें कर रही हैं ये आप खुद करवा रहे हैं। आपको भी इसका हिसाब देना पड़ेगा। आप खुद अपने लिए जहन्नम की आग तैयार कर रहे हैं। जहन्नुम में सबसे ज्यादा तादाद औरतों की होगी शौहर की नाफ़रमानी की वजह से और कहीं ना कहीं इसके जिम्मेदार आप खुद भी हैं। जो आपने अपनी औरतों को इतनी आज़ादी दे रखी है। औरत को जितनी आज़ादी मिलनी चाहिए थी इस्लाम उसे दे चुका है अब मज़ीद जो अमल किया जा रहा है वह आवारगी और बेहयाई है।

अभी भी वक्त है कि आप अपने आमाल को सुधारें। कल का कुछ पता नहीं मौत कब आ जाए। आज ही तौबा कर लें और अपने घर की औरतों के साथ सख्ती करें। जिन कामों की इजाज़त नहीं दी जाती उन कामों से रोकें और यह आपके ऊपर है अगर आप चाहे तो अपने घर की जी़नत को अपने घर के अंदर रखे और चाहे तो उसकी नुमाइश करें। 

अगर कोई मर्द यह कहता है कि हमारी औरतें हमारे बस में नहीं है तो यह गलत है, ये आपके ऊपर है कि आप उसे कितनी छूट देंगे। औरत पतंग की तरह है जिसकी डोर आपके हाथ मे है। अगर आप उसे हद से ज़्यादा छूट देंगे तो आगे बढ़ती चली जाएगी और आपके काबू से बाहर हो जाएगी लेकिन अगर आप शुरू में ही उस पर पाबंदियां लगा देंगे, पाबंदियां भी वहाँ होनी चाहिए जहां पर गलत हो ये नहीं कि आप उस पर वहां सख्ती करें जहां पर मनाई है। औरत टेढ़ी पसली से बनाई गई है जितना ज़्यादा सीधा करने की कोशिश करेंगे उतनी ही वह ना-फरमानियां करेगी। उसे बड़े प्यार से समझाए, दीन के बारे में बताएं। पहले तो आप खुद अमल करें, आपको देखकर ही आपकी बीवी, बेटियां, बहनें दीन की तरफ तवज्जो देंगी। आप खुद को दीनदार बनाएं, घर खुद ब खुद दीनदार हो जाएगा फिर आपके घर की औरतें कभी भी गलत काम के लिए जि़द नहीं करेंगे बल्कि वह खुद ऐसी जगहों पर जाने से इनकार करेंगे। 

तो क्यों ना आज से ही दीन को समझने की कोशिश की जाए। दीन बहुत आसान है इसे हमने मुश्किल बना रखा है। कु़रआन को समझ कर पढ़ें और जानें आख़िर क़ुरआन किस बात का हुक्म देता है और किस बात से रोकता है और अपने घर वालों को भी पढ़ाएं बल्कि मेरी राय से अपने घर वालों के सामने ही बुलंद आवाज में पढ़े कि उनके कानों तक आवाज़ जाए, वह सुने और समझने की कोशिश करें। लोगों तक सही बात पहुंचाना हमारे हाथ में है पर हिदायत देना अल्लाह के हाथ में है। कोशिश करने वालों को अल्लाह हिदायत देता है। 

रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया, "शानवाला अल्लाह फ़रमाता है: मेरे बारे में मेरा बन्दा जो गुमान करता है मैं (उसको पूरा करने के लिये) उसके पास होता हूँ। जब वो मुझे याद करता है तो मैं उसके साथ होता हूँ। अगर वो मुझे अपने दिल में याद करता है तो मैं उसे दिल में याद करता हूँ और अगर वो मुझे (भरी) मजलिस में याद करता है तो मैं उनकी मजलिस से अच्छी मजलिस में उसे याद करता हूँ, अगर वो एक बालिश्त मेरे क़रीब आता है तो मैं एक हाथ उसके क़रीब जाता हूँ और अगर वो एक हाथ मेरे क़रीब आता है तो मैं दोनों हाथों की पूरी लम्बाई के बराबर उसके क़रीब आता हूँ, अगर वो मेरे पास चलता हुआ आता है तो मैं दौड़ता हुआ उसके पास जाता हूँ।" [सहीह मुस्लिम 2675] 

बुराई को बुरा जानें और उसे खत्म करने की कोशिश करें और अल्लाह ने जिन चीज़ों को हमारे लिय हराम करार दिया है उस से बचने की कोशिश करें!

अल्लाह तआला फरमाता है, "ऐ नबी (ﷺ)! इनसे कहो कि मेरे रब ने जो चीज़ें हराम की हैं (उनमें से एक है) बेशर्मी के सारे काम चाहे खुले हुए हों या छिपे हुए।" [कुरान 7:33]


Posted By Islamic Theology

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