इंसान मौत के बाद की जिंदगी का इनकार क्यों करता है? (पार्ट - 1)
हमेशा से आखिरत का इनकार करने वाले लोग जिन वजहों से मौत के बाद की ज़िन्दगी का इनकार करते थे, उनमें तीन चीज़ें सबसे ज़्यादा नुमायाँ थीं-
i. वे ख़ुदा के हिसाब लेने और पूछ-गच्छ को नहीं मानना चाहते थे, क्योंकि उसे मान लेने के बाद दुनिया में मनमानी करने की आज़ादी उनसे छिन जाती थी।
ii. वे क़ियामत के आने और दुनिया के निज़ाम के छिन्न-भिन्न हो जाने और फिर से एक नई कायनात बनने को तसव्वुर से परे समझते थे।
iii. जिन लोगों को मरे हुए सैकड़ों-हज़ारों साल बीत चुके हों और जिनकी हड्डियाँ तक चूर-चूर होकर ज़मीन, हवा और पानी में रल-मिल चुकी हों, उनका दोबारा जिस्मो-जान के साथ जी उठाना उनके नज़दीक बिलकुल नामुमकिन था।
अल्लाह ने कुरआन में आख़िरत (मौत के बाद की जिंदगी) का इनकार करने वालों के इन्ही सवालों का जवाब कुछ इस तरह दिया है कि:
"क्या इन्होंने कभी उस आसमान और ज़मीन को नहीं देखा जो इन्हें आगे और पीछे से घेरे हुए है? हम चाहें तो इन्हें ज़मीन में धँसा दें, या आसमान के कुछ टुकड़े इनपर गिरा दें। हक़ीक़त में इसमें एक निशानी है हर उस बन्दे के लिये जो ख़ुदा की तरफ़ रुजू करनेवाला (पलटनेवाला) हो।"
[कुरआन 34:9]
ऊपर का जवाब उन तीनों पहलुओं पर हावी है जो आख़िरत का इनकार करने वाले कर रहे है और इसके अलावा इसमें एक सख़्त तंबीह भी शामिल है। इन छोटे-छोटे जुमलों में जो बात बयान की गई है उसकी तफ़सील ये है-
i. इस ज़मीन और आसमान को अगर कभी तुमने आँखें खोलकर देखा होता तो तुम्हें नज़र आता कि ये कोई खिलौना नहीं है और न ये निज़ाम इत्तिफ़ाक़ से बन गया है। इस कायनात की हर चीज़ की क़ुदरत रखनेवाली एक हस्ती ने कमाल दर्जे की हिकमत के साथ बनाया है। ऐसे एक हिकमत भरे निज़ाम में ये तसव्वुर करना कि यहाँ किसी को अक़ल और तमीज़ और इख़्तियारात देने के बाद उसे ग़ैर-ज़िम्मेदार और ग़ैर-जवाबदेह छोड़ा जा सकता है, सरासर एक बेमानी बात है।
ii. इस निज़ाम को जो कोई भी देखनेवाली आँख के साथ देखेगा, उसे मालूम हो जाएगा कि क़ियामत का आ जाना कुछ भी मुश्किल नहीं है। ज़मीन और आसमान जिन बंदीशों पर क़ायम हैं, उनमें एक ज़रा-सा उलट-फेर भी हो जाए तो आनन-फ़ानन क़ियामत आ सकती है और यही निज़ाम इस बात पर भी गवाह है कि जिसने आज ये दुनिया बना रखी है, वो एक दूसरी दुनिया फिर बना सकता है। उसके लिये ऐसा करना मुश्किल होता तो यही दुनिया कैसे बन खड़ी होती।
iii. तुमने आख़िर ज़मीन और आसमान के पैदा करनेवाले को क्या समझ रखा है कि मरे हुए इन्सानों के दुबारा पैदा किये जाने को उसकी क़ुदरत से बाहर समझ रहे हो। जो लोग मरते हैं उनके जिस्म चूर-चूर होकर चाहे कितने ही बिखर जाएँ, रहते तो इसी ज़मीन और आसमान की हदों में हैं। इससे कहीं बाहर तो नहीं चले जाते। फिर जिस ख़ुदा के ये ज़मीन-आसमान हैं, उसके लिये क्या मुश्किल है कि मिटटी और पानी और हवा में जो चीज़ जहाँ भी है, उसे वहाँ से निकाल लाए। तुम्हारे जिस्म में अब जो कुछ मौजूद है, वो भी तो उसी का इकठ्ठा किया हुआ है और इसी मिटटी, हवा और पानी में से निकालकर लाया गया है। इन चीज़ों का हासिल होना अगर आज मुमकिन है तो कल क्यों ग़ैर-मुमकिन हो जाएगा।
इन तीन दलीलों के साथ इस बात में ये तंबीह भी छिपी है कि तुम हर तरफ़ से ख़ुदा की ख़ुदाई में घिरे हुए हो। जहाँ भी जाओगे, यही कायनात तुमको घेरे हुए होगी। ख़ुदा के मुक़ाबले में कोई छिपने की जगह तुम नहीं पा सकते और ख़ुदा की क़ुदरत का हाल ये है कि जब वो चाहे तुम्हारे पैरों के नीचे या सर के ऊपर से जो बला चाहे तुमपर डाल सकता है है। जिस ज़मीन को माँ की गोद की तरह तुम अपने लिये सुकून की जगह पाते हो और इत्मीनान से उस पर घर बनाए बैठे हो, तुम्हें कुछ पता नहीं कि इसकी सतह के नीचे क्या ताक़तें काम कर रही हैं और कब वे कोई ज़लज़ला लाकर इसी ज़मीन को तुम्हारे लिये क़ब्र बना देती हैं। जिस आसमान के नीचे तुम इस इत्मीनान के साथ चल फिर रहे हो मानो कि ये तुम्हारे घर की छत है, तुम्हें क्या मालूम कि इसी आसमान से कब कोई बिजली गिर पड़ती है, या तबाह कर डालनेवाली बारिश हो जाती है, या और कोई अचानक आफ़त आ जाती है।
इस हालत में तुम्हारी ख़ुदा से ये निडरता और अंजाम की फ़िक्र से ये लापरवाही और एक भला चाहनेवाले की नसीहत के मुक़ाबले में ये बकवास सिवाय इसके और क्या मतलब रखता है कि तुम अपनी शामत ही को दावत दे रहे हो। और जो शख़्स किसी तरह का तास्सुब न रखता हो, जिसमें कोई हठधर्मी या ज़िद न पाई जाती हो, बल्कि जो ख़ुलूस के साथ अपने ख़ुदा से हिदायत का तलबगार हो, वो तो आसमान और ज़मीन के इस निज़ाम को देखकर बड़े सबक़ ले सकता है। लेकिन जिसका दिल ख़ुदा से फिरा हुआ हो, वो कायनात में सब कुछ देखेगा मगर हक़ीक़त की तरफ़ इशारा करनेवाली कोई निशानी उसे सुझाई न देगी।
आख़िरत का इनकार करने वाले अपने रब से मुलाकात को झुठलाते है।
अल्लाह कुरआन में फरमाता है:
और ये लोग कहते हैं, “जब हम मिटटी में रल-मिल चुके होंगे तो क्या हम फिर नए सिरे से पैदा किये जाएँगे?” असल बात ये है कि ये अपने रब की मुलाक़ात का इनकार करते हैं।
[कुरआन 32:10]
आख़िरत का इनकार करने वालों के एतिराज़ में जो दो बातें शामिल हैं, वो दोनों ही सरासर अक़ल के ख़िलाफ़ हैं। उनका ये कहना कि हम मिटटी में रल-मिल चुके होंगे आख़िर क्या मतलब रखता है? हम जिस चीज़ का नाम है, वो कब मिटटी में रलती-मिलती है? मिटटी में तो सिर्फ़ वो जिस्म मिलता है जिससे हम निकल चुका होता है। इस जिस्म का नाम हम नहीं है। ज़िन्दगी की हालत में जब इस जिस्म के हिस्से (अंग) काटे जाते हैं तो अंग पर अंग कटता चला जाता है मगर हम पूरा का पूरा अपनी जगह मौजूद रहता है। उसका कोई हिस्सा भी किसी कटे हुए हिस्से के साथ नहीं जाता और जब ये हम किसी जिस्म में से निकल जाता है, तो पूरा जिस्म मौजूद होते हुए भी ये नहीं कहा जा सकता कि उसमें इस हम का कोई मामूली सा हिस्सा तक बाक़ी है। इसीलिये तो एक जाँनिसार आशिक़ अपने माशूक़ के मुर्दा जिस्म को ले जाकर दफ़न कर देता है, क्योंकि माशूक़ उस जिस्म से निकल चुका होता है और वो माशूक़ नहीं, बल्कि उस ख़ाली जिस्म को दफ़न करता है जिसमें कभी उसका माशूक़ रहता था। इसलिये एतिराज़ करनेवालों के एतिराज़ का पहला मुक़द्दमा ही बेबुनियाद है।
रहा उसका दूसरा हिस्सा: क्या हम फिर नए सिरे से पैदा किये जाएँगे?
तो ये इनकार और ताज्जुब के अन्दाज़ का सवाल सिरे से पैदा ही न होता अगर एतिराज़ करनेवालों ने बात करने से पहले इस हम और उसके पैदा किये जाने के मतलब पर एक पल के लिये कुछ ग़ौर कर लिया होता। इस हम की मौजूदा पैदाइश इसके सिवा क्या है कि कहीं से कोयला और कहीं से लोहा और कहीं से चूना और इसी तरह की दूसरी चीज़ें जमा हुईं और उस मिटटी के पुतले में ये हम विराजमान हो गया। फिर उसकी मौत के बाद क्या होता है? उस मिटटी के पुतले में से जब हम निकल जाता है तो उसका मकान बनाने के लिये जो चीज़ें ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों से जुटाई गई थीं, वो सब उसी ज़मीन में वापस चली जाती हैं।
सवाल ये है कि जिसने पहले हम को ये मकान बनाकर दिया था, क्या वो दुबारा इसी सरो-सामान से वही मकान बनाकर उसे नए सिरे से उसमें नहीं बसा सकता?
ये चीज़ जब पहले मुमकिन थी और हक़ीक़त के तौर पर सामने आ चुकी है, तो दोबारा उसके मुमकिन होने और हक़ीक़त बनने में आख़िर क्या बात रुकावट है? ये बातें ऐसी हैं जिन्हें ज़रा-सी अक़ल आदमी इस्तेमाल करे तो ख़ुद ही समझ सकता है। लेकिन वो अपनी अक़ल को इस रुख़ पर क्यों नहीं जाने देता? क्या वजह है कि वो बेसोचे-समझे मरने के बाद की ज़िन्दगी और आख़िरत पर इस तरह के बेमतलब एतिराज़ करता है?
बीच की सारी बहस छोड़कर अल्लाह आयत के दूसरे जुमले में इसी सवाल का जवाब देता है कि असल में ये अपने रब की मुलाक़ात का इनकार करते हैं। यानी असल बात ये नहीं है कि दुबारा पैदाइश कोई बड़ी ही अनोखी और नामुमकिन सी बात है जो इनकी समझ में न आ सकती हो, बल्कि असल में जो चीज़ इन्हें ये बात समझने से रोकती है, वो इनकी ये ख़ाहिश है कि हम ज़मीन में छूटे फिरें और दिल खोलकर गुनाह करें और फिर आज़ादी के साथ सही-सलामत (Scot-Free) यहाँ से निकल जाएँ। फिर हमसे कोई पूछ-गच्छ न हो। फिर अपने करतूतों का कोई हिसाब हमें न देना पड़े।
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