क़ुरआन की सबसे लंबी आयत
क़ुरआन की सबसे लंबी आयत जो नमाज़ के बारे में नहीं है, रोज़े के बारे में नहीं है, सदक़ा और ज़कात के बारे में नहीं है, हज्ज के बारे में नहीं है यहां तक कि शिर्क के बारे में भी नहीं है। वह सूरह अल-बक़रह की आयत 282 है, जो क़र्ज़ देने और लेने और व्यापारिक लेनदेन पर गवाही से संबंधित है। इस दौर में यह इंसान की ज़िंदगी का सबसे कमज़ोर पहलू है और इस पर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता है। पहले आयत को देखें, फिर प्रत्येक पहलू पर विचार करें:अगली आयत 283 भी इसी से संबंधित है कि अगर सफ़र पर हों तो क्या करें:
व्यापार के इस्लामी उसूल
इन दो आयात से निम्नलिखित उसूल मालूम होते हैं:
(1) जब कोई व्यापारिक लेन देन (business deal) किया जाय या किसी को क़र्ज़ दिया जाय तो वह बंद कमरे में न हो बल्कि लोगों के सामने हो।
(2) कातिब यानी एक लिखने वाला होना चाहिए।
(3) दो गवाह भी होने चाहिए वह दो मर्द होंगे या फिर एक मर्द और दो औरतें हों।
(4) इमला (dictate) क़र्ज़ लेने वाला कराये। और वह लिखवाने में ईमानदारी दिखाये और अपनी तरफ़ से कोई भी कमी ज्यादती न कराये।
(5) अगर क़र्ज़ लेने वाला नासमझ, कमज़ोर या माज़ूर (disable) हो तो उसका वली यानी कोई ज़िम्मेदार व्यक्ति इमला कराये।
(6) जिसे लिखना आता हो उसे दस्तावेज़ (Bond) लिखने से इंकार नहीं करना चाहिए।
(7) गवाह उन्हें बनाया जाय जिन पर लोग भरोसा करते हों।
(8) जब गवाही के लिए बुलाया जाय तो गवाह इंकार न करे।
(9) मामला छोटा हो या बड़ा उसका एक समय निर्धारित (Fixed time) होना चाहिए।
(10) दस्तावेज लिखने में कोई गफ़लत न दिखाई जाया क्योंकि इस से मामलात में सहूलत होगी।
(11) अगर नगद (cash) लेन देन हो तो लिखना ज़रूरी नहीं।
(12) व्यापारिक मामले (business deal) करते वक़्त गवाह ज़रूर बनाये जायें।
(13) अगर सफ़र पर हो और कोई लिखने वाला न मिले तो कोई चीज़ गिरवी रख कर क़र्ज़ लिया जाया।
(14) जिस पर भरोसा किया गया है यानी क़र्ज़ लेने वाला उसे चाहिए कि वह अमानत को अदा करे।
(15) गवाही को छुपाया न जाय क्योंकि जो गवाही को छुपाता है तो उसका दिल गुनहगार हो जाता है।
आजकल क्या होता है?
(1) जब लेन देन लोगों की मौजूदगी में होगा तो अदायगी बंद कमरे में भी हो सकती है लेकिन आजकल लेनदेन बंद कमरे में होता है और फ़ैसला चौराहे पर।
(2) लेन देन के वक़्त लिखने और गवाही करने वाले मौजूद नहीं होते मगर रिश्वत के सहारे अनगिनत झूठे गवाह मिल जाते है।
(3) सच्चे और सीधे गवाह तैयार नही होते क्योंकि जान का ख़तरा उन्हें पहले ही नज़र आने लगता है।
(4) अगर कोई नकल तैयार की जाय तो क़र्ज लेने वाला तैयार नहीं होता और बड़ी बेइज्जती महसूस करता है। लेकिन वही जब बैंक से लोन (जो कि हराम है) लेता है तो सभी दस्तावेज़ पर signature करने पर रज़ामंदी जताता है। गवाह भी बनाता है और तमाम terms and conditions को तस्लीम करते हुए कोई बेइज्जती महसूस नहीं करता।
(5) आज गवाह वह होते हैं जिन के सामने सिरे से कोई मामला तय वही नहीं होता। ज़ाहिर सी बात है कि जब गवाह बाद में बनाया जायेगा तो वही बनेगा जो बे ऐतेबार हो।
आसिम अकरम (अबु अदीम) फ़लाही
0 टिप्पणियाँ
कृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।