Quran ki sabse lambi aayat ka khulasa aur hamara muashara

Quran ki sabse lambi aayat ka khulasa aur hamara muashara


क़ुरआन की सबसे लंबी आयत

क़ुरआन की सबसे लंबी आयत जो नमाज़ के बारे में नहीं है, रोज़े के बारे में नहीं है, सदक़ा और ज़कात के बारे में नहीं है, हज्ज के बारे में नहीं है यहां तक कि शिर्क के बारे में भी नहीं है। वह सूरह अल-बक़रह की आयत 282 है, जो क़र्ज़ देने और लेने और व्यापारिक लेनदेन पर गवाही से संबंधित है। इस दौर में यह इंसान की ज़िंदगी का सबसे कमज़ोर पहलू है और इस पर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता है। पहले आयत को देखें, फिर प्रत्येक पहलू पर विचार करें:

"हे ईमान वालो! जब तुम एक निश्चित अवधि (fixed period) के लिए आपस में क़र्ज़ का लेन-देन करते हो, तो उस की लिखा पढ़ी कर लिया करो, और दोनों पक्षों के बीच न्याय और निष्पक्षता के साथ एक व्यक्ति दस्तावेज़ लिखे। जिसे अल्लाह ने लिखने और पढ़ने की सलाहियत दी है उसे लिखने से इंकार नहीं करना चाहिए, क़र्ज़ लेने वाला बोल कर इमला (dictate) कराए और अल्लाह से डरे जो कि उसका पालनहार है। और जो मामला तय हु चुका हो उसमें कोई कमी बेशी न करे, अगर क़र्ज़ लेने वाला नादान, कमज़ोर या माज़ूर (disable) हो या बोल कर न लिखवा सकता हो तो फिर उसका संरक्षक इंसाफ़ के साथ बोल कर लिखवाए। फिर जिन्हें तुम मुनासिब समझते हो दो मर्दों को गवाह बनाओ, यदि दो मर्द न हों, तो एक मर्द और दो औरतें हो ताकि यदि एक भूल जाए तो दूसरी उसे याद दिला दे और जब गवाहों को हुक्काम (अधिकारियों) के सामने गावही के लिए बुलाया जाए तो उन्हें हाज़िर होने से इनकार नहीं करना चाहिए, और क़र्ज़ का मामला छोटा हो या बड़ा दस्तावेज़ लिखवाने की कोई सुस्ती न की जाय, अल्लाह के नज़दीक़ में यह लिखा पढ़ी बहुत मुंसिफ़ाना (न्याययोचित) काम है, इस से गवाही को क़ायम करने आसानी होती है और शक व संदेह में पड़ने की संभावना कम रहती है। अलबत्ता जब नगद (cash) सौदा हो तो आपस में जो उलटफेर किया करते हो उसकी दस्तावेज़ न लिखने कोई हर्ज नहीं है। लेकिन व्यपारिक मामले तय करते समय ज़रूर गवाह बना लिया करो, कातिब (मुंशी) और गवाह को किसी भी तरह से तंग या परेशान नहीं किया जाय। यदि ऐसा करोगे तो आप घोर पाप करोगे। अल्लाह के ग़ज़ब से बचोववह तुम्हें सीधी राह दिखाता है, वह सब कुछ जानता है।" 
[सूरह 002 अल-बकराह 282]


अगली आयत 283 भी इसी से संबंधित है कि अगर सफ़र पर हों तो क्या करें:

 "और अगर तुम सफ़र में हो और दस्तावेज़ लिखने वाला कोई न हो तो गिरवी रख कर मामला करो। यदि तुम में से कोई व्यक्ति किसी पर भरोसा करके उसके साथ कोई मामला करे तो जिस पर भरोसा किया गया है उसे चाहिए कि अमानत को अदा कर दे और अल्लाह से ही डरे जो कि उसका पालनहार है। और गवाही को हरगिज़ मत छुपाओ। जो कोई भी गवाही को छुपायेगा तो निश्चित रूप से उसका दिल गुनाह में लतपत है। और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसे भली-भांति जानता है।" 
[सूरह 002 अल-बकरा 283]


व्यापार के इस्लामी उसूल

इन दो आयात से निम्नलिखित उसूल मालूम होते हैं:

(1) जब कोई व्यापारिक लेन देन (business deal) किया जाय या किसी को क़र्ज़ दिया जाय तो वह बंद कमरे में न हो बल्कि लोगों के सामने हो।

(2) कातिब यानी एक लिखने वाला होना चाहिए।

(3) दो गवाह भी होने चाहिए वह दो मर्द होंगे या फिर एक मर्द और दो औरतें हों।

(4) इमला (dictate) क़र्ज़ लेने वाला कराये। और वह लिखवाने में ईमानदारी दिखाये और अपनी तरफ़ से कोई भी कमी ज्यादती न कराये।

(5) अगर क़र्ज़ लेने वाला नासमझ, कमज़ोर या माज़ूर (disable) हो तो उसका वली यानी कोई ज़िम्मेदार व्यक्ति इमला कराये।

(6) जिसे लिखना आता हो उसे दस्तावेज़ (Bond) लिखने से इंकार नहीं करना चाहिए।

(7) गवाह उन्हें बनाया जाय जिन पर लोग भरोसा करते हों।

(8) जब गवाही के लिए बुलाया जाय तो गवाह इंकार न करे।

(9) मामला छोटा हो या बड़ा उसका एक समय निर्धारित (Fixed time) होना चाहिए।

(10) दस्तावेज लिखने में कोई गफ़लत न दिखाई जाया क्योंकि इस से मामलात में सहूलत होगी।

(11) अगर नगद (cash) लेन देन हो तो लिखना ज़रूरी नहीं।

(12) व्यापारिक मामले (business deal) करते वक़्त गवाह ज़रूर बनाये जायें।

(13) अगर सफ़र पर हो और कोई लिखने वाला न मिले तो कोई चीज़ गिरवी रख कर क़र्ज़ लिया जाया।

(14) जिस पर भरोसा किया गया है यानी क़र्ज़ लेने वाला उसे चाहिए कि वह अमानत को अदा करे। 

(15) गवाही को छुपाया न जाय क्योंकि जो गवाही को छुपाता है तो उसका दिल गुनहगार हो जाता है।


आजकल क्या होता है?

(1) जब लेन देन लोगों की मौजूदगी में होगा तो अदायगी बंद कमरे में भी हो सकती है लेकिन आजकल लेनदेन बंद कमरे में होता है और फ़ैसला चौराहे पर।

(2) लेन देन के वक़्त लिखने और गवाही करने वाले मौजूद नहीं होते मगर रिश्वत के सहारे अनगिनत झूठे गवाह मिल जाते है।

(3) सच्चे और सीधे गवाह तैयार नही होते क्योंकि जान का ख़तरा उन्हें पहले ही नज़र आने लगता है।

(4) अगर कोई नकल तैयार की जाय तो क़र्ज लेने वाला तैयार नहीं होता और बड़ी बेइज्जती महसूस करता है। लेकिन वही जब बैंक से लोन (जो कि हराम है) लेता है तो सभी दस्तावेज़ पर signature करने पर रज़ामंदी जताता है। गवाह भी बनाता है और तमाम terms and conditions को तस्लीम करते हुए कोई बेइज्जती महसूस नहीं करता।

(5) आज गवाह वह होते हैं जिन के सामने सिरे से कोई मामला तय वही नहीं होता। ज़ाहिर सी बात है कि जब गवाह बाद में बनाया जायेगा तो वही बनेगा जो बे ऐतेबार हो।


आसिम अकरम (अबु अदीम) फ़लाही

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