Kya hame Allah ke paigambaron ke bich fark karna chahiye?

Kya hame Allah ke paigambaron ke bich fark karna chahiye?


क्या हमे अल्लाह के पैग़म्बरों के बीच फर्क करना चाहिए?

अल्लाह ने इंसानों की रहनुमाई और हिदायत के लिए जितने भी पैग़म्बर भेजें उन सब पर ईमान लाना जरूरी है। हम अल्लाह के पैग़म्बरों में भेदभाव नहीं कर सकते है और न ही हमारा तरीक़ा ये है कि हम किसी पैग़म्बर को मानें और किसी को न मानें, किसी को झूठा कहें और किसी को सच्चा। हमे भेदभाव और जाहिलाना तास्सुब से पाक होकर सभी पैग़म्बरों पर ईमान लाना है। दुनिया में जो भी अल्लाह का बन्दा जहाँ कहीं भी अल्लाह की तरफ़ से हक़ लेकर आया हो, हमे उसके हक़ पर होने की गवाही देनी चाहिए। चाहे उस हक की गवाही हमारे खुद के खिलाफ ही क्यों न हो। हमे यहूदियों की तरह नहीं करना है कि ईसा अलैहिस्सलाम जब हक उनके पास लाए तो उन्होंने उन्हें खुदा का पैग़म्बर मानने से ही इंकार कर दिया क्योंकि हक उनकी करतूतों के खिलाफ गवाही दे रहा था। और ना ही ईसाइयों के रास्ते पर चलना है जिन्होंने अल्लाह के आखिरी पैगम्बर मुहम्मद ﷺ को मानने से इंकार कर दिया क्योंकि मुहम्मद ﷺ जो हक लेकर आए थे वो ईसाइयत के खुद के घड़े हुए अकाइद और नज़रियात के खिलाफ था। जबकि पैगम्बर मुहम्मद ﷺ के आखिरी पैगम्बर होने की भविष्यवाणी पिछली सब आसमानी किताबों में मौजूद है।


एक हकपसंद इंसान अल्लाह के पैगंबरों के बीच कोई फर्क नहीं करता है वो सब पैगंबरों पर ईमान लाता है और यही उसूल हमे कुरान ने बताया है कि हमे अल्लाह के किसी भी पैगंबर में फर्क नहीं करना है।


قُوۡلُوۡۤا اٰمَنَّا بِاللّٰہِ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡنَا وَ مَاۤ اُنۡزِلَ اِلٰۤی اِبۡرٰہٖمَ وَ اِسۡمٰعِیۡلَ وَ اِسۡحٰقَ وَ یَعۡقُوۡبَ وَ الۡاَسۡبَاطِ وَ مَاۤ اُوۡتِیَ مُوۡسٰی وَ عِیۡسٰی وَ مَاۤ اُوۡتِیَ النَّبِیُّوۡنَ مِنۡ رَّبِّہِمۡ ۚ لَا نُفَرِّقُ بَیۡنَ اَحَدٍ مِّنۡہُمۡ ۫ ۖ وَ نَحۡنُ لَہٗ مُسۡلِمُوۡنَ
मुसलमानो! कहो, “हम ईमान लाए अल्लाह पर और उस हिदायत पर जो हमारी तरफ़ उतरी है और जो इबराहीम, इस्माईल, इस्हाक़, याक़ूब और याक़ूब की औलाद की तरफ़ उतरी थी और जो मूसा और ईसा और दूसरे तमाम पैग़म्बरों को उनके रब की तरफ़ से दी गई थी। *हम उनके बीच कोई फ़र्क़ नहीं करते*, और हम अल्लाह के मुस्लिम हैं।”
[कुरआन 2:136]


قُلۡ اٰمَنَّا بِاللّٰہِ وَ مَاۤ اُنۡزِلَ عَلَیۡنَا وَ مَاۤ اُنۡزِلَ عَلٰۤی اِبۡرٰہِیۡمَ وَ اِسۡمٰعِیۡلَ وَ اِسۡحٰقَ وَ یَعۡقُوۡبَ وَ الۡاَسۡبَاطِ وَ مَاۤ اُوۡتِیَ مُوۡسٰی وَ عِیۡسٰی وَ النَّبِیُّوۡنَ مِنۡ رَّبِّہِمۡ ۪ لَا نُفَرِّقُ بَیۡنَ اَحَدٍ مِّنۡہُمۡ ۫ وَ نَحۡنُ لَہٗ مُسۡلِمُوۡنَ
ऐ नबी! कहो कि, “हम अल्लाह को मानते हैं, उस तालीम को मानते हैं जो हमपर उतारी गई है, उन तालीमात को भी मानते हैं जो इबराहीम, इसमाईल, इस्हाक़, याक़ूब और याक़ूब की औलाद पर उतरी थीं और उन हिदायतों पर भी ईमान रखते हैं जो मूसा और ईसा और दूसरे पैग़म्बरों को उनके रब की तरफ़ से दी गईं। हम उनके बीच फ़र्क़ नहीं करते, और हम अल्लाह के फ़रमाँबरदार [ मुस्लिम] हैं।”
[कुरआन 3:84]


पैग़म्बरों के बीच फ़र्क़ न करने का मतलब ये है कि हम उनके बीच इस लिहाज़ से फ़र्क़ नहीं करते कि फ़ुलाँ को मानते हैं या फ़ुलाँ को नहीं मानते। ज़ाहिर है कि ख़ुदा की तरफ़ से जितने पैग़म्बर भी आए हैं, सब-के-सब एक ही सच्चाई और एक ही सच्ची राह की तरफ़ बुलाने आए हैं, इसलिये जो आदमी सही मानी में हक़ को माननेवाला है, उसके लिये तमाम पैग़म्बरों को हक़ पर माने बग़ैर चारा नहीं। जो लोग किसी पैग़म्बर को मानते और किसी का इनकार करते हैं, वो हक़ीक़त में उस पैग़म्बर की भी पैरवी नहीं करते होते हैं, जिसे वो मानते हैं क्योंकि उन्होंने असल में उस आलमगीर सीधे और सच्चे रास्ते को नहीं पाया है, जिसे हज़रत मूसा या ईसा (अलैहि०) या किसी दूसरे पैग़म्बर ने पेश किया था, बल्कि वो सिर्फ़ बाप-दादा की अंधी पैरवी में एक पैग़म्बर को मान रहे हैं। उनका असल मज़हब नस्लपरस्ती का तास्सुब (पक्षपात) और बाप-दादा की अंधी तक़लीद (अनुसरण) है, न कि किसी पैग़म्बर की पैरवी।


اٰمَنَ الرَّسُوۡلُ بِمَاۤ اُنۡزِلَ اِلَیۡہِ مِنۡ رَّبِّہٖ وَ الۡمُؤۡمِنُوۡنَ ؕ کُلٌّ اٰمَنَ بِاللّٰہِ وَ مَلٰٓئِکَتِہٖ وَ کُتُبِہٖ وَ رُسُلِہٖ ۟ لَا نُفَرِّقُ بَیۡنَ اَحَدٍ مِّنۡ رُّسُلِہٖ ۟ وَ قَالُوۡا سَمِعۡنَا وَ اَطَعۡنَا ٭۫ غُفۡرَانَکَ رَبَّنَا وَ اِلَیۡکَ الۡمَصِیۡرُ
"रसूल उस हिदायत पर ईमान लाया है जो उसके रब की तरफ़ से उस पर उतरी है। और जो लोग इस रसूल के माननेवाले हैं, उन्होंने भी इस हिदायत को दिल से मान लिया है। ये सब अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों को मानते हैं और उनका कहना ये है कि “हम अल्लाह के रसूलों को एक-दूसरे से अलग नहीं करते। हमने हुक्म सुना और फ़रमाँबरदार हुए। मालिक ! हम तुझसे ग़लतियों पर माफ़ी चाहते हैं और हमें तेरी ही तरफ़ पलटना है।"
[कुरआन 2:285]


सभी पैगंबरों का मकसद अल्लाह के दीन को कायम करना था।

شَرَعَ لَکُمۡ مِّنَ الدِّیۡنِ مَا وَصّٰی بِہٖ نُوۡحًا وَّ الَّذِیۡۤ اَوۡحَیۡنَاۤ اِلَیۡکَ وَ مَا وَصَّیۡنَا بِہٖۤ اِبۡرٰہِیۡمَ وَ مُوۡسٰی وَ عِیۡسٰۤی اَنۡ اَقِیۡمُوا الدِّیۡنَ وَ لَا تَتَفَرَّقُوۡا فِیۡہِ ؕ کَبُرَ عَلَی الۡمُشۡرِکِیۡنَ مَا تَدۡعُوۡہُمۡ اِلَیۡہِ ؕ اَللّٰہُ یَجۡتَبِیۡۤ اِلَیۡہِ مَنۡ یَّشَآءُ وَ یَہۡدِیۡۤ اِلَیۡہِ مَنۡ یُّنِیۡبُ
"उसने तुम्हारे लिये दीन का वही तरीक़ा मुक़र्रर किया है जिसका हुक्म उसने नूह को दिया था और जिसे (ऐ मुहम्मद) अब तुम्हारी तरफ़ हमने वही के ज़रिए से भेजा है और जिसकी हिदायत हम इबराहीम और मूसा और ईसा को दे चुके हैं, इस ताकीद के साथ कि क़ायम करो इस दीन को और इसमें टुकड़े-टुकड़े न हो जाओ। यही बात इन मुशरिकों को सख़्त नागवार हुई, जिसकी तरफ़ (ऐ नबी) तुम उन्हें दावत दे रहे हो। अल्लाह जिसे चाहता है, अपना कर लेता है और वो अपनी तरफ़ आने का रास्ता उसी को दिखाता है जो उसकी तरफ़ पलटे।"
[कुरआन 42:13]


पैगंबरों के बीच फर्क करना पैगंबरों का इनकार करना है।

اِنَّ الَّذِیۡنَ یَکۡفُرُوۡنَ بِاللّٰہِ وَ رُسُلِہٖ وَ یُرِیۡدُوۡنَ اَنۡ یُّفَرِّقُوۡا بَیۡنَ اللّٰہِ وَ رُسُلِہٖ وَ یَقُوۡلُوۡنَ نُؤۡمِنُ بِبَعۡضٍ وَّ نَکۡفُرُ بِبَعۡضٍ ۙ وَّ یُرِیۡدُوۡنَ اَنۡ یَّتَّخِذُوۡا بَیۡنَ ذٰلِکَ سَبِیۡلًا
"जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों का इनकार करते हैं और चाहते हैं कि अल्लाह और उसके रसूलों के बीच फ़र्क़ करें और कहते हैं कि हम किसी को मानेंगे और किसी को न मानेंगे और कुफ़्र और ईमान के बीच में एक राह निकालना चाहते हैं।"
[कुरआन 4:150]


اُولٰٓئِکَ ہُمُ الۡکٰفِرُوۡنَ حَقًّا ۚ وَ اَعۡتَدۡنَا لِلۡکٰفِرِیۡنَ عَذَابًا مُّہِیۡنًا
"वो सब पक्के इनकारी हैं और ऐसे इनकारियों के लिये हमने वो सज़ा तैयार कर रखी है जो उन्हें रुसवा और बेइज़्ज़त कर देनेवाली होगी।"
[कुरआन 4:151]


यानी इनकारी होने में वो लोग जो न ख़ुदा को मानते हैं, न उसके रसूलों को और वो लोग जो ख़ुदा को मानते हैं मगर रसूलों को नहीं मानते और वो लोग जो किसी रसूल को मानते हैं और किसी को नहीं मानते, सब बराबर हैं। इनमें से किसी के इनकारी होने में ज़र्रा बराबर शक की गुंजाइश नहीं।


सभी पैगम्बर आपस में तरदीद करने वाले नहीं बल्कि तसदीक करने वाले थे।

وَ قَفَّیۡنَا عَلٰۤی اٰثَارِہِمۡ بِعِیۡسَی ابۡنِ مَرۡیَمَ مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ مِنَ التَّوۡرٰىۃِ ۪ وَ اٰتَیۡنٰہُ الۡاِنۡجِیۡلَ فِیۡہِ ہُدًی وَّ نُوۡرٌ ۙ وَّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَیۡنَ یَدَیۡہِ مِنَ التَّوۡرٰىۃِ وَ ہُدًی وَّ مَوۡعِظَۃً لِّلۡمُتَّقِیۡنَ
"फिर हमने इन पैग़म्बरों के बाद मरयम के बेटे ईसा को भेजा। तौरात में से जो कुछ उसके सामने मौजूद था वो उसकी तसदीक़ करनेवाला था। और हमने उसको इंजील दी जिसमें रहनुमाई और रौशनी थी और वो भी तौरात में से जो कुछ उस वक़्त मौजूद था उसकी तसदीक़ करनेवाली थी। और अल्लाह से डरनेवाले लोगों के लिये सरासर हिदायत और नसीहत थी।"
[कुरआन 5:46]


यानी मसीह (अलैहि०) कोई नया मज़हब लेकर नहीं आए थे बल्कि वही एक दीन (धर्म), जो पिछले सारे नबियों का दीन (धर्म) था, मसीह का दीन भी था और उसी की तरफ़ वो दावत देते थे। तौरात की असल तालीमात (शिक्षाओं) में से जो कुछ उनके ज़माने में महफ़ूज़ था उसको मसीह ख़ुद भी मानते थे और इंजील भी उसकी तसदीक़ करती थी। (देखें मत्ती अध्याय-5 आयत-17, 18) क़ुरआन इस हक़ीक़त को बार-बार दोहराता है कि ख़ुदा की तरफ़ से जितने नबी दुनिया के किसी कोने में आए हैं उनमें से कोई भी पिछले नबियों को रद्द करने के लिये और उनके कामों को मिटाकर अपना नया मज़हब चलाने के लिये नहीं आया था बल्कि हर नबी अपने पिछले नबियों की तसदीक़ (पुष्टि) करता था और उसी काम को आगे बढाने के लिये आता था जिसे अगलों ने एक पाक विरासत की हैसियत से छोड़ा था। इसी तरह अल्लाह ने अपनी कोई किताब पहले आई हुई किताबों की ताईद और तसदीक़ में थी।


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